By - Gurumantra Civil Class
At - 2024-01-13 18:42:44
ब्रिटिश भारत में प्रशासनिक विकास
• भारतीय प्रशासनिक ढांचा प्रधानतया ब्रिटिश शासन की विरासत है।
• भारतीय प्रशासन के विभिन्न ढांचागत और कार्यप्रणालीगत पक्षों, जैसे- सचिवालय प्रणाली, अखिल भारतीय सेवाएँ, भर्ती, प्रशिक्षण, कार्यालय पद्धति, स्थानीय प्रशासन, जिला प्रशासन, बजट प्रणाली, लेखापरीक्षा, केंद्रीय करोँ की प्रवृत्ति, पुलिस प्रशासन, राजस्व प्रशासन आदि की जगह ब्रिटिश शासन मेँ निहित हैं।
भारत मेँ ब्रिटिश शासन काल को दो चरणों मेँ विभक्त कर सकते हैं :-
1. वर्ष 1858 तक कंपनी का शासन
2. वर्ष 1947 तक ब्रिटिश ताज का शासन भारत।
• 1857 की क्रांति की समाप्ति के बाद भारत में जो सैनिक एवं प्रशासनिक परिवर्तन किये गये उनसे स्पष्ट हो जाता है कि 1857 के विप्लव का ब्रिटिश नीति पर निर्णायक प्रभाव पङा। सैनिक पुनर्गठन के अंतर्गत विभिन्न जाति के सैनिकों को अलग-अलग रेजिमेण्टों में गठित किया करना तथा प्रशासकीय क्षेत्रों में भारतीयों को उच्च पदों से वंचित करना, परिवर्तित ब्रिटिश नीति के कुछ उदाहरण हैं।
• अंग्रेज अपने आपको शत्रुओं से घिरे हुए समझते थे। ब्रिटिश प्रशासकों एवं राजनीतिज्ञों में दो विचारधाराएँ प्रचलित हुई। प्रथम तो यह कि भारत में ब्रिटिश नीति एक सैनिक विजेता की भाँति होनी चाहिए। भारतीयों के प्रति उदार नीति का अर्थ सरकार की दुर्बलता होगी।इस नीति को प्रतिक्रियावादी नीति कहा जाता था।
• दूसरी विचारधारा के अनुसार शिक्षित एवं योग्य भारतीयों को प्रशासन संचालन में भाग लेने का अवसर देना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने से ब्रिटिश साम्राज्य के अस्तित्व को पुनः खतरा उत्पन्न हो सकता है। इस नीति को उदारवादी नीति कहा गया।
• विप्लव के बाद ये दोनों विचारधाराएँ अंग्रेजों की प्रशासनिक नीति को प्रभावित करती रही। 1858 ई. से 1905 ई. के मध्य 11 गवर्नर-जनरल भारत आये, सभी किसी न किसी विचारधारा से अवश्य प्रभावित थे। किन्तु लार्ड रिपन(Lord Ripon) और लार्ड कर्जन (Lord curzon)इन दोनों विचारधाराओं का ज्वलंत प्रतिनिधित्व करते थे।
प्रशासनिक नीति :-(1858-1880ई.)
1857 ई. के विप्लव के बाद प्रशासन में कई परिवर्तन किये गये।
सैनिक प्रशासन
• विप्लव के पूर्व भारत में अंग्रेजी सेना के दो भाग थे। एक तो कंपनी रेजीमेण्ट कहलाती थी, जिसमें सभी सैनिक भारतीय थे, किन्तु ऑफिसर अंग्रेज थे। दूसरी क्वीन रेजीमेण्ट कहलाती थी, जिसमें सभी सैनिक व अधिकारी अंग्रेज थे। क्वीन रेजीमेण्ट के सैनिकों को वेतन व अन्य सुविधाएँ कंपनी रेजीमेण्ट से अधिक थी। लार्ड केनिंग (Lord Kenning)(1857-62) सैनिक प्रशासन को इस प्रकार पुनर्गठित करना चाहता था, जिससे कि भविष्य में पुनः खतरा उत्पन्न न हो सके।
• अतः केनिंग ने सेना के इस विभाजन को समाप्त कर दिया। यद्यपि क्वीन रेजीमेण्ट के सैनिकों ने इसका प्रबल विरोध किया, किन्तु केनिंग ने नहीं माना।
प्रशासकीय विकेन्द्रीकरण
• 1833 के चार्टर एक्ट(Charter act) द्वारा प्रशासनिक मामलों में केन्द्रीयकरण लागू किया गया था। लार्ड डलहौजी(Lord Dalhousie) के काल में 1853 का चार्टर एक्ट पारित हुआ, जिसमें विधेयक संबंधी कार्य करने के लिए गवर्नर-जनरल की कौंसिल का विस्तार किया गया तथा लार्ड डलहौजी ने इस कौंसिल का संचालन संसदीय प्रणाली के आधार पर किया।
• फलस्वरूप कौंसिल में 6 गैर-सरकारी सदस्य विरोधी दल की भाँति सरकार की कटु आलोचना किया करते थे। इस प्रणाली के कारण केनिंग को अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पङा।
• उपर्युक्त व्यवस्था में परिवर्तन करने हेतु 1861 में इंडियन कौंसिल एक्ट पारित किया गया, जिसमें प्रांतों को कानून बनाने के संबंध में कुछ स्वतंत्रता दे दी गई।इस एक्ट के पूर्व समस्त प्रशासन एक कीली पर घूमता था, किन्तु अब शासन को अलग-2 विभागों का उत्तरदायित्व सौंप दिया।
• कौंसिल के सदस्यों को अपने-2 विभागों से संबंधित मामलों में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार दिया गया। केवल नीति संबंधी मामले ही गवर्नर जनरल के समक्ष प्रस्तुत किये जाते थे।इस अधिनियम द्वारा गवर्नर-जनरल तथा उसकी कार्यवाही की निरंकुशता में वृद्धि करने का अधिकार दे दिया गया।प्रशासन के इस विकेन्द्रीकरण से इतना लाभ हुआ कि कुछ भारतीयों को ब्रिटिश प्रशासन से संबंद्ध कर दिया गया, लेकिन उन्हें कार्यकारिणी के कार्यों में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं था।
भूमि व्यवस्था में परिवर्तन
• लार्ड केनिंग द्वारा भारत में जमींदारों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए 1859 में बंगाल का लगान एक्ट(Bengal Lagaan Act) स्वीकृत किया गया, जिसके अंतर्गत सभी किसानों को जो निरंतर 12 वर्ष से किसी भूमि पर अधिकार किये हुए थे, उन्हें उस भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया तथा किसानों द्वारा अपने जमींदारों को दिया जाने वाला लगान भी निश्चित किया गया। इस निश्चित लगान में तब तक वृद्धि नहीं की जा सकती थी, जब तक कि कोई कानूनी अदालत इस बारे में जांच करके लगान वृद्धि की अनुमति न दे दे। जिन किसानों के पास 1793 से भूमि थी, उसका किराया किसी भी स्थिति में नहीं बढाया जा सकता था।
• इस अधिनियम का किसानों ने विरोध किया अतः 1879 में एक किराया आयोग(Rent commission) नियुक्त किया गया और इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1885 में पुनः एक एक्ट स्वीकृत किया गया, जिसमें 12 वर्षीय अधिकार की बङी उदार व्याख्या की गई।फिर भी मुकदमेबाजी तथा अन्य परेशानियों के कारण किसान, जमींदार की लगान वृद्धि की मांग से सहमत हो ही जाता था।
• केनिंग ने अवध के ताल्लुकेदारों का समर्थन प्राप्त करने के प्रयत्न में किसानों के हितों की उपेक्षा की थी। सर जॉन लॉरेन्स किसानों के हितों का समर्थक था। अतः उसने 1864 में डेवीज की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग नियुक्त किया।
• 1886 में अवध लगान अधिनियम(Awadh Lagaan Act) पास किया गया, जिसके अनुसार जो किसान 30 वर्षों से किसी भूमि पर अधिकार किये हुए थे उसे भूमि पर अधिकार प्रदान किया गया।
वित्तीय प्रशासन
• 1857 की क्रांति के कारण सरकार की वित्तीय स्थिति खराब हो गयी थी। फिर भी कंपनी के ऋणों को चुकाने का दायित्व भी भारत सरकार को सौंप दिया गया था। इससे सरकार की वित्तीय कठिनाइयाँ अत्यधिक बढ गई थी। अतः केनिंग के लिए आय के नये साधन ढूँढना आवश्यक था। केनिंग ने आयात -कर, जो साढे तीन से पाँच प्रतिशत तक था, बढाकर 10 प्रतिशत कर दिया।
• 1859-60 में व्यापार पर लाइसेंस-कर तथा आयकर लगाये गये। आयकर 200 रुपये से 500 रुपये की आय पर 2 प्रतिशत तथा 500 रुपये से ऊपर 4 प्रतिशत लगाया गया। इस आयकर से अंग्रेज व्यापारी अधिक प्रभावित हुए। इंग्लैण्ड के व्यापारियों ने आयात-कर समाप्त करने की मांग की, किन्तु भारत सरकार ने आयात-कर समाप्त करने की बजाय लाइसेंस -कर समाप्त कर दिया।
• 1862 में आयकर भी समाप्त कर दिया गया। 1869-70 लॉरेन्स ने आयकर पुनः लगा दिया। लॉरेन्स के समय बंगाल,बंबई, मद्रास में नमक-कर की दर असमान थी। लॉरेन्स ने नमक – दर को समान स्तर पर लाने का सुझाव दिया, किन्तु भारत सचिव के आदेश से बंगाल में नमक-कर की दर कम कर दी गई, तथा बंबई व मद्रास में नमक-दर को बढा दिया गया।
• 1864 में आयात-कर घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया गया तथा तंबाकू पर लगे आयात-कर को 20 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया। 1866 में आय के साधनों में वृद्धि करने के लिए लॉरेन्स ने स्टांप-कर लगाया, जिसके अनुसार प्रत्येक मुकदमे पर, जो न्यायालय में पेश किया जायेगा उस पर एक रुपये का स्टांप लगाया जायेगा। एक हजार रुपये के मुकदमे पर 10 प्रतिशत के हिसाब से स्टांप लगाये जायेंगे।
• 1833 का चार्टर एक्ट द्वारा वित्त का केन्द्रीकरण कर दिया गया।किन्तु प्रांतीय सरकारें केन्द्र के वित्तीय नियंत्रण से मुक्त होना चाहती थी। अतः 1870 में लॉर्ड मेयो (1869-71)ने रिचर्ड टेम्पल तथा स्ट्रेची की सहायता से वित्त का विकेन्द्रीकरण कर दिया और कुछ विशेष विभागों के प्रशासन एवं राजस्व का दायित्व प्रांतीय सरकारों को सौंप दिया।
भारतीय नागरिक सेवा
• 1854 में मेकाले समिति की सिफारिशों के अनुसार 1855 में प्रतियोगिता परीक्षा प्रणाली आरंभ हुई। यह प्रतियोगिता प्रणाली 1855 के अधिनियम में सम्मिलित कर ली गई।
• इस अधिनियम के अनुसार भारत सचिव को सेवाओं में भर्ती की अधिकतम आयु 23 वर्ष थी। केनिंग ने यह अधिकतम आयु घटाकर 22 वर्ष कर दी।
• 1864 में भर्ती की अधिकतम आयु पुनः घटाकर 21 वर्ष कर दी तथा लार्ड लिटन ने 1876 में भर्ती के लिए अधिकतम आयु 19 वर्ष तथा निम्नतम आयु 17 वर्ष कर दी।
राजकीय उपाधि व शाही दरबार
• 1876 में इंग्लैण्ड में डिजरैली सरकार ने एक प्रस्ताव द्वारा महारानी विक्टोरिया को केसरे-हिन्द की उपाधि से विभूषित किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य भारतीयों के ह्रदय में महारानी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना था। 1877 में इस उपाधि की विधिवत् घोषणा करने के लिए लार्ड लिटन ने दिल्ली में एक शानदार शाही दरबार का आयोजन किया, जिसमें सभी भारतीय नरेशों को आमंत्रित किया गया।
• भारतीय नरेशों ने दरबार में लिटन ने महारानी विक्टोरिया(Queen Victoria) के द्वारा केसरे-हिन्द की उपाधि ग्रहण करने की घोषणा की। लिटन ने यह दरबार उस समय आयोजित किया था, जबकि बंगाल में चक्रवात तथा अकाल का प्रकोप छाया हुआ था। लिटन ने लाखों रुपये केवल शाही दरबार पर प्रदर्शन करने के लिए खर्च कर दिये, जबकि लाखों भारतीय भूख से तङप-2 कर मौत की भेंट चढ रहे थे।
• भारतीय समाचार पत्रों में इस शाही दरबार की तीव्र आलोचना की गई। किन्तु लिटन का कहना था कि शाही दरबार से भारतीय नरेश इंग्लैण्ड की महारानी के भक्त तथा इंग्लैण्ड की सैन्य शक्ति के उपासक बन गये हैं।
शस्र अधिनियम
• 1878 के पूर्व भारतीयों को निजी संपत्ति तथा कृषि की सुरक्षा के लिए शस्र रखने की सुविधा प्राप्त थी। भारत के अधिकांश प्रांतों में डकैतियों की संख्या में भी वृद्धि हो रही थी तथा जंगली जानवरों से न केवल कृषि की हानि हो रही थी, बल्कि जनहानि भी अत्यधिक हो रही थी। इन परिस्थितियों में शस्र रखना नितांत आवश्यक था।
• किन्तु 14 मार्च, 1878 को केन्द्रीय कौंसिल ने अक शस्र अधिनियम पास करके बिना लाइसेंस शस्र रखने पर रोक लगा दी और सभी प्रकार के शस्रों के आयात पर भारी कर लगा दिया।
• जनवरी, 1879 में लिटन ने एक आदेश प्रसारित कर समस्त यूरोपियनों, जमींदारों, राजकीय उपाधि प्राप्त व्यक्तियों तथा नगरपालिकाओं के स्वामिभक्त सदस्यों को इस एक्ट से मुक्त कर दिया। इस आदेश द्वारा लिटन ने न केवल प्रजातीय विभेद की नीति को बढावा दिया बल्कि भारतीय-2 के बीच विभेद पैदा कर दिया।
• वास्तव में ब्रिटिश सरकार को भारतीयों पर भरोसा नहीं था, अतः इस अधिनियम द्वारा तथा लिटन के आदेश द्वारा सामान्य जनता को निशस्र कर दिया गया।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट
• लार्ड लिटन की प्रतिक्रियादी नीति की भारतीय समाचार – पत्रों ने तीव्र आलोचना की थी। भारतीय भाषाओं के समाचार – पत्र अंग्रेज समर्थक राजाओं और जमींदारों की भी तीखी आलोचना करते थे। अतः वह भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों पर प्रतिबंध लगाना चाहते थे।
• यद्यपि अंग्रेजी भाषा के समाचार-पत्रों में भी सरकार की आलोचना होती थी, किन्तु लिटन इन आलोचनाओं को आपत्तिजनक नहीं मानता था । अतः 14मार्च, 1878 को लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पास कर दिया। इस एक्ट के अनुसार भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों के संपादकों के लिए यह अनिवार्य कर दिया कि वे अपने क्षेत्र के मजिस्ट्रेट अथवा कलेक्टर को लिखित आश्वासन दें कि वे अपने पत्रों में ऐसी कोई चीज प्रकाशित नहीं करेंगे, जिससे जनता में सरकार के विरुद्ध आक्रोश फैलने अथवा सांप्रदायिक द्वेष फैलने की आशंका हो।
• संपादकों को यह भी कहा गया कि कोई समाचार,प्रकाशन से पूर्व उसका प्रूफ सरकारी अधिकारी से स्वीकृत करा ले। इस एक्ट का उल्लंघन करने वाले संपादकों को दंड देने का अधिकार न्यायाधीशों के स्थान पर कार्यकारिणी को दे दिया गया।
• लिटन की इस प्रतिक्रियावादी नीति का जनता ने तीव्र विरोध किया।
लोक सेवा का विकासक्रम
• लोक सेवा और लोक सेवा प्रणाली की भारत मेँ शुरुआत पहली बार ब्रिटिश शासकों द्वारा ईस्ट इंडिया के शासनकाल (17वीं) शताब्दी के दौरान हुई थी।
• शुरुआत में वाणिज्यिक कार्य में लगे ईस्ट इंडिया कंपनी के सेवको को कंपनी की स्थल सेना और नौसेना के कर्मचारिओं से अलग रखने के उद्देश्य से लोकसेवक कहा जाता था।
1675 में कंपनी ने पदो को नियमित तौर पर निम्नलिखित ढंग से श्रेणीबद्ध करने की परंपरा डाली- (नीचे से ऊपर के क्रम मेँ)
1. अपरेंटिस
2. राइटर
3. फैक्टर
4. जूनियर मर्चेंट
5. सीनियर मर्चेंट
• बाद में जब कंपनी के नियंत्रण क्षेत्र का विस्तार हुआ तो लोक सेवको को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़े।
• वर्ष 1765 तक लोकसेवक शब्द का प्रयोग कंपनी के अधिकारिक अभिलेखों मेँ होने लगा था।
• लॉर्ड वारेन हैस्टिंग्स और लार्ड कार्नवालिस के प्रयासो के फलस्वरुप लोक सेवा का उदय हुआ।
• हेस्टिंग्स ने लोक सेवा की नींव रखी और कार्नवालिस ने इसे तर्कसंगत एवं नया रुप प्रदान किया।इसलिए लॉर्ड कार्नवालिस को भारत में लोक सेवा का जनक कहा जाता है। उसने उच्च लोक सेवा की शुरुआत की, जो निचले स्तर की लोक सेवा से अलग थी।
• उच्च लोक सेवा का गठन कंपनी के कानून द्वारा जबकि निचले स्तर की लोक सेवा का गठन अन्यथा किया गया था।
कार्नवालिस ने उत्तर लोक सेवा के पदो को अंग्रेजों के लिए ही आरक्षित रखकर भारतीयो को उच्च पदो से वंचित रखा क्योंकि-
1. कार्नवालिस को भारतीयो निष्ठा और योग्यता पर विश्वास नहीं था।
2. उसकी सोच थी कि भारत में ब्रिटिश शासन को स्थापित करने और संगठित रखने का कार्य भारतीय मूल के लोग पर नहीं छोड़ा जा सकता।
3. उसका मानना था कि भारत में ब्रिटिश मॉडल पर आधारित प्रशासन केवल अंग्रेजो द्वारा ही स्थापित किया जा सकता है, भारतीयों द्वारा नहीं।
4. वह सिविल सेवा के अधीन उच्च पदों को ब्रिटिश समाज के प्रभावशाली लोगों के लिए आरक्षित रखना चाहता था।
• वर्ष 1800 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजजी ने कंपनी के लोक सेवको को प्रशिक्षण देने के लिए कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की।
• वेलेजली के इस कार्य को कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स (ईस्ट इंडिया कंपनी का शासी निकाय) का समर्थन नहीं मिला, जिन्होंने प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए इंग्लैंड में हेलीबरी में वर्ष 1806 मेँ ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना की थी।
• चार्टर एक्ट 1833 के माध्यम से कंपनी के लोक सेवको के चयन के आधार के रुप में खुली प्रतियोगिता प्रणाली की शुरुआत का प्रयास किया।
• इस एक्ट में यह भी उल्लेख था कि भारतीयों को कंपनी के अंतर्गत रोजगार, पद और अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।तथापि इस एक्ट के प्रावधान बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण लागू नहीं हो सके जो संरक्षण प्रणाली को ही जारी रखना चाहते थे।
• मैकाले समिति चार्टर एक्ट 1853 के माध्यम से संरक्षण प्रणाली समाप्त हुई तथा कंपनी के लोक सेवकों के चयन और भर्ती के आधार के रुप में खुली प्रतियोगिता प्रणाली का सूत्रपात हुआ।
• इस प्रकार बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स अपनी संरक्षक शक्तियो से वंचित हो गए और उच्च लोक सेवा की प्रतियोगिता मेँ नियंत्रण बोर्ड द्वारा बनाए जाने वाले नियमो के तहत भारतीयों को भी शामिल कर लिया गया।
• इस अधिनियम के उक्त प्रावधानोँ को लागू करने के उपाय सुझाने के लिए वर्ष 1854 में मैकाले समिति (भारतीय लोक सेवा से संबंधित समिति) की नियुक्ति हुई।
मैकाले समिति ने अपनी रिपोर्ट 1854 में ही प्रस्तुत कर दी जिसमेँ निम्नलिखित सिफारिश की गई थीं-
1. सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए खुली प्रतियोगिता प्रणाली अपनायी जानी चाहिए।
2. इस परीक्षा में प्रवेश के लिए अभ्यार्थियोँ की आयु 18 से 23 वर्ष होनी चाहिए।
3. प्रतियोगी परीक्षा का आयोजन लंदन में किया जाना चाहिए।
4. अभ्यर्थियों को अंतिम तौर पर नियुक्त करने से पहले उन्हें कुछ समय के लिए परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर रखा जाना चाहिए।
5. हेलीबरी स्थित ईस्ट इंडिया कॉलेज को बंद किया जाना चाहिए।
6. प्रतियोगी परीक्षा का स्तर ऊँचा होना चाहिए तथा गहन ज्ञान से युक्त अभ्यर्थियोँ का ही चयन ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
7. नियंत्रण बोर्ड ने उक्त सभी अनुशंसाओं को स्वीकार कर उन्हें लागू कर दिया।
8.पहली खुली प्रतियोगिता का आयोजन 1855 में गठित नियंत्रण बोर्ड के अधीन लंदन मेँ कराया गया।
9. बाद में वर्ष 1858 में इस प्रतियोगी परीक्षा के आयोजन की जिम्मेदारी वर्ष 1855 में गठित ब्रिटिश सिविल सर्विस कमीशन को सौंपी गई।
10. 1858 में ही ईस्ट इंडिया कॉलेज को बंद करके लोक सेवको को ब्रिटिश विश्वविद्यालयो मेँ प्रशिक्षण दिया जाने लगा था।
11. पहले भारतीय सत्येंद्र नाथ टैगोर को उच्चतर लोक सेवा मेँ प्रवेश 1864 में जाकर ही प्राप्त हो सका।
12. इंडियन सिविल सर्विस एक्ट 1861 में उच्च सेवा के सदस्योँ के कुछ महत्वपूर्ण पदों को आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया था।
इसके बाद सिविल सर्विस एक्ट 1870 के माध्यम से 1861 के अधिनियम की त्रुटियों को सुधारा गया और इसमें भारतीयो के प्रवेश का प्रावधान किया गया। परंतु इसे तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिटन द्वारा 1879 में ही लागू किया जा सका।
एचीशन आयोग
वर्ष 1886 में चार्ल्स एचीशन की अध्यक्षता में लोकसेवा आयोग का गठन किया गया ताकि लोक सेवा में उच्च पदों पर आसीन होने की भारतीयों की दावेदारी के प्रति पूरा न्याय किया जा सके।
एचीशन आयोग ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 1887 में प्रस्तुत की जिसमें निम्नलिखित सिफारिशें की गई थी-
1. सिविल सेवाओं के दो स्तरीय वर्गीकरण (अर्थात उच्च और निचले) की जगह 3 स्तरीय वर्गीकरण अर्थात इंपीरियल (उच्चतम), प्रोविंशियल (प्रांतीय) और सबऑर्डिनेट (अधीनस्थ) को अपनाया जाना चाहिए।
2. सिविल सेवा में प्रवेश के लिए अधिकतम आयु सीमा 23 वर्ष निर्धारित की जानी चाहिए।
3. भर्ती की सांविधिक सिविल सेवा प्रणाली का होना चाहिए।
4. प्रतियोगी परीक्षा इंग्लैंड और भारत में साथ-साथ आयोजित नहीँ होनी चाहिए।
5. इंपीरियल सेवा के अधीन कुछ प्रतिशत पड़ प्रांतीय सिविल सेवा के सदस्यों को पदोन्नत करके भरे जाने चाहिए आयोग की अनुशंसाओं को वृहद् स्तर पर स्वीकार और लागू किया गया। सांविधिक सिविल सेवा को 1892 में समाप्त कर दिया गया।
इसलिंग्टन आयोग
पुनः 1912 में इसलिंग्टन की अध्यक्षता में भारत में लोक सेवा पर शाही आयोग की नियुक्ति की गई।
इसलिंग्टन आयोग ने 1915 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें निम्नलिखित सिफारिशें की गई थीं-
1. उच्चतर पदो पर भर्ती आंशिक रुप से इंग्लैंड और आंशिक रुप से भारत मेँ की जानी चाहिए। किंतु इसने इंग्लैंड और भारत में एक ही समय पर प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करने के विचार के समर्थन नहीँ किया था।
2. उच्चतर पदों 25 प्रतिशत आंशिक रुप से प्रत्यक्ष भर्ती तथा आंशिक रुप से पदोन्नति के माध्यम से भारतीयोँ द्वारा भरा जाए।
3. भारत सरकार के अधीन सेवाओं को श्रेणी I और श्रेणी II मेँ वर्गीकृत किया जाए।
4. लोक सेवको के वेतन का निर्धारण करते समय कार्य क्षमता को बनाए रखने के सिद्धांत का अंगीकरण किया जाना चाहिए।
5. सीधी भर्ती के लिए 2 वर्ष की परिवीक्षा अवधि होनी चाहिए। आई. सी. एस. के लिए यह अवधि तीन वर्ष की होनी चाहिए।
6. आयोग की रिपोर्ट 1917 मेँ प्रकाशित हुई जब इसकी सिफारिशें प्रथम विश्व युद्ध और 1917 की अगस्त घोषणा के कारण अप्रासंगिक हो चुकी थी। इसलिए इन सिफारिशों पर किसी प्रकार का गंभीर विचार विमर्श नहीं हुआ था।
मोंट-फोर्ड रिपोर्ट
लोक सेवा के विकासक्रम में अगला मील का पत्थर 1918 में मांटेग्यू-चेंसफोर्ड-रिपोर्ट अथवा मोंट-फोर्ड रिपोर्ट या भारतीय संवैधानिक सुधारोँ पर रिपोर्ट) थी,
जिसमें निम्नलिखित सिफारिशेँ की गई थीं-
• उच्चतर पदों का 33% भारत में भर्ती के माध्यम से भरा जाए और इस प्रतिशत को 1.5 % वार्षिक की दर से बढ़ाया जाए।
• भारत और इंग्लैंड में एक ही समय पर प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित की जाए।
• आई.सी.एस. के सदस्यों को अच्छा वेतन, पेंशन लाभ और भत्ते दिए जाने चाहिए।
• उपरोक्त सिफारिशों को स्वीकार किया गया और 1919 के भारत शासन अधिनियम के द्वारा लागू किया गया।
इस अधिनियम के समय 9 अखिल भारतीय सेवायें मौजूद थीं :-
1. भारतीय सिविल सेवा ICS
2. भारतीय पुलिस सेवा
3. भारतीय वन सेवा
4. भारती वन अभियांत्रिकी सेवा
5. भारतीय अभियांत्रिकी सेवा
6. इंडियन सिविल वेटरनरी सर्विस
7. भारतीय चिकित्सा सेवा
8. भारतीय शैक्षिक सेवा
9. भारतीय कृषि सेवा
10. इस सूची मेँ भारतीय कृषि सेवा के रुप मेँ अंतिम अखिल भारतीय सेवा 1906-07 मेँ जोड़ी गयी थी।
• इन सेवाओं के सदस्य भारत के राज्य सचिव द्वारा भर्ती और नियंत्रित किए जाते थे। इसलिए इन सेवाओं को राज्य सेवा के सचिव के रुप मेँ भी माना जाता था।
• उल्लेखनीय रुप से अखिल भारतीय सेवा शब्द का पहली बार 1918 मेँ कार्य विभाजन समिति द्वारा प्रयुक्त किया गया था। एम. इ. गाटलेट इस समिति के अध्यक्ष थे।
• 1918 और 1919 के सुहारों के परिणामस्वरुप पहली प्रतियोगिता परीक्षा (ICS परीक्षा) ब्रिटिश सिविल सेवा आयोग के पर्यवेक्षणाधीन 1922 में भारत में (इलाहाबाद में) आयोजित हुई थीं।
• इस समय तक उच्चतर लोक सेवा में प्रवेश के लिए पांच पद्धतियाँ मौजूद थीं।
ये पद्धतियाँ थीं-
1. इंग्लैंड मेँ आयोजित खुली प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा
2. भारत में आयोजित पृथक प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा
बार से नियुक्तियों द्वारा (न्यायिक पदों के संबंध में)
3. सामुदायिक एवं प्रांतीय प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिए नामांकन द्वारा (भारत में)
4. 1922 में भारत सरकार द्वारा निम्नतर सेवाओं पर भर्ती के लिए कर्मचारी चयन बोर्ड का गठन किया गया। यह 1926 तक काम करता रहा।
5. इसके बाद कार्यों को नवगठित लोक सेवा आयोग द्वारा संपन्न किया जाने लगा।
ली आयोग
वर्ष 1923 में लार्ड विस्काउंट ली की अध्यक्षता मेँ भारत मेँ उच्च सिविल सेवाओं से सम्बंधित रॉयल कमीशन की नियुक्ति हुई।
कमीशन ने अपनी रिपोर्ट 1924 प्रस्तुत करते हुए निम्नलिखित अनुशंसाएँ कीं-
• भारतीय सिविल सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय चिकित्सा सेवा, भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (सिंचाई शाखा), भारतीय वन सेवा (मुंबई प्रांत को छोड़कर) को बनाए रखना चाहिए। इन सेवाओं के सदस्योँ की नियुक्ति तथा उन पर नियंत्रण रखने का कार्य भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा किया जाना चाहिए।
• अखिल भारतीय स्तर की अन्य सेवाओं, यथा- भारतीय कृषि सेवा, भारतीय वेटरनरी सेवा, भारतीय शैक्षिक सेवा, भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (सड़क एवं भवन शाखा) तथा भारतीय वन सेवा (केवल मुंबई प्रांत मेँ) के लिए आगे कोई नियुक्ति / भर्ती नहीँ की जानी चाहिए। भविष्य मेँ इन सेवाओं के सदस्योँ की नियुक्ति और नियंत्रण रखने का कार्य प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना चाहिए।
• सेवाओं के भारतीयकरण के लिए उच्च पदों में से 20% पद प्रांतीय सिविल सेवा में पदोन्नति के आधार पर भरे जाने चाहिए। सीधी भर्ती के समय अंग्रेजों और भारतीयों का अनुपात बराबर होना चाहिए ताकि लगभग 15 वर्ष मेँ 50-50 के अनुपात का लक्ष्य हासिल हो सके।
• ऐसे ब्रिटिश अधिकारियों को समानुपातिक पेंशन के आधार पर सेवानिवृत्ति की अनुमति दी जानी चाहिए जो भारतीय मंत्रियोँ के अधीन कार्य करने के इच्छुक न हों।
• भारत सरकार अधिनियम 1919 के प्रावधान के अनुसार लोक सेवा आयोग का गठन किया जाना चाहिए।
• उक्त अनुशंसाओं को मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लागू करते हुए 1926 में लोक सेवा आयोग की स्थापना की और आयोग को लोक सेवकों की भर्ती करने का कार्य सौंपा।
• इस आयोग मेँ एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्यों का प्रावधान था और इसके पहले अध्यक्ष ब्रिटिश गृह लोक सेवा के वरिष्ठ सदस्य सर रॅास बार्कर थे।
• 1937 में (जब 1935 का अधिनियम लागू हुआ) इस आयोग का स्थान संघीय लोक सेवा आयोग ने ले लिया और अंत में 26 जनवरी 1950 (जब भारतीय संविधान लागू हुआ) को संघ लोक सेवा आयोग अस्तित्व में आया।
• भारत सरकार अधिनियम, 1935 मेँ लोकसभा के सदस्यों के अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा संबंधी प्रावधान किया गया था।
• इस अधिनियम में संघीय लोक सेवा आयोग तथा प्रांतीय लोक सेवा आयोग की स्थापना के साथ-साथ दो या दो से अधिक प्रांतो के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना करने का भी प्रावधान था।
• वर्ष 1947 में अखिल भारतीय स्तर की केवल दो सेवाएँ ही अस्तित्व में थीं- इंडियन सिविल सर्विस और इंडियन पुलिस सर्विस।
• इसके अतिरिक्त केंद्रीय और राज्य स्तर की विभिन्न सेवायें भी अस्तित्व में थीं।
केंद्रीय सेवाएं 4 श्रेणियों में वर्गीकृत थीं-
श्रेणी-I, श्रेणी-II, अधीनस्थ और चतुर्थ श्रेणी की निम्नतर सेवाएँ।
अन्य संस्थाओं का विकास
1. केन्द्रीय सचिवालय
• वर्ष 1843 में भारत के गवर्नर जनरल ने भारत के सचिवालय को बंगाल सरकार के सचिवालय से पृथक कर दिया था, जिसके फलस्वरुप केंद्रीय सचिवालय मेँ गृह, वित्त, रक्षा और विदेश विभागों की स्थापना हुई।
• वर्ष 1859 में लार्ड कैनिंग द्वारा पोर्टफोलियो (विभाग-विभाजन) की प्रणाली शुरु की गई जिसके फलस्वरुप गवर्नल जनरल परिषद के एक सदस्य को केंद्रीय सचिवालय के एक या एक से अधिक विभागोँ का प्रभारी बनाया गया और परिषद की ओर से आदेश जारी करने के लिए प्राधिकृत किया गया था।
• वर्ष 1905 में लॉर्ड कर्जन ने सचिवालय के कार्मिकोँ के लिए कार्यकाल संबंधी प्रणाली शुरु की थी।
• वर्ष 1905 में भारत सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा रेलवे बोर्ड का गठन किया गया, जिसके फलस्वरुप रेलवे पर नियंत्रण का कार्य लोक निर्माण विभाग से लेकर इस बोर्ड को सौंप दिया गया था।
• वर्ष 1947 में भारत सरकार के विभागोँ का नाम बदलकर मंत्रालय कर दिया गया। उस समय केंद्रीय सचिवालय में वैसे 18 मंत्रालय थे।
2. राज्य प्रशासन
ब्रिटिश शासनकाल के समय अस्तित्व में आए और विकसित हुए राज्य प्रशासन से जुड़ी संस्थाएँ इस प्रकार थीं-
• वर्ष 1772 में लार्ड वारेन हैस्टिंग्स ने राजस्व संग्रहण और न्याय प्रदान करने के दोहरे प्रयोजन से जिला कलेक्टर के पद की रचना की।
• वर्ष 1786 में राज्य स्तर पर राजस्व प्रशासन से जुड़े मुद्दोँ पर निपटने के लिए सर्वप्रथम बंगाल मेँ राजस्व बोर्ड नामक संस्था का गठन किया गया था।
• वर्ष 1792 में लार्ड कार्नवालिस ने जमींदारी थानेदार प्रणाली की जगह दरोगा प्रणाली की शुरुआत की जो जिला प्रमुख के सीधे नियंत्रण में थी।
• वर्ष 1829 में लार्ड विलियम बेंटिक ने जिला और राज्य मुख्यालयों के बीच एक मध्यस्थ प्राधिकरण के रुप में प्रभागीय आयुक्त के पद की रचना की थी।
• वर्ष 1861 में भारतीय पुलिस अधिनियम के माध्यम से कांस्टेबल प्रणाली की स्थापना हुई जिसके द्वारा जिला पुलिस को जिला मजिस्ट्रेट (जिला कलेक्टर) के अधीन किया गया था।
3. स्थानीय प्रशासन
वर्तमान भारत के शहरी स्थानीय शासन से जुड़ी संस्थाएँ ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अस्तित्व में आई और विकसित हुईं जो इस प्रकार हैं-
• वर्ष 1687 में भारत में पहले नगर निगम की स्थापना मद्रास मेँ हुई।
• वर्ष 1726 में बंबई (वर्तमान मुंबई) और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) नगर निगमों की स्थापना हुई।
• वर्ष 1870 में लार्ड मेयो के वित्तीय विकेंद्रीकरण से संबंधित प्रस्ताव द्वारा स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का विकास हुआ था।
• लॉर्ड रिपन के वर्ष 1882 के प्रस्ताव को स्थानीय स्वशासन का ‘मैग्नाकार्टा’ माना गया। लॉर्ड रिपन को भारत मेँ स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है।
• विकेंद्रीकरण के मुद्दे पर रॉयल कमीशन की नियुक्ति सन 1905 में की गई थी, जिसने अपनी रिपोर्ट 1009 में प्रस्तुत की। इस कमीशन के चेयरमैन हॉबहाउस थे।
• भारत सरकार अधिनियम 1919 के माध्यम से प्रांतो में शुरु की गई द्वैध शासन प्रणाली के तहत स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषय का दर्जा प्राप्त हुआ था, जिसके प्रभारी भारतीय मंत्री होते थे।
• सन 1924 में केंद्रीय विधायिका द्वारा एक कैंटोनमेंट एक्ट पारित किया गया।
• भारत सरकार अधिनियम 1935 द्वारा शुरु की गई प्रांतीय स्वायत्ता से जुड़ी योजना के तहत स्थानीय स्वशासन को प्रांतीय विजय घोषित किया गया।
4. वित्तीय प्रशासन
• 1735 में भारतीय लेखा परीक्षा व लेखा विभाग का गठन किया गया।
• सन 1860 में बजट प्रणाली की शुरुआत हुई।
• वर्ष 1870 में लार्ड मेयो ने वित्तीय प्रशासन का विकेंद्रीकरण किया जिसके फलस्वरूप प्रांतीय सरकारों को स्थानीय वित्तीय प्रबंधन के लिए उत्तरदायी बनाया गया था।
• वर्ष 1921 में आक्वर्थ समिति की सिफारिश पर रेल बजट को आम बजट से पृथक कर दिया गया।
• सन 1921 में केंद्र में लोक लेखा समिति का गठन हुआ।
• वर्ष 1935 में केंद्रीय अधिनियम द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना हुई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद परिवर्तन
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान के माध्यम से भारतीय प्रशासन का जो ढांचा तैयार हुआ, उसमें प्रजातांत्रिक और कल्याणकारी राज्य का प्रावधान किया गया था। *स्वतंत्र भारत में प्रशासन की दृष्टि कई बदलाव हुए,
जो इस प्रकार हैं-
• केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर संसदीय प्रणाली की सरकार की शुरुआत हुई। इसमें कार्यपालिका, जो विधायिका से उत्पन्न थी, को प्रमुखता प्रदान करने के साथ-साथ इसे विधायिका के प्रति जवाबदेह भी बनाया गया।
• केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के बटवारे के साथ साथ संघीय राजनीतिक प्रणाली की शुरुआत हुई किंतु केंद्र सरकार को अधिक शक्ति प्रदान की गई।
• राजनीतिक कार्यपालिका की उच्चतर लोक सेवकों पर बरकरार रखी गई तथा लोक सेवको को राजनीतिक कार्यपालिका के अधीन माना गया।
• राजनीति के दोनों स्तरों (केंद्र और राज्य) पर कल्याण और विकास से जुड़े कई विभागोँ का विकास किया गया। दोनो स्तरों पर नई लोक सेवाओं (अखिल भारतीय, जैसे- आई.एफ.एस. और केंद्रीय सेवा दोनों) तथा लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।
• लोक सेवको की भूमिका में बदलाव लाया गया और अन्य सामाजिक आर्थिक विकास प्रक्रिया में बदलाव लाने वाले अभिकर्ता का कार्यभार सौंपा गया।
• राष्ट्रीय क्रांति और जिला स्तर पर नियोजन के माध्यम से प्रशासन में कल्याण और विकास संबंधी पक्षों को शामिल किया गया। सबसे नीचे के स्तरों पर पर प्रजातंत्र को बल प्रदान करने के लिए पंचायती राज प्रणाली का आविर्भाव हुआ।
• सलाहकार समितियों, दबाव समूह और अन्य के माध्यम से सभी स्तरों पर प्रशासन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की गई।
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