मैसूर शहर का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसके प्राचीनतम शासक कदम्ब वंश के थे, जिनका उल्लेख टॉल्मी ने किया है।
कदम्बों को चेरों, पल्लवों और चालुक्यों से युद्ध करना पड़ा था। 12वीं शताब्दी में जाकर मैसूर का शासन कदम्बों के हाथों से होयसलों के हाथों में आया, जिन्होंने द्वारासमुद्र अथवा आधुनिक हलेबिड को अपनी राजधानी बनाया था।
होयसल राजा रायचन्द्र से ही अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने मैसूर जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित किया था। इसके उपरान्त मैसूर विजयनगर राज्य में सम्मिलित कर लिया गया और उसके विघटन के उपरान्त 1610 ई. में वह पुन: स्थानीय हिन्दू राजा के अधिकार में आ गया था।
इस राजवंश के चौथे उत्तराधिकारी चिक्क देवराज ने मैसूर की शक्ति और सत्ता में उल्लेखनीय वृद्धि की। किन्तु 18वीं शताब्दी के मध्य में उसका राजवंश हैदरअली द्वारा अपदस्थ कर दिया गया था और उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने 1799 ई. तक उस पर राज्य किया।
टीपू की पराजय और मृत्यु के उपरान्त विजयी अंग्रेज़ो ने मैसूर को संरक्षित राज्य बनाकर वहाँ एक पाँच वर्षीय बालक कृष्णराज वाडियर को सिंहासन पर बैठाया था।
कृष्णराज अत्यंत अयोग्य शासक सिद्ध हुआ, 1821 ई. में ब्रिटिश सरकार ने शासन प्रबंध अपने हाथों में ले लिया, परंतु 1867 ई. में कृष्ण के उत्तराधिकारी चाम राजेन्द्र को पुन: शासन सौंप दिया।
उस समय से इस सुशासित राज्य का 1947 ई. में भारतीय संघ में विलय कर दिया गया।
अतः तालीकोटा का निर्णायक युद्ध जिसने विजयनगर साम्राज्य का अंत कर दिया के, अवशेषों पर जिन स्वतंत्र राज्यों का जन्म हुआ, उनमें मैसूर एक प्रमुख राज्य था।मैसूर पर वाड्यार वंश का शासन था,इस वंश के अंतिम शासक चिक्का कृष्णराज द्वितीय के शासन काल में राज्य की वास्तविक सत्ता देवराज और नंजराज के हाथों में थी।
चिक्का कृष्णराज के समय में दक्कन में मराठों,निजामों,अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में अपने-2 प्रभुत्व को लेकर संघर्ष चल रहा था।
मैसूर इस समय मराठों और निजाम के बीच संघर्ष का मुद्दा बना था क्योंकि मराठे लगातार मैसूर पर आक्रमण कर उसे वित्तीय और राजनीतिक दृष्टि से कमजोर कर दिया था,दूसरी ओर निजाम मैसूर को मुगल प्रदेश मानकर इस पर अपना अधिकार समझते थे।
1749 ई. में नंजराज जो मैसूर राज्य में राजस्व और वित्त नियंत्रक था,ने हैदरअली को उसके अधिकारी सैनिक जीवन को शुरू करने का अवसर दिया।
1755 में हैदरअली डिंडीगुल का फौजदार बना।इसी समय मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टनम् पर मराठों के आक्रमण का भय व्याप्त हो गया परिणाम स्वरूप हैदरअली को राजधानी की राजनीति में हस्तक्षेप कर नंदराज और देवराज को राजनीति से संन्यास लेने के लिए विवश किया।
मैसूर राज्य के हैदर विरोधी गुट ने मराठों को मैसूर पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया, 1760 में हैदर मराठों द्वारा पराजित हुआ, लेकिन शीघ्र ही पानीपत की तीसरी लङाई में हुई मराठों की पराजय ने हैदर को अपनी स्थिति मजबूत बनाने का अवसर दिया।
1761 ई. तक हैदरअली के पास मैसूर की समस्त शक्ति केन्द्रित हो गई।डिंडीगुल में हैदरअली ने फ्रांसीसियों के सहयोग से 1735 ई. में एक शस्रागार की स्थापना की।
आंग्ल-मैसूर युद्ध
आंग्ल-मैसूर युद्ध, दरअसल मैसूर राज्य तथा अंग्रेजों के मध्य हुए संघर्ष को आंग्ल-मैसूर युद्ध के नाम से जाना जाता है।
1767-1799 के बीच कुल 4 युद्ध लड़े गए और इन आंग्ल-मैसूर युद्ध के पीछे कई कारण थे जिनमें से कुछ कारण निम्न हैं-
1. हैदर अली के उत्कर्ष से अंग्रेज उसे अपने प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी के रूप में देखने लगे थे।
2. अंग्रेजों और हैदर अली के मध्य संघर्ष होने का एक प्रमुख कारण यह भी था कि दोनों ही अपने क्षेत्र में वृद्धि करने को उत्सुक थे।
3. अंग्रेजों का मराठों तथा हैदराबाद के निजाम के साथ साठ-गाँठ करना हैदर अली की आँखों में खटकता रहा।
हैदर अली अंग्रेजों के कट्टर विरोधी फ्रांसीसियों की ओर अधिक आकर्षित था।
4. हैदर अली अपनी नौ-सेना बनाना चाहता था, जिसके लिए उसने अपनी सीमाओं का विस्तार समुद्र तट तक करने का प्रयास किया। पर अंग्रेजों ने उसके हर प्रयास को असफल करा और गुन्टूर तथा माही पर अधिकार कर लिया।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-1769)
यह युद्ध अंग्रेजों को आक्रमक नीति का परिणाम था । हैदर अली ने अंग्रेजों को करारा जवाब देने के उद्देश्य से मराठा तथा निजाम से संधि कर एक संयुक्त सैनिक मोर्चा बनाया।
हालाँकि पहले अंग्रेजों ने मराठों और हैदराबाद के निजाम के साथ मिलकर मैसूर पर हमला किया। अंग्रेजों का नेतृत्व जनरल जोसेफ स्मिथ ने किया।
तदुपरांत हैदर अली ने कूटनीति का प्रयोग कर मराठों और हैदराबाद के निजाम को अपनी तरफ मिला लिया और इस युद्ध में अंग्रेजों को बुरी तरह हराया।
हैदर अली के नेतृत्व वाले मोर्चे ने अंग्रेजों के मित्र राज्य कर्नाटक पर आक्रमण किया परंतु 1767 इसी में हैदर और निजाम तिरुवन्नामलाई संगम में पराजित हुए।
निजाम हैदर के साथ छोड़कर अंग्रेजों की ओर हो गया ।हैदर ने मंगलोर पर आक्रमण कर मुंबई से आई प्रशिक्षित अंग्रेजी सेना को पराजित किया और उन्हें मद्रास तक पीछे धकेल दिया।
इससे अंग्रेज बुरी तरह भयभीत हो गये और उन्होंने 4 अप्रैल, 1769 को हैदर अली की शर्तों पर मद्रास की संधि कर ली।
संधि के तहत –
1. अंग्रेज बंदियों को छोड़ दिया गया।
2. दोनो एक दूसरे के क्षेत्र पर कब्जा छोड़ेंगे।
3. अंग्रेज युद्ध के दौरान हुयी युद्ध हानि का जुर्माना भरेंगे।
4. किसी भी विपत्ति के समय दोनों एक दूसरे का सहयोग करेंगे।
परन्तु अंग्रेजों ने धोखा दिया और 1771 में जब तीसरी बार मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया तब अंग्रेजों ने हैदर अली की मदद करने से इनकार कर दिया। जिस कारण हैदर अली जब तक जिया तब तक अंग्रेजों से नफरत करता रहा।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784)
प्रथम युद्ध की संधि केवल नाम मात्र की थी।
संधि होने के बावजूद भी अंग्रेजों तथा हैदर अली के मध्य संबंध अच्छे नहीं थे।
अंग्रेजों को बस अपना काम निकालना था।
1773 में गवर्नर जनरल का पद शुरू हो गया था।
1780 के दौरान बंगाल का गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स था।
इस युद्ध में हैदर अली ने मराठों और हैदराबाद के निजाम के साथ मिलकर फिर से संधि कर अंग्रेजी सेना के साथ युद्ध किया।
सन 1780 ईसवी में हैदर अली ने कर्नाटक पर आक्रमण कर द्वितीय आंग्ल- मैसूर युद्ध की शुरुआत की।
अंग्रेज कर्नल बेली को हराकर कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर अधिकार कर लिया।
1781 में हैदर का सामना अंग्रेज जनरल आयरकूट से हुआ जिसे वारेन हेस्टिंग्स ने हैदर के विरुद्ध भेजा था। आयरकूट ने पोर्टोनोवा के युद्ध में हैदर को परास्त किया लेकिन इसका उसे कोई तात्कालिक लाभ नहीं मिला।
1782 ई. में हैदर एक बार फिर अंग्रेजी सेना को पराजित करने में सफल हुआ लेकिन युद्ध क्षेत्र में घायल हो जाने के कारण 7 दिसंबर 1782 में हैदर अली की मृत्यु हो गयी।
इसका बेटा टीपू सुल्तान मैसूर का अलगा शासक बना, और उसने युद्ध को जारी रखा।
उसने अंग्रेजी सेना के ब्रिगेडियर मैथ्यूज को 1783 ईसवी में बंदी बना लिया।
मार्च 1784 में टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के साथ मंगलौर की संधि की और द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का अंत हुआ।
इस संधि के बाद दोनों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेशों को लौटा दिया लेकिन इससे असंतुष्ट गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने कहा कि यह लॉर्ड मैकार्टनी कैसा आदमी है मैं अभी भी विश्वास करता हूं कि वह संधि के बावजूद भी कर्नाटक खो देगा।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792)
अंग्रेजों की शासन नीति के अनुसार युद्ध के बाद होने वाली संधियाँ केवल अगले आक्रमण से पहले का आराम भर होती थी। अंग्रेजों ने इसी नियत से मंगलौर की संधि भी करी थी।
इस युद्ध का कारण अंग्रेजों ने टीपू के ऊपर इस आरोप को लगाकर तैयार किया कि उसने फ्रांसीसियों के साथ अंग्रेज के विरुद्ध गुप्त समझौता किया है तथा त्रावणकोर पर आक्रमण किया है।
1790 में लॉर्ड कॉर्नवालिस ने मराठों और निजाम के साथ मिलकर टीपू के विरूद्ध एक त्रिदलीय संगठन बना लिया। अंग्रेजों ने इन लोगों की मदद से श्रीरंगपट्टनम पर आक्रमण किया मिंडोज के नेतृत्व में दीपू पराजित हुआ।
1792 को लार्ड कार्नवालिस के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने वैल्लौर, अम्बूर तथा बंगलौर को जीत लिया और श्रीरंगपट्टनम को घेर लिया। टीपू सुल्तान ने इसका विरोध करते हुए युद्ध जारी रखा पर अंततः जब उसने देखा कि इस युद्ध में जीत हासिल करना असंभव है तो उसने संधि कर ली। 1792 में श्रीरंगपट्टनम की संधि से तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध समाप्त हुआ ।
श्रीरंगपट्टनम की संधि-
1792 में टीपू सुल्तान को अपने प्रदेश का लगभग आधा भाग अंग्रेजों तथा उसके साथियों को देना पड़ा।
टीपू सुल्तान को 3 करोड़ रुपये युद्ध हानि के रूप में भरने पड़े, शर्त के अनुसार जब तक यह रुपए नहीं दिए जाते हैं तो टीपू के दोनों पुत्र अंग्रेजो के कब्जे में रहेंगे।
इस युद्ध के बाद मैसूर आर्थिक तथा सामरिक रूप से इतना कमजोर हो गया कि टीपू के लिए से अधिक दिनों तक स्वतंत्र रखना मुश्किल हो गया।
(श्रीरंगपट्टनम वर्तमान कर्नाटक में है।)
इस समय बंगाल का गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस था। इसी के नेतृत्व में ये यद्ध भी लड़ा गया था। कार्नवालिस ने अपने शब्दों में इस युद्ध की विजय को कुछ इस तरह वर्णित किया “हमने अपने शत्रु को लगभग पंगु बना दिया है तथा इसके साथ ही अपने सहयोगियों को और शक्तिशाली नहीं बनने दिया”।
1796 में टीपू सुल्तान ने नौसेना बोर्ड का गठन किया।
इसी वर्ष टीपू सुल्तान ने नई राइफलों की फैक्ट्री तथा फ्रांसीसी दूतावास भी स्थापित किया।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799)
अंग्रेजों का ध्यान फिर से मैसूर की तरफ आकर्षित होने लगा।
तृतीय मैसूर-युद्ध के उपरान्त टीपू की शक्ति काफी कम हो चुकी थी।
अंग्रेजों तथा टीपू सुल्तान के मध्य संधि भी हो चुकी थी, परन्तु टीपू सुल्तान अपनी पराजय को भूला नहीं था तथा वो अग्रेंजो से बदला लेना चाहता था।
इसके चलते ही उसने यूरोप में फ्रांस की सरकार से संपर्क स्थापित किया। उसने फ्रांसीसियों को अपनी सेना में भी भर्ती किया। उसने अंतरराष्ट्रीय सहयोग लेने की दिशा में नेपोलियन से भी पत्र व्यवहार किया।
वेलेजली ने भारत आते ही परिस्थिति का शीघ्र ही अध्ययन कर लिया और ये समझ गया कि युद्ध अवश्यम्भावी है।
वेलेजली ने युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी। मगर इससे पूर्व उसने निजाम तथा मराठों को अपनी तरफ मिला लिया।
चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध के समय अंग्रेजी सेना को वैलेजली हैरिस और स्टुअर्ट ने अपना नेतृत्व प्रदान किया।
चतुर्थ युद्ध के समय अंग्रेजों ने निजाम और मराठों से युद्ध में प्राप्त लाभ को तीन बराबर भागों में बांटने की शर्त पर समझौता किया।
1799 में जब बंगाल के गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने टीपू सुल्तान के पास सहायक संधि का प्रस्ताव भेजा, जिसे टीपू सुल्तान ने अस्वीकार कर दिया।
यही चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध का मुख्य कारण बना।
इसी के बाद लार्ड वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया और अंत में 4 मई, 1799 में चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध में लड़ते हुये ही टीपू सुल्तान की श्रीरंगपट्टनम के दुर्ग के पास मृत्यु हो गयी और इसके साथ ही आंग्ल-मैसूर संघर्ष भी समाप्त हो गया।
अंग्रेजों ने मैसूर की गद्दी पर फिर से आड्यार वंश के एक बालक कृष्ण राय को बिठा दिया तथा कनारा, कोयंबटूर और श्रीरंगपट्टनम को अपने राज्य में मिला लिया। मैसूर की जीतने की खुशी में आयरलैंड के लॉर्ड समाज में वैलेजली को मार्क्विस की उपाधि प्रदान की।
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