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1857 की क्रान्ति में वीर कुँवर सिंह की भूमिका

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-07-18 12:10:48

1857 की क्रान्ति में वीर कुँवर सिंह की भूमिका

1857 ई. के स्वतंत्रता आन्दोलन के महानायक बाबू कुंवर सिंह का जन्म 1782 ई. में शाहाबाद (वर्तमान मोजपुर) के जगदीशपुर के जमींदार परिवार में हुआ था। विदेशी शासन के विरोध की भावना उन्हें विरासत में मिली थी। परम्परागत मान्यता और सोच के विपरीत कुँवर सिंह न तो शोषक मानसिकता के थे और न हीं साम्प्रदायिक थे। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रामशरण जी ने उन्हें राष्ट्रीय एकता का प्रतीक माना है। यही कारण रहा कि अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह में उन्हें रैयतों का पर्याप्त समर्थन मिला। देश प्रेम ने उनके अन्दर अद्भुत रणकौशल पैदा किया था।

12 जून, 1857 को देवघर जिले के रोहिणी गाँव में सैनिकों के विद्रोह के साथ 1857 के राष्ट्रव्यापी विद्रोह का बिहार में क्रमिक प्रारम्भ हुआ। 25 जुलाई, 1857 को दानापुर रेजीमेंट के सिपाहियों ने विद्रोह कर आरा के लिए प्रस्थान किया और 26 जुलाई को जगदीशपुर पहुंचकर बापू कुंवर सिंह को अपना नेता घोषित कर दिया। कुँवर सिंह ने पहले से ही दस हजार देशभक्त सैनिकों को एकत्र कर लिया था। उन्होंने अपने किले की मरम्मत करवा ली थी तथा बन्दूक बनाने का एक कारखाना भी स्थापित कर लिया था।

 

27 जुलाई को उन्होंने विद्रोही सिपाहियों की मदद से आरा नगर पर अधिकार कर लिया। एवं स्वतंत्र सरकार की घोषणा करते हुए स्वयं को इस क्षेत्र का शासक घोषित कर दिया। उन्होंने विद्रोह के दौरान अनुशासन बनाए रखा फलस्वरूप किसी भी यूरोपियन की हत्या नहीं हुई। इस खबर से हुकूमत सकते में आ गई और दानापुर से पाँच सी यूरोपियन और हिन्दुस्तानी फौज के साथ कैप्टन डनवर सहायतार्थ आरा पहुँच गया। यहीं 29 एवं 30 जुलाई को धमासान युद्ध हुआ जिसमें कैप्टन डनवर के साथ ही कई सैनिक भी मारे गए। बचे सिपाही दानापुर भाग गए और आरा पूर्ववत स्वतंत्र रहा। कुँवर सिंह की जीत की खुशी में आम जनता भी शरीक हो गई। इसी बीच बिसेंट आयर (बंगाल आर्टीलरी) की देखरेख में जो फौज इलाहाबाद जा रही थी वह आरा की सूचना पाकर बक्सर से लौट गई और आरा पर हमला बोल दिया। 2-3 अगस्त को बाबू कुँवर सिंह के साथ इस फौज की बीबीगंज (आरा) एवं बिहियां के जंगलों में धमासान लड़ाई हुई। वे गुरिल्ला युद्ध का सूत्रपात करते हुए जगदीशपुर की ओर बढ़े। यद्यपि इस युद्ध में उन्हें आरा छोड़ना पड़ा लेकिन उन्होंने साहस नहीं छोड़ा।

 

अंग्रेजों के इन दमनात्मक उपायों से विद्रोहियों का उत्साह नहीं थमा। कैमूर पहाड़ियों में विद्रोह का नेतृत्व कुँवर सिंह के छोटे भाई अमर सिंह ने किया। इस बीच कुँवर सिंह नोखा होते हुए रोहतास पहुँचे, रामगढ़ बटालियन के विद्रोही सैनिकों ने उन्हें अपना नेता चुना। इन सैनिकों को साथ लेकर वे मिर्जापुर और रोवा होते हुए बाँदा पहुँचे। वहाँ इन्होंने तात्या टोपे से मिलने की कोशिश की। बाँदा से काल्पी होते हुए वे लखनऊ पहुंचे। लखनऊ के नवाब ने उन्हें शाही पोशाक, रूपये और फरमान देकर ससम्मान विदा किया। वे अयोध्या भी गए और नाना साहब से मिलकर कानपुर की लड़ाई में भाग भी लिया। 29 नवम्बर को कानपुर पर पेशवा का कब्जा हुआ था। इस संघर्ष में तात्या टोपे भी थे। बाबू कुँवर सिंह इस युद्ध में पेशवा की ओर से डिविजनल कमांडर थे।

कानपुर में नाना साहेब को सुस्थापित कर कुँवर सिंह ने आजमगढ़ की ओर प्रस्थान किया। आजमगढ़ के पास हो अली करीम अपने तीन सौ सिपाहियों के साथ कुंवर सिंह को सेना से जा मिला। घाघरा नदी के पुराने घाट पर उनके भतीजे अठारह सौ सैनिकों के साथ उपस्थित थे। आजमगढ़ की सुरक्षा के लिए कर्नल मिलमैन वहाँ पहले ही मौजूद था। अतरोलिया के मैदान में 22 मार्च 1858 ई० को जबरदस्त लड़ाई हुई जिसमें कर्नल मिलमैन को जान बचाकर भागना पड़ा। बाबू कुँवर सिंह का झंडा आजमगढ़ किले पर लहरा दिया गया।बाबू कुँवर सिंह की सफलता और कम्पनी की हार के कारण कम्पनी के उच्चाधिकारी हतोत्साहित होने लगे। गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग ने कुँवर सिंह के विरुद्ध सैनिक कारवाई का कड़ा आदेश दिया फलस्वरूप अंग्रेजों का सैनिक दवाव उन पर बढ़ने लगा। इलाहाबाद से लार्ड कार्क और लखनऊ से कैप्टन लुगार्ड ने अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आजमगढ़ के लिए प्रस्थान किया। कुंवर सिंह को भी इस बात की भनक लग गई थी फलतः उन्होंने तत्काल आजमगढ़ छोड देने का निर्णय लिया। अपनी दूरदर्शता का परिचय देते हुए उन्होंने अपनी सेना को दो टुकड़ों में बाँट दिया। एक को आजमगढ़ की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई तथा दूसरी टुकड़ी को साथ लेकर वे जगदीशपुर के लिए रवाना हुए। लुगाई ने कुंवर सिंह का पीछा करने के लिए डगलस को भेजा। 17 अप्रैल 1858 को डगलस ने उन पर आक्रमण कर दिया लेकिन डगलस के प्रयलों को नाकाम कर उन्होंने अपनी यात्रा जारी रखी और 20 अप्रैल को गाजीपुर के मन्नाहार गाँव पहुँच गए। हौसला अफजाई करते हुए वहाँ के ग्रामवासियों ने उनकी आवभगत की तथा ग्रामीणों द्वारा बड़ी संख्या में नौका की व्यवस्था की गई। 21 अप्रैल को वे शिवपुर घाट से गंगा नदी पार करने में सफल हुए। लेकिन इस क्रम में वे बुरी तरह घायल हो गए। कई तरह के झंझावातों को झेलते हुए 22 अप्रैल 1858 को घायल अवस्था में वे अपने घर जगदीशपुर पहुँचे लेकिन वहाँ कैप्टन ली ग्रैंड ने हमला कर दिया। परन्तु 23 अप्रैल को ब्रिटिश सेना को उन्होंने बुरी तरह हराया। कुँवर सिंह स्वयं भी इस युद्ध में घायल हुए और दो दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई।

इस तरह कुँवर सिंह स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में अमर हो गए। उसकी उदात्त राष्ट्रीय भावना, दूरदर्शिता, त्याग और बलिदान ने भारतीय आजादी के सफल को और नजदीक ला खड़ा कर दिया।

विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न

1. 1857 की क्रान्ति में कुँवर सिंह के योगदान का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। (53-55वीं, बी.पी.एस.सी.)

By - Priyanka Maam

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