By - Gurumantra Civil Class
At - 2024-01-09 21:59:35
रेग्यूलेटिंग एक्ट 1773 (Regulating Act 1773)
ईस्ट इंडिया कंपनी जोकि मूलतः एक व्यापारिक कंपनी थी, जिसका ढ़ाँचा पूर्वी देशों के व्यापार के लिए बनाया गया था। इसके सर्वोच्च अधिकारी भारत से हजारों मील दूर इंग्लैंड में रहते थे, फिर भी, इसने करोड़ों लोगों के ऊपर राजनीतिक आधिपत्य जमा लिया था। इस असामान्य स्थिति के कारण ब्रिटिश सरकार के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी हो गईं,। जैसे-ईस्ट इंडिया कम्पनी और उसके साम्राज्य का ब्रिटेन में बैठे कंपनी के अधिकारी नियंत्रित करना, भारत स्थित अधिकारियों कर्मचारियों और सैनिकों को अंकुश में रखना, बंगाल, मद्रास और बंबई में बिखरे हुए कंपनी के अधिकार-क्षेत्रों के लिए भारत में एक ही नियंत्रण-केंद्र स्थापित करना, ब्रिटेन के उभरते उद्योगपतियों को लाभकारी भारतीय व्यापार और भारत की विशाल संपत्ति में हिस्सा देकर संतुष्ट करना... आदि। इन समस्याओं के समाधान और ब्रिटिश राज्य तथा कंपनी के अधिकारियों के पारस्परिक संबंधों के पुनर्गठन के लिए समय-समय पर अनेक अधिनियम और अध्यादेश पारित किये गये, जिनके द्वारा भारत में संवैधानिक विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।
The East India Company, which was originally a trading company, was structured for the trade of eastern countries. Its highest officials lived in England thousands of miles away from India, yet, it had established political hegemony over millions of people. Due to this unusual situation, many problems arose in front of the British Government. For example, controlling the East India Company and its empire by the officers of the Company sitting in Britain, keeping the officers, employees and soldiers in India under control, a single control in India for the Company's jurisdictions scattered in Bengal, Madras and Bombay- Setting up centres, satisfying the budding industrialists of Britain by giving them a share in the lucrative Indian trade and India's vast wealth...etc. Various Acts and Ordinances were passed from time to time to solve these problems and reorganize the mutual relations between the officers of the British State and the Company, which paved the way for constitutional development in India.
रेग्युलेटिंग एक्ट पारित होने के कारण (Reasons for passing the Regulating Act) :-
बंगाल में द्वैध शासन के अधीन कंपनी के कर्मचारियों ने बंगाल को दिल खोलकर लूटा, जिससे समस्त प्रशासन अस्त-व्यस्त हो गया और बंगाल का पूर्ण विनाश हो गया। 1772 में वारेन हेस्टिंग्स के भारत आने के पहले तक अंग्रेज व्यापारी बंगाल से लूटे हुए सोने के थैले लेकर इंग्लैंड लौटते रहे और अपनी फिजूलखर्ची से अभिजातवर्ग के मन में ईष्र्या उत्पन्न करते रहे। पिट ज्येष्ठ ने इनको अंग्रेजी नवाबों की संज्ञा दी और आशंका व्यक्त की कि इस अपार धन से कहीं वे ब्रिटिश राजनीतिक जीवन को भ्रष्ट न कर दें।
Under the diarchy in Bengal, the Company's employees plundered Bengal lavishly, which disturbed the entire administration and caused complete destruction of Bengal. Until the arrival of Warren Hastings in India in 1772, British merchants returned to England carrying looted gold bags from Bengal and envying the elite with their extravagance. Pitt the eldest called them the English Nawabs and expressed the apprehension that they might corrupt British political life with this immense wealth.
एच.एच. डाडवैल ने लिखा है कि न केवल भारत में कुशासन द्वारा अंग्रेजी नाम को बट्टा लगने का भय था, अपितु यह भी भय था कि इंग्लैंड में भारतीय व्यापार में लगे लोग, जिन्हें अपार धन उपलब्ध था, भ्रष्ट संसदीय प्रणाली के कारण गृह मामलों में प्रभावशाली तथा अनुचित शक्ति प्राप्त करने में सफल न हो जायें। इसलिए इंग्लैंड में यह माँग की जाने लगी थी कि कंपनी के मामलों में संसदीय हस्तक्षेप किया जाना चाहिए।
H.H. Dadawell wrote that not only was there a fear of misgovernance in India discrediting the English name, but there was also a fear that the people engaged in Indian trade in England, who had immense wealth, would become influential and influential in home affairs due to the corrupt parliamentary system. Do not be successful in getting undue power. Therefore, there was a demand in England that there should be parliamentary intervention in the affairs of the Company.
इंग्लैंड में कंपनी के प्रशासन के दो मुख्य अंग थे (There were two main parts of the Company's administration in England) -
कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स तथा कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स जो कंपनी के मामलों पर नियंत्रण रखते थे। (Court of Proprietors and Court of Directors which controlled the affairs of the company.)
कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स के वे सदस्य जो छः माह से अधिक समय तक 500 पौंड से अधिक के शेयरधारक होते थे, वोट देकर कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स का चुनाव करते थे। निदेशक का पद बहुत महत्वपूर्ण होता था और धनवान भागीदार शेयरों को एकाधिकार में लेकर निदेशक बनने का प्रयास करते थे। मतों का यह क्रय-विक्रय और इससे संबद्ध कुकर्म ब्रिटिश जनता या सरकार से छुपे हुए नहीं थे। (Members of the Court of Proprietors who were shareholders of more than £500 for more than six months vote to elect the Court of Directors. The position of director was very important and wealthy partners tried to become directors by monopolizing the shares. This buying and selling of votes and the misdeeds associated with it were not hidden from the British public or government.)
बंगाल से दीवानी की अत्यधिक धन-वसूली की आशा में कंपनी के भागीदारों ने 1766 में लाभांश 6 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत और अगले वर्ष 12.5 प्रतिशत कर दिया। इतने अधिक लाभांश को देखकर अंग्रेजी सरकार ने संसद के अधिनियम द्वारा कंपनी को आज्ञा दी कि कंपनी दो वर्ष तक सरकार को 400,000 पौंड प्रतिवर्ष देगी और फिर यह अवधि 1772 तक बढ़ा दी। किंतु 1771-72 में बंगाल में सूखा पड़ जाने के कारण फसलें नष्ट हो गईं। हैदरअली से संभावित युद्ध और कंपनी के कर्मचारियों की धन-लोलुपता कंपनी की वित्तीय स्थिति डावांडोल हो गई। कंपनी ने पहले ब्रिटिश सरकार को दिये जानेवाले 400,000 पौंड सालाना से छूट माँगी जिससे कंपनी पर ऋण की मात्रा बढ़ने लगी। 1772 में कंपनी ने वास्तविक स्थिति को छुपाकर 12.5 प्रतिशत लाभांश जारी रखा, जबकि कंपनी पर 60 लाख पौंड ऋण था। कंपनी को घाटे से उबारने के लिए डाइरेक्टरों ने बैंक आफ इंग्लैंड से 10 लाख पौंड के ऋण के लिए आवेदन किया। इससे ब्रिटिश सरकार को कंपनी की वास्तविक स्थिति को जानने का अच्छा अवसर मिल गया।
(The Company's partners increased the dividend from 6 per cent to 10 per cent in 1766 and to 12.5 per cent the following year, in the hope of recovering the diwani's exorbitant money from Bengal. Seeing such a high dividend, the British government ordered the company by an act of parliament that the company would pay 400,000 pounds per year to the government for two years and then extended this period till 1772. But due to drought in Bengal in 1771-72, the crops were destroyed. The possible war with Hyder Ali and the money-gluttony of the company's employees left the company's financial position in turmoil. The company had previously sought an exemption from the £400,000 annuity paid to the British government, which increased the amount of debt the company had to pay. In 1772 the company continued to pay a dividend of 12.5 percent, concealing the actual position, while the company had a debt of £60 million. The directors applied for a £1 million loan from the Bank of England to help the company recover from losses. This gave a good opportunity to the British government to know the actual position of the company.)
नवंबर 1772 में ब्रिटिश सरकार ने कंपनी की कार्यविधि की जाँच करने के लिए दो समितियों की नियुक्ति की-एक प्रवर समिति, दूसरी गुप्त समिति।
(In November 1772, the British government appointed two committees to investigate the company's working - a select committee, the other a secret committee.)
इन समितियों की जाँच में कंपनी के अधिकारियों द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग के कई प्रकरण सामने आये। जाँच समिति की रिपोर्ट के आधार पर भारत में कंपनी की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए 1773 में ब्रिटिश संसद ने दो अधिनियम पारित किये-पहले ऐक्ट के अनुसार कंपनी को 4 प्रतिशत की ब्याज पर 14 लाख पौंड कुछ शर्तों पर ऋण दिया गया। दूसरा अधिनियम रेग्युलेटिंग ऐक्ट था जिसके द्वारा कंपनी के कार्य को नियमित करने के लिए एक संविधान दिया गया। (In the investigation of these committees, several cases of abuse of their powers by the officers of the company came to the fore. On the basis of the report of the Inquiry Committee, the British Parliament passed two Acts in 1773 to control the company's activities in India - according to the first act, the company was given a loan of 14 lakh pounds on certain conditions at an interest of 4 percent. The second act was the Regulating Act, by which a constitution was given to regulate the business of the company.)
किसी भी शासन प्रणाली का यह प्रमुख कार्य होता है कि वह उसके शासकों के उद्देश्यों और लक्ष्यों की पूर्ति कर सके। भारत के विशाल साम्राज्य को हथिया लेने के बाद इस पर नियंत्रण करने और शासन-संचालन के लिए अंग्रेजों ने प्रशासन की एक नई प्रणाली को स्थापित किया। ब्रिटिश कंपनी का मुख्य लक्ष्य कंपनी के मुनाफे में बढ़ोत्तरी, भारत पर अधिकार को ब्रिटेन के लिए फायदेमंद बनाना और भारत पर ब्रिटिश पकड़ को मजबूत बनाये रखना था।
(It is the main function of any system of governance that it can fulfill the objectives and goals of its rulers. After taking over the vast empire of India, the British established a new system of administration to control and govern it. The main goal of the British company was to increase the company's profits, to make India's authority beneficial to Britain and to keep the British hold on India strong.)
सन 1773 का रेग्युलेटिंग ऐक्ट (Regulating Act) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों से सम्बंधित पहला महत्वपूर्ण संसदीय कानून था। कम्पनी शासन के अधीन लाये गये इस ऐक्ट का उद्देश्य भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में लाना था। इसके अतिरिक्त इसका उद्देश्य कंपनी की संचालन समिति में आमूल-चूल परिवर्तन करना और कंपनी के राजनीतिक अस्तित्व को स्वीकार कर उसके व्यापारिक ढाँचे को राजनीतिक कार्यों के संचालन-योग्य बनाना भी था।
(The Regulating Act of 1773 was the first important parliamentary law relating to the activities of the British East India Company. The purpose of this act brought under the Company's rule was to bring the activities of the East India Company in India under the supervision of the British Government. Apart from this, its objective was to make radical changes in the company's steering committee and by accepting the political existence of the company, its business structure was also capable of conducting political functions.)
रेगुलेटिंग एक्ट - 1773 (Regulating Act - 1773)
• इससे पहले ब्रिटिश सरकार ने 1767 में केवल कंपनी के कार्यों में हस्तक्षेप करते हुए 40 लाख की वार्षिक आय में 10% अपना हिस्सा तय किया था। (Earlier, in 1767, the British government had fixed its share of 10% in the annual income of 40 lakhs, only interfering in the affairs of the company.)
• इसके द्वारा पहली बार कम्पनी के प्रशासनिक और राजनीतिक कार्यों को मान्यता मिली और इसके द्वारा भारत में केन्द्रीय प्रशासन की नींव रखी गयी। (It recognized the administrative and political functions of the Company for the first time and laid the foundation of central administration in India.)
• रेगुलेटिंग एक्ट 1773 अधिनियम के द्वारा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का गवर्नर जनरल कहा जाने लगा और उसकी सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन किया गया। लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स बंगाल का पहला गवर्नर जनरल बना। (By the Regulating Act 1773 the Governor of Bengal came to be called the Governor General of Bengal and a four-member Executive Council was constituted to assist him. Lord Warren Hastings became the first Governor General of Bengal.)
• इस एक्ट के द्वारा मद्रास एवं बम्बई के गवर्नरों को बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गाय। इससे पहले बंगाल, मद्रास एवं बम्बई के गवर्नर एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी नहीं थे, तथा वे सीधे अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र थे। (By this act the governors of Madras and Bombay were placed under the Governor General of Bengal. Earlier the governors of Bengal, Madras and Bombay were not accountable to each other, and were free to take their own decisions directly.)
• अब 500 पौण्ड अंशधारियों के स्थान पर 1000 पौण्ड अंशधारियों को कोर्ट ऑफ डायरेक्टर(24 सदस्य की गवर्निंग बॉडी) को चुनने का अधिकार दिया गया। (Now instead of 500 pound shareholders, 1000 pound shareholders were given the right to choose the Court of Directors (governing body of 24 members).
• कंपनी के डायरेक्टर(24 सदस्य की गवर्निंग बॉडी) से कहा गया कि वे अब से राजस्व, दीवानी एवं सैन्य प्रशासन के संबंध में किये गये सभी प्रकार के कार्यों से ब्रिटिश सरकार को अवगत करायेंगे। (The directors of the company (governing body of 24 members) were told that from now on they would apprise the British government of all the works done in relation to revenue, civil and military administration.)
• कंपनी के डायरेक्टरों का कार्यकाल 4 वर्ष कर दिया गया तथा प्रति वर्ष उनमें से एक चौथाई सदस्यों के स्थान पर नये सदस्यों के निर्वाचन की पद्धति को अपनाया गया।(The directors of the company (governing body of 24 members) were told that from now on they would apprise the British government of all the works done in relation to revenue, civil and military administration.)
• बंगाल में एक प्रशासक मण्डल गठित किया गया। जिसमें गवर्नर जनरल तथा 4 पार्षद नियुक्त किये गए थे। (A Board of Administrators was constituted in Bengal. In which the Governor General and 4 councilors were appointed.)
• पार्षद नागरिक तथा सैन्य प्रशासन से सम्बन्धित थे। (The councilors were related to civil and military administration.)
• निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाता था। (Decisions were taken on the basis of majority.)
• इनकी नियुक्त तथा हटाने का अधिकार ब्रिटिश सम्राट एवं कोर्ट ऑफ डायरेक्टरों को था। (The British Emperor and the Court of Directors had the right to appoint and remove them.)
• इस प्रशासक मण्डल का पहला अध्यक्ष लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स बना। (Lord Warren Hastings became the first chairman of this board of administrators.)
• 4 पार्षद क्रमशः क्लैवरिंग, मानसल, बरवैल एवं फिलिप फ्रांसिस थे। (The 4 councilors were Clavering, Mansal, Barwell and Philip Francis respectively.)
• इस एक्ट के अंतर्गत 1774 में बंगाल में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गयी। इसमें मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त तीन अन्य न्यायाधीश नियुक्त किए गए। इसके पहले मुख्य न्यायाधीश “सर एलिजा एम्पी” बने। कम्पनी के सभी कर्मचारी इसके अधीन कर दिए गये। न्यायिक विधियां इंग्लैंड के अनुसार ही थीं। इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी। (Under this act, a Supreme Court was established in Bengal in 1774. In addition to the Chief Justice, three other judges were appointed. Its first Chief Justice became "Sir Eliza Ampey". All the employees of the company were made under it. The judicial methods were the same as that of England. An appeal could be made to the Privy Council in England against the decision of this Court.)
• कानून बनाने का अधिकार गवर्नर जनरल व उसकी परिषद को दे दिया गया किन्तु लागू करने से पूर्व भारत के सचिव की अनुमति लेना अनिवार्य था। (The right to make laws was given to the Governor General and his council, but before implementing it, it was necessary to take the permission of the Secretary of India.)
इस समय तक कंपनी में भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुँच चुका था। अतः इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार पर रोक लगा दी गयी, एवं उनका वेतन बढ़ा दिया गया और किसी भी तरह के उपहार या रिश्वत लेने पर रोक लगा दी गई। (By this time corruption had reached its peak in the company. Therefore, by this act the private business of the employees of the company was banned, and their salary was increased and any kind of gift or bribe was banned.)
द्वारा - चन्द्रशिव सर (Gold Medal Awarded Tutor)
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