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किशोर न्याय संसोधन अधिनियम (Juvenile Justice Act) - 2021 

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-01-13 18:30:09

किशोर न्याय संसोधन अधिनियम (Juvenile Justice Act) - 2021 

(स्त्रोत - द हिन्दू, द इंडियन एक्सप्रेस, वीकीपीडीया )

यह विधेयक किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 [Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015) में संशोधन करता है। इस विधेयक में उन बच्चों से संबंधित प्रावधान हैं, जिन्होंने कानूनन कोई अपराध किया हो और जिन्हें देखभाल एवं संरक्षण की आवश्यकता हो। विधेयक में बाल संरक्षण को मज़बूती प्रदान करने के उपाय किये गए हैं।

 

◆◆◆ किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015


यह अधिनियम किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 का स्थान लेता है। यह बिल उन बच्चों से संबंधित है जिन्होने कानूनन कोई अपराध किया हो और जिन्हें देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता हो।

इस अधिनियम में पूर्ववर्ती अधिनियम की शब्दावली में परिवर्तन करते हुए ‘किशोर’ शब्द को ‘बालक’ अथवा ‘ कानून से संघर्षरत बालक’ के साथ परिवर्तित कर दिया गया है। इसके अलावा ‘किशोर’ शब्द से जुड़े नकारात्मक अर्थ को भी समाप्त कर दिया गया है।
इसमें कई नई और स्पष्ट परिभाषाएँ भी शामिल हैं जैसे- अनाथ, परित्यक्त और आत्मसमर्पण करने वाले बच्चे तथा बच्चों द्वारा किये गए छोटे, गंभीर एवं जघन्य अपराध।


यह बिल जघन्य अपराधों में संलिप्त 16-18 वर्ष की आयु के बीच के किशोरों (जुवेनाइल) के ऊपर बालिगों के समान मुकदमा चलाने की अनुमति देता है। साथ ही कोई भी 16-18 वर्षीय जुवेनाइल जिसने कम जघन्य अर्थात् गंभीर अपराध किया हो उसके ऊपर बालिग के समान केवल तभी मुकदमा चलाया जा सकता है जब उसे 21 वर्ष की आयु के बाद पकड़ा गया हो।
इस अधिनियम के अनुसार, प्रत्येक ज़िले में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (Juvenile Justice Board- JJB) और बाल कल्याण समितियों (Child Welfare Committees) के गठन का प्रावधान है।
इस अधिनियम में बच्चे के विरुद्ध अत्याचार, बच्चे को नशीला पदार्थ देने और बच्चे का अपहरण या उसे बेचने के संदर्भ में दंड निर्धारित किया गया है।

इस अधिनियम में गोद लेने के लिये माता-पिता की योग्यता और गोद लेने की पद्धति को शामिल किया गया है।

अनाथ, परित्यक्त और आत्मसमर्पण करने वाले बच्चों हेतु दत्तक/एडॉप्शन प्रक्रियाओं को कारगर बनाने के लिये दत्तक या  प्रक्रियाओं पर एक अलग नया अध्याय को शामिल किया गया है।

इसके अलावा केंद्रीय 'केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण' (Central Adoption Resource Authority- CARA) को एक वैधानिक निकाय का दर्जा प्रदान किया गया है ताकि वह अपने कार्य अधिक प्रभावी ढंग से कर सके।

अधिनियम में कहा गया है कि बच्चे को गोद लेने का अदालत का आदेश अंतिम होगा। वर्तमान में विभिन्न अदालतों में 629 दत्तक ग्रहण के मामले लंबित हैं।

सभी बाल देखभाल संस्थान, चाहे वे राज्य सरकार अथवा स्वैच्छिक या गैर-सरकारी संगठनों द्वारा संचालित हों, अधिनियम के लागू होने की तारीख से 6 महीने के भीतर अधिनियम के तहत अनिवार्य रूप से पंजीकृत होने चाहिये।

यह विधेयक प्रत्येक ज़िले में किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समितियों के गठन का प्रावधान करता है। दोनों (किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समिति) में कम-से-कम एक महिला सदस्य शामिल होनी चाहिये।


●●● किशोर न्याय (बालकों की देखरेख एवं संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2018


यह विधेयक ज़िला मजिस्ट्रेट को बच्चे को गोद लेने के आदेश जारी करने की शक्ति प्रदान करता है ताकि गोद लेने संबंधी लंबित मामलों की संख्या को कम किया जा सके।
इस विधेयक में किसी भी अदालत के समक्ष गोद लेने से संबंधित सभी लंबित मामलों को ज़िला मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित करने का प्रावधान है। इसके माध्यम से मामलों की कार्यवाही में तेज़ी लाने का प्रयास किया जा रहा है।


किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 भारत में किशोर न्याय के लिए प्राथमिक कानूनी ढांचा है। यह अधिनियम किशोर अपराध की रोकथाम और उपचार के लिए एक विशेष दृष्टिकोण प्रदान करता है और किशोर न्याय प्रणाली के दायरे में बच्चों के संरक्षण, उपचार और पुनर्वास के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है। बाल अधिकारों पर 1989 के संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के अनुपालन में लाया गया यह कानून(यूएनसीआरसी), भारत द्वारा 1992 में यूएनसीआरसी पर हस्ताक्षर और अनुसमर्थन के बाद 1986 के पहले के किशोर न्याय अधिनियम को निरस्त कर दिया।


2021 में संसोधन की आवश्यकता -

◆◆◆ राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (National Commission for Protection of Child Rights- NCPCR) द्वारा वर्ष 2020 में बाल देखभाल संस्थानों (Child Care Institutions- CCIs) का ऑडिट किया गया जिसमें पाया गया कि वर्ष 2015 के संशोधन के बाद भी 90% बाल देखभाल संस्थानों का संचालन  NGOs द्वारा किया जा रहा है  तथा 39% CCI पंजीकृत नहीं थे। ऑडिट में पाया गया कि लड़कियों हेतु CCI की संख्या 20% से भी कम है जिनमें , 26% बाल कल्याण अधिकारियों की अनुपस्थित है तथा कुछ राज्यों में लड़कियों हेतु CCI स्थापित ही नहीं किये गए हैं। 

●●● इसके अलावा ⅗ में शौचालय, 1/10 में पीने का पानी तथा 15% में अलग बिस्तर और डाइट प्लान (Diet Plans) का अभाव पाया गया।  

●●● कुछ बाल देखभाल संस्थानों का प्राथमिक लक्ष्य बच्चों का पुनर्वास न होकर धन प्राप्त करना है, क्योंकि इस प्रकार के संस्थानों में बच्चों को अनुदान प्राप्त करने हेतु रखा जाता है।

◆◆◆ प्रस्तावित विधेयक में प्रमुख संशोधन: -

◆◆  गंभीर अपराध: -  गंभीर अपराधों में वे अपराध भी शामिल होंगे जिनके लिये सात वर्ष से अधिक के कारावास का प्रावधान है तथा न्यूनतम सज़ा निर्धारित नहीं की गई है । गंभीर अपराध वे हैं जिनके लिये भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य कानून के तहत सज़ा तथा तीन से सात वर्ष के कारावास का प्रावधान है।
किशोर न्याय बोर्ड (Juvenile Justice Board) उस बच्चे की छानबीन करेगा  जिस पर गंभीर अपराध का आरोप है।

●●  गैर-संज्ञेय अपराध: - 
एक्ट में प्रावधान है कि जिस अपराध के लिये तीन से सात वर्ष की जेल की सज़ा हो, वह संज्ञेय (जिसमें वॉरंट के बिना गिरफ्तारी की अनुमति होती है) और गैर जमानती होगा। यह विधेयक इसमें संशोधन करता है और प्रावधान करता है कि ऐसे अपराध गैर संज्ञेय होंगे।


◆◆◆ गोद लेना/एडॉप्शन:  -   एक्ट में भारत और किसी दूसरे देश के संभावित दत्तक (एडॉप्टिव) माता-पिता द्वारा बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया निर्दिष्ट की गई है। संभावित दत्तक माता-पिता द्वारा बच्चे को स्वीकार करने के बाद एडॉप्शन एजेंसी सिविल अदालत में एडॉप्शन के आदेश प्राप्त करने के लिये आवेदन करती है। अदालत के आदेश से यह स्थापित होता है कि बच्चा एडॉप्टिव माता-पिता का है। बिल में प्रावधान किया गया है कि अदालत के स्थान पर ज़िला मजिस्ट्रेट (अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट सहित) एडॉप्शन का आदेश जारी करेगा।

◆◆◆ अपीलीय प्रावधान :-   विधेयक में प्रावधान किया गया है कि ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा पारित गोद लेने/एडॉप्शन के आदेश से असंतुष्ट कोई भी व्यक्ति इस तरह के आदेश के पारित होने की तारीख से 30 दिनों के भीतर संभागीय आयुक्त के समक्ष अपील दायर कर सकता है। 
इस प्रकार की अपीलों को दायर करने की तारीख से चार सप्ताह के भीतर निपटाया जाना चाहिये।

●●●  ज़िला मजिस्ट्रेट के अतिरिक्त कार्यों में शामिल हैं:- 

 1.  ज़िला बाल संरक्षण इकाई की निगरानी करना  
2. बाल कल्याण समिति के कामकाज की त्रैमासिक समीक्षा करना।

◆◆◆ अधिकृत न्यायालय:-   इस विधेयक में प्रस्ताव किया गया है कि पहले के अधिनियम के तहत सभी अपराधों को बाल न्यायालय के अंतर्गत शामिल किया जाए।

◆◆◆ बाल कल्याण समितियांँ (CWCs):-  इस अधिनियम में प्रावधान है कि कोई व्यक्ति CWCs का सदस्य बनने के योग्य नहीं होगा यदि उसका मानव अधिकारों या बाल अधिकारों के उल्लंघन का कोई रिकॉर्ड हो। 
अगर उसे नैतिक अधमता (भ्रष्टता) से जुड़े अपराध हेतु दोषी ठहराया गया हो और उस आरोप को पलटा न गया हो।
उसे केंद्र सरकार या राज्य सरकार या सरकार के स्वामित्व वाले किसी उपक्रम से हटाया अथवा बर्खास्त किया गया हो। 
वह ज़िले के बाल देखभाल संस्थान में प्रबंधन का एक हिस्सा हो।  

◆◆◆ सदस्यों को हटाना:-  समिति के किसी भी सदस्य को राज्य सरकार की जांँच के बाद हटा दिया जाएगा यदि वह बिना किसी वैध कारण के तीन महीने तक लगातार CWCs की कार्यवाही में भाग नहीं लेता है या यदि एक वर्ष के भीतर संपन्न बैठकों में उसकी उपस्थिति तीन-चौथाई से कम रहती है ।


ध्यातव्य दे कि दिल्ली सामूहिक बलात्कार (16 दिसंबर 2012) के मद्देनजर, कानून को उन अपराधों के खिलाफ अपनी असहायता के कारण देशव्यापी आलोचना का सामना करना पड़ा जहां किशोर मिलते हैं। बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों में शामिल। 

दिसंबर 2012 में दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले का अधिनियम के प्रति जनता की धारणा पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। दोषियों में से एक को किशोर पाया गया और सुधार गृह में 3 साल की सजा सुनाई गई।  आठ रिट याचिकाएंअधिनियम और इसके कई प्रावधानों को असंवैधानिक होने का आरोप लगाते हुए जुलाई 2013 के दूसरे सप्ताह में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुना गया और अधिनियम को संवैधानिक मानते हुए खारिज कर दिया गया। किशोरों की उम्र 18 से घटाकर 16 साल करने की मांग को भी सुप्रीम कोर्ट ने तब ठुकरा दिया जब भारत सरकार ने कहा कि किशोर की उम्र कम करने का कोई प्रस्ताव नहीं है।

2015 में, जनता की भावना का जवाब देते हुए, भारत में संसद के दोनों सदनों ने उस बिल में और संशोधन किया जिसने किशोर आयु को घटाकर 16 कर दिया और जघन्य अपराधों के आरोपी किशोरों के लिए वयस्क जैसा व्यवहार प्रस्तावित किया। निचले सदन यानी लोकसभा ने 7 मई 2015 को और ऊपरी सदन यानी राज्यसभा ने 22 दिसंबर 2015 को बिल पास किया। इस बिल को 31 दिसंबर 2015 को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की सहमति से मंजूरी मिली।

इस विधेयक को पारित करने के लिए आवश्यक चर्चा ने भारी विवाद को जन्म दिया। किशोरों की नई आयु को 18 वर्ष से कम करने का निर्णय कई लोगों द्वारा एक स्वार्थी निर्णय घोषित किया गया था। संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय "किशोर" आयु कटऑफ को 18 वर्ष घोषित किया था, और भारत के कई नागरिकों ने महसूस किया कि उस नियम का पालन करना इसकी खराब प्राथमिकताओं (अपने स्वयं के नागरिकों की जरूरतों पर संयुक्त राष्ट्र को प्राथमिकता देना) का प्रतिबिंब था। भारत में बहुत सारे अपराध 18 वर्ष से कम उम्र के लोगों द्वारा किए जाते हैं, और यह संभावित रूप से उन सभी को मुक्त कर सकता है। इस बहस के कारण, लोकसभा और राज्यसभा के कई सदस्य वास्तव में 18 को आयु सीमा के रूप में चुनने से हिचकिचा रहे थे, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देशों का पालन कर रहे थे। अधिनियम के 2015 के संशोधन के आसपास की बहसों में यह निर्णय बहुत महत्वपूर्ण था।

 

जुलाई 2014 में, इंडियन एक्सप्रेस ने बताया कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा ने अपने सदस्यों से अपनी आयु 18 वर्ष से कम घोषित करने के लिए कहा था। यह सुनिश्चित करेगा कि उन पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के बजाय किशोर न्याय अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया जाए । अधिनियम के तहत अधिकतम सजा तीन साल थी। 


किशोर न्याय अधिनियम, 2000 द्वारा अनिवार्य रूप से किशोर के पुनर्वास और मुख्यधारा में लाने के लिए, किशोर दोषियों की रिहाई से पहले प्रबंधन समितियों का गठन किया जाता है। तद्नुसार इसके लिए एक 'रिलीज के बाद की योजना' अदालत को प्रस्तुत की जाती है।

 

स्त्रोत - द हिन्दू, द इंडियन एक्सप्रेस, वीकीपीडीया

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