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आंग्ल - सिक्ख युद्ध

By - Gurumantra Civil Class

At - 2021-11-09 06:39:59

आंग्ल-सिख युद्ध

 

  आंग्ल-सिख युद्ध

अंग्रेजों एवं सिखों के मध्य हुए दो युद्धों को आंग्ल-सिख युद्ध के रूप में सम्बोधित किया जाता है। 

ये युद्ध वर्ष 1845-1849 के मध्य लड़े गए थे।

 इन युद्धों के परिणामस्वरूप पंजाब में सिख साम्राज्य  का अंत हुआ और संपूर्ण सिख क्षेत्र अंग्रेजी हुकूमत के अन्तर्गत आ गया।

 

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध की पृष्ठभूमि

अंग्रेज सदैव से पंजाब की उर्वर भूमि की ओर ललचाई दृष्टि से देखते थे और पंजाब पर आधिपत्य करना चाहता थे।

 इस तथ्य को  भारत में रह रहे अंग्रेज अधिकारियों के ब्रिटेन भेजे गए पत्रों से भी समझ सकते हैं –

 

1. डब्लू० एफ० आसबर्न ने   वर्ष 1838 में अपने पत्र में लिखा था “हमें रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात पंजाब को तुरन्त ही जीत लेना चाहिए और सिंध को अपनी सीमा बना लेना चाहिए। कम्पनी पहले ही बड़े-बड़े ऊँटों को खा चुकी है, तो इस मच्छर की तो बात ही क्या है”।

2. लार्ड एलनबरों ने महारानी विक्टोरिया को एक पत्र में लिखा था कि “वह समय दूर नहीं जब पंजाब हमारे अधीन होगा। ऐसा नहीं कि यह अगले वर्ष ही होगा परन्तु है अनिवार्य”।

अतः उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार पंजाब को अपने आधीन लाना चाहती थी। 

वर्ष 1843 में मेजर ब्राडफुट की लुधियाने में कम्पनी के एजेण्ट के रूप में नियुक्ति हुई। उसने वहां जाते ही स्थिति को और अधिक बिगाड़ दिया। उसने घोषणा की कि सतलुज के पार सभी रियासतें कम्पनी के न केवल संरक्षण में होंगी, अपितु महाराजा दिलीप सिंह की मृत्यु पर ये सब जब्त हो जाएँगी।

वर्ष 1844 में लार्ड एलनबरो के उत्तराधिकारी के रूप में लार्ड हार्डिंग जो एक प्रख्यात सैनिक था, गवर्नर जनरल बन कर आया उसने तुरन्त सेना को सुदृढ़ करने के लिए आवश्यक प्रयत्न किए। 

सिखों ने अंग्रेजों की इस तैयारी का केवल एक ही अर्थ निकाला कि वे आक्रमण और युद्ध करना चाहते हैं।

आंग्ल-सिख युद्ध के प्रारम्भ होने में रानी जिंद कौर का भी सहयोग रहा क्योंकि राजा रणजीत सिंह की मृत्यु उपरान्त खालसा सेना की शक्ति काफी बड़ गई थी और रानी जिंद कौर का उस पर अधिक नियंत्रण नहीं रह गया था, अतः जिंद कौर का हित इसी में था कि यदि खालसा सेना हार गई तो उसकी शक्ति समाप्त हो जाएगी और यदि जीत गई तो अनन्त प्रदेश उसके अधीन आ जाएगा।

 

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-1846)

11 दिसम्बर, 1845 को सिख सेना ने हरिके और कसूर के बीच सतलुज नदी को पार किया।

 13 दिसम्बर, 1845 को लार्ड हार्डिंग ने युद्ध की घोषणा कर दी और आदेश जारी किया कि “महाराजा दिलीप सिंह के राज्य का वह भाग जो सतलुज के बायीं ओर है, वह अब अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाता है”।

इस युद्ध के दौरान 5 बार दोनो सेनाएं आमने-सामने आंयी:-

  1. मुदकी का युद्ध
  2. फिरोजशाह का युद्ध
  3. बदोवाल का युद्ध
  4. अलीवाल का युद्ध
  5. सुभराव का युद्ध

निर्णायक रूप से 10 फरवरी, 1846 को सिख सेना के प्रधान सेनापति लालसिंह एवं तेज सिंह के विश्वासघात के कारण इस युद्ध में सिखों की हार हुई।

युद्ध उपरान्त लाहौर की संधि हुई। ये संधि महाराजा दिलीप सिंह और अंग्रेजों के बीच हुई थी।

लाहौर की संधि  9 मार्च 1846 को हुई थी।  इसके अन्तर्गत-

1. सिख राज्य ने सतलुज के पार के समस्त प्रदेश सदैव के लिए छोड़ दिए।

2. सतलुज और व्यास के मध्य के सभी दुर्गों पर अधिकार पूर्णतया छोड़ा।

3. सिख राज्य द्वारा अंग्रेजों को डेढ़ करोड़ का युद्ध हर्जाना देना पड़ा।

4. सिखों की सेना को सीमित कर दिया गया, पैदल सैनिक – 20000 एवं घुड़सवार – 12000।

5. सिख राज्य किसी भी अन्य यूरोपीय कंपनी के व्यक्ति को अपनी सेवा में नहीं रखेंगे।

6. अवयस्क दिलीप सिंह को महाराजा स्वीकार कर लिया गया तथा रानी जिंद कौर को उनका संरक्षक बनाया गया।

7. लाल सिंह को सिख राज्य का वजीर बनाया गया।

8. एक अंग्रेजी अधिकारी को रेजीडेण्ट बनाकर लाहौर में नियुक्त किया गया । जिसका पूरा खर्चा सिख राज्य को देना होगा। पहले रेजीडेण्ट के रूप में सर हेनरी लारेन्स को नियुक्त किया गया।

9. अंग्रेजी सेना खालसा दरबार के खर्च पर 1846 के अंत तक लाहौर में ही रहेगी।

10. सिखों का प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी इसी युद्ध के बाद महारानी विक्टोरिया को भेज दिया गया।

कारण :-

वास्तव में, अपरोक्ष रूप से, आंग्ल-सिक्ख संघर्ष का बीजारोपण तभी हो गया जब सतलज पर अंग्रेजी सीमांत रेखा के निर्धारण के साथ पूर्वी सिक्ख रियासतों पर अंग्रेजी अभिभावकत्व की स्थापना हुई। सिक्ख राजधानी, लाहौर, के निकट फिरोजपुर का अंग्रेजी छावनी में परिवर्तित होना (1838 ई. ) भी सिक्खों के लिए भावी आशंका का कारण बना। 

गवर्नर जनरल एलनबरा और उसके उत्तराधिकारी हार्डिंज अनुगामी नीति के समर्थक थे। 

23 अक्टूबर 1845 को हार्डिज ने एलेनबरा को लिखा था कि पंजाब या तो सिक्खों का होगा, या अंग्रेजों का; तथा, विलंब केवल इसलिए था कि अभी तक युद्ध का कारण अप्राप्त था। वह कारण भी उपलब्ध हो गया जब प्रबल किंतु अनियंत्रित सिक्ख सेना, अंग्रेजों के उत्तेजनात्मक कार्यों से उद्वेलित हो, तथा पारस्परिक वैमनस्य और षड्यंत्रों से अव्यवस्थित लाहौर दरबार के स्वार्थ लोलुप प्रमुख अधिकारियों द्वारा भड़काए जाने पर, संघर्ष के लिए उद्यत हो गई। सिक्ख सेना के सतलुज पार करते ही (13 दिसम्बर 1845) हार्डिज ने युद्ध की घोषणा कर दी।

1 जनवरी 1845 के अपने एक पत्र में लॉर्ड हार्डिंग में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि वह युद्ध करने के लिए तत्पर है लेकिन अपनी कठिनाइयों को स्पष्ट करते हुए उसने यह भी लिखा है कि किस बहाने सिखों पर आक्रमण किया जाए क्योंकि सिखों के साथ अंग्रेजों केेे अच्छे संबंध हैैै अब तमाम मुश्किलों मेंं सिखों ने अंग्रेजों का साथ दिया है।

 

अन्य कारण :-

1. रानी झिन्दन की कूटनीति-

रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद सिक्ख सेना के अधिकारियों ने उत्तराधिकारी-युद्ध में और दरबार के षड्यंत्रो में अत्यन्त सक्रियता से भाग लिया। 

उनकी शक्ति और उच्छृंखलता इतनी बढ़ गयी थी कि शासन और राज परिवार के लागे उनसे आतंकित हो गये थे। 

उन्हें नियंत्रित करना रानी झिन्दन और सिक्ख दरबार की सामथ्र्य के बाहर था। इसलिए रानी झिन्दन, लालसिंह और सरदार गुलाबसिंह तथा सेनापति तेजसिंह ने सिक्ख सेना को अंग्रेजों से युद्ध के लिए भड़काया। 

2. पंजाब में अराजकता- 

रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के युद्ध और संघर्ष ने पंजाब में अराजकता और अव्यवस्था उत्पन्न कर दी।

 सिक्ख और डोगंरा सरदारों में परस्पर मतभेद और गहरे हो गये वे अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए हत्या, शड़यत्रं और कुचक्रों में फँस गये थे। 

इसका लाभ पंजाब विजय करने के लिए अंग्रेजों ने उठाया।

 उन्होंने राजसिंहासन के प्रतिद्वंद्वी दावेदारों और स्वार्थी अधिकारियों के  षड्यंत्रो  व हत्याओं में सक्रिय भाग लिया।

 

3. अंग्रेजों की महत्वाकांक्षा-

रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में व्याप्त उत्तराधिकार के युद्ध और राजनीतिक अस्थिरता का लाभ अंग्रेज उठाना चाहते थे। 

इससे उनकी पंजाब विजय की महत्वाकांक्षा बढ़ गयी। उन्होंने सिक्ख सरदारों को अपनी और मिलाने के लिए शड़यत्रं ही आरम्भ नहीं किये, अपितु पंजाब पर आक्रमण करने के लिए सैनिक तैयारी भी कर ली। 

 

4. तात्कालिक कारण-

मेजर ब्रॉडफुट ने सिक्ख सेनापति तेजसिंह और गुलाबसिंह को सिक्ख सेना लेकर अंग्रेजों की ओर बढ़ने के लिए उकसाया। 

सिक्ख सेना को भी यह भय हो गया था कि अंग्रेजों ने पंजाब पर आक्रमण करने की पूरी सैनिक तैयारी कर ली है। 

इसीलिए ‘‘खालसा पंचायत’’ ने अंग्रेजों पर आक्रमण करने का प्रस्ताव बहुमत से पारित कर लिया।

 

 

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध की पृष्ठभूमि

लाहौर की संधि के पश्चात शीघ्र ही अंग्रेजों का वास्तविक मकसद सामने आने लगा। 

लालसिंह को एक जाँच में दोषी करार देकर राज्य के बाहर निर्वासित कर दिया गया और लाहौर का शासन एक प्रतिनिधि मण्डल को सौंप दिया गया। लाहौर की संधि के अनुसार वर्ष 1846 के अंत तक अंग्रेजी सेना को लाहौर से चले जाना था, परन्तु लार्ड हार्डिंग कुछ समय और सेना को वहीं रखना चाहता था। 

अतः एक और संधि हुई, भैरोवाल की संधि ।

 

भैरोवाल की संधि – 22 दिसम्बर, 1846 को हुई थी। इसके अनुसार –

1. अल्पवयस्क महाराज दिलीप सिंह के संरक्षण हेतु सेना का लाहौर में ही रहना स्वीकृत हुआ और इसके लिए प्रति वर्ष 22 लाख का खर्च खालसा दरबार को वहन करना था।

2. अंग्रेज रेजीडेण्ट को असैनिक और सैनिक शक्तियाँ प्रदान कर दी गयीं।

 

रानी जिंद कौर ने इसके विरोध में आवाज उठानी शुरू की तो गवर्नर जनरल ने 20 अगस्त, 1847 को एक घोषणा की जिसके अनुसार दिलीप सिंह की शिक्षा के हित में महारानी जिंद कौर को उनसे पृथक कर दिया गया और 48000/- वार्षिक पेंशन देकर शेखपुरा निर्वासित कर दिया गया।

अब 8 सिख सरदारों की परिषद का गठन हुआ, जो महाराजा दिलीप सिंह के साथ शासन की देखभाल करेंगे, परन्तु उस परिषद की अध्यक्षता अंग्रेजी रेजिडेंट द्वारा की जाएगी।

इसके बाद वर्ष 1848 में साम्राज्यवादी लार्ड डलहौजी ने गवर्नर जनरल का पद संभाला। उसका विश्वास था कि हमें नए प्रदेश प्राप्त करने का कोई अवसर नहीं खोना चाहिए। 

डलहौजी को यह अवसर पंजाब के मुल्तान प्रान्त के गवर्नर मूलराज के विद्रोह से प्राप्त हुआ।

 

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध; (1848-1849)

मुल्तान के गवर्नर मूलराज के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सेना ने फिर से सिख साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया।

इस युद्ध के दौरान दो मुख्य लड़ाई लड़ी गयी।

पहली लड़ाई चिलियांवाला की लड़ाई सिख नेता शेर सिंह और अंग्रेजी कमांडर गफ के मध्य लड़ी गयी। ये युद्ध अनिर्णायक रहा पर इसमें अंग्रेजों को भारी क्षति पहुँची थी।

दूसरी लड़ाई गुजरात में चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में 21 फरवरी 1849 में लड़ी।

 इस “तोपों के युद्ध” में सिखों की बुरी तरह से हार हुई।

इसके बाद लार्ड डलहोजी के द्वारा 29 मार्च 1849 को एक घोषणा के द्वारा सम्पूर्ण पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।

दिलीप सिंह और उनकी माता जिंद कौर को 50,000/- पौंड की वार्षिक पेंशन देकर लन्दन भेज दिया गया।

 

युद्ध के प्रमुख कारण थे :-

भैंरोवाल की संधि के बाद पंजाब में सभी महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेज अधिकारी नियुक्त किये जाने लगे और वे प्रशासन में अधिकाधिक हस्तक्षेप करने लगे। इससे सिक्ख अधिक रुष्ट हो गए। 

अंग्रेजों ने सुधार के बहाने मुसलमानों को अजान और गो- वध के अधिकार पद्रान किए और जानबूझकर सिक्खों के हितों के विरुद्ध तथा उनकी धार्मिक भावना के विपरीत कार्य किए जिससे सिक्खों में अत्यधिक असंतोष उत्पन्न हो गया।

सिक्ख सेना की संख्या घटा देने से, अनेक सिक्खों की जीविका के साधन समाप्त हो गए और अनेक लागे बेरोजगार हो गए। बेरोजगारों अपनी बेरोजगारी के लिए अंग्रेजों को उत्तरदायी माना।

सिक्खों का यह विश्वास था कि उनकी पराजय और स्वतंत्रता छिन जाने के कारण उनकी वीरता और युद्ध कौशल का अभाव नहीं, अपितु उनके अधिकारियों और सरदारों की आपसी फूट व पंजाब राज्य के प्रति वि’वासघात था। अत: एक बार पुन: युद्ध होने पर वे अंग्रेजों को निश्चित ही परास्त कर देगे ।

रानी झिंदन को संरक्षिका के पद से पृथक किया जाकर उसके समस्त अधिकार छिन गये। साथ ही अंग्रेजों के विरुद्ध शड़यंत्र करने का आरोप लगाकर द्वारा उसे अपमानित किया गया और उसे चुनार दुर्ग में भजे दिया गया। इससे सिक्खों में भारी क्षोभ उत्पन्न हो गया उनकी विद्रोही भावना को प्रोत्साहन मिला। 

इस समय भारत का गवर्नर-जनरल डलहौजी था। उसमें एक साम्राज्यवादी व्यक्ति था। वह पंजाब को शीघ्रातिशीघ्र अंग्रेज राज्य में सम्मिलित करना चाहता था। इसके लिए उसे एक बहाना चाहिए था, जो मूलराज के विद्रोह ने उसे दे दिया।

 

 

मूलराज का विद्रोह (तात्कालिक कारण)

मूलराज मुल्तान का गवर्नर था। अंग्रेज रेजीडेटं के प्रभाव और हस्तक्षपे से लाहौर दरबार ने मलू राज से उत्तराधिकार कर के रूप में 20 लाख रुपए तथा एक तिहाई राज्य देने की माँग की।

अंग्रेज रेजीडेटं ने उस पर कुशासन का आरोप भी लगाया जो निराधार था, और उसके यहाँ एक अंग्रेज रेजीडेटं रखना चाहा। 

इससे रुष्ट होकर मूलराज ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। फलत: सरदार खानसिंह को मुल्तान का गवर्नर बनाकर उसके साथ दो अंग्रेज अधिकारी वहाँ के प्रशासन पर नियंत्रण रखने के लिए लाहौर के अंग्रेज रेजीडेटं ने मुल्तान भेजे। मलू राज ने मुलतान का दुर्ग तो  अंग्रेजों को दे दिया किन्तु अंग्रेजों के इस अन्याय से मुल्तान के सिक्खों और जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्राहे कर दिया तथा दोनों अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी।

 अत: अंग्रेजों ने मूलराज और रानी झिंदन पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध शड़यत्रं करके विद्रोह को भड़काया, जबकि यह आरोप निराधार था। इससे सिक्खों में भारी असंतोष उत्पन्न हो गया और मुल्तान का विद्रोह समस्त पंजाब में फैल गया। डलहौजी को बहाना मिल गया और उसने 10 अक्टूबर 1848 ई. को सिक्खों के विरुद्ध युद्ध की घोशणा कर दी।

 

 

आंग्ल-सिक्ख युद्ध के परिणाम:-

 

पंजाब का विलय 29 मार्च 1849 ई. को डलहौजी ने एक घोषणा करके पंजाब को अंग्रेजी राज्य का अंग बना लिया और उसका शासन संचालन करने के लिये तीन अंग्रेज कमिश्नरों की एक समिति बना दी गयी। 

दिलीप सिहं को पाँच लाख रुपये वार्षिक पेशन देकर उसकी माता रानी झिंदन के साथ इंग्लैंड भेज दिया गया। रणजीतसिंह के परिवार से कोहिनूर हीरा लेकर ब्रिटिश राजमुकुट में लगा दिया गया।

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