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मौलिक अधिकारों से संबंधित संवैधानिक सिद्धांत

By - Admin

At - 2021-10-21 00:55:29

मौलिक अधिकारों से संबंधित संवैधानिक सिद्धांत

संविधान के अनुच्छेद 13 में मौलिक अधिकारों से संबंधित निम्नलिखित सिद्धांतों को सम्मिलित किया गया है। 

ये निम्नानुसार हैं-

क. न्यायिक पुनर्विलोकन :-
जब राज्य के अंतर्गत संसद, विधान मंडल, स्थानीय प्राधिकारी एवं अन्य प्राधिकारी शामिल हैं, कोई अधिनियम अथवा अध्यादेश जारी करते हैं और इनमें अंतर्विष्ट प्रावधान संविधान के भाग 3 में व्यक्तियों को प्रदान किए गये अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, तो याचिका दाखिल किये जाने पर न्यायालय उनका पुनर्विलोकन कर सकते हैं।
न्यायालय ऐसे निर्णयों का भी न्यायिक पुनर्विलोकन कर सकते हैं, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। 
न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धांत को संयुक्त राज्य अमेरिका से अधिगृहीत किया गया है।

ख. भावी प्रवर्तन का सिद्धांत :-
मौलिक अधिकार का प्रभाव भूतलक्षी नहीं है बल्कि इसका भावी प्रभाव है। भारतीय संविधान के प्रवर्तन के पूर्व प्रवृत्त विधियों पर मौलिक अधिकारों का प्रभाव उस तिथि से होगा, जिस तिथि से इन्हें लागू किया गया।
संविधान के प्रवर्तन के पूर्व किये गये कार्यों के संबंध में संविधान पूर्व विधियां लागू होगी। इसलिए संविधान पूर्व प्रवृत्त विधियों के अधीन संविधान के प्रवर्तन के पूर्व उत्पन्न अधिकार एवं दायित्व का प्रवर्तन मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के बावजूद भी कराया जा सकता है।

ग. पृथक्करण का सिद्धांत :-
यदि राज्य द्वारा निर्मित किसी कानून का कोई भाग मौलिक अधिकारों से असंगत अथवा मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हो, तो उसे पूर्णतः असंवैधानिक और शून्य नहीं घोषित किया जाएगा, शर्त यह है कि वह भाग पृथक्करणीय हो। 
यदि वह भाग पृथक्करणीय नहीं है, तो उस पूरे कानून को शून्य घोषित कर दिया जाएगा।

घ. अधित्यजन का सिद्धांत :-

मौलिक अधिकारों के संबंध में प्रतिपादित सिद्धांतों में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत अधित्यजन का सिद्धांत है। 
इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति, जिसे मौलिक मौलिक अधिकार प्रदान किया गया हो, वह इनका परित्याग नहीं कर सकता।

ड़. आच्छादन का सिद्धांत :-

संविधान के प्रवर्तन के पूर्व भारत में प्रवृत्त विधियां, जो मूलाधिकारों से असंगत है या उनके विरुद्ध हैं, समाप्त नहीं होती बल्कि निष्क्रिय हो जाती हैं और ऐसी विधियाँ मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित हो जाती हैं।

वस्तुतः मौलिक अधिकार सरकार के अवांछित हस्तक्षेप से विधायिका,कार्यपालिका एवं न्यायपालिका पर अंकुश लगाते हैं। मौलिक अधिकार राजनीतिक समानता एवं कानून के शासन को सुनिश्चित करता है साथ ही नागरिकों हेतु सरकार पर इनके सुचारू कार्यान्वयन के लिए दावा स्थापित करता है।
गौरतलब है कि इनके न्याययोग्य होने के कारण इनके सुचारू संचालन के लिए न्यायपालिका की जिम्मेदारी भी अहम होती है। 
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भगवती ने मेनका गांधी बनाम भारतीय संघ के मामले में कहा था कि- मौलिक अधिकार उन मूल्यों की प्रतिबिम्बित करते हैं जो वैदिक काल से चले आ रहे हैं तथा जिनका पालन जनता करती आ रही है। 
इनका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के सम्मान की रक्षा करना एवं ऐसी परिस्थितियां प्रदान करना है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके।


हालांकि संविधान के कुछ आधारिक लक्षण हैं, जिन्हें अनुच्छेद-368 के अधीन संशोधित नहीं किया जा सकता। 
यदि संविधान संशोधन अधिनियम लाने का उद्देश्य संविधान की आधारिक संरचना अथवा ढांचे में परिवर्तन लाना हो तो न्यायालय को उक्त अधिनियम को शक्ति बाह्य के आधार पर शून्य घोषित करने की शक्ति होगी। 
ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुच्छेद-368 में संशोधन का अभिप्राय ऐसे परिवर्तन से है, जो संविधान की संरचना को प्रभावित नहीं करता है। ऐसा करना नया संविधान बनाने के तुल्य होगा। 

संविधान का मूल आधारिक लक्षण:-

1. संविधान की सर्वोच्चता,
2. विधि का शासन,
3. शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत,
4. संविधान की प्रस्तावना में घोषित उद्देश्य,
5. न्यायिक पुनर्विलोकन, 
6. अनुच्छेद-32;
7. परिसंघवाद;
8. पंथनिरपेक्षता;
9. प्रभुत्वसम्पन्न; लोकतांत्रिक, 
10. गणराज्य की संरचना;
11. व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा;
12. राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता;
13. समता का सिद्धांत;
14. भाग-III के अन्य मौलिक 
15. अधिकारों का सार;
16. सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की संकल्पना-लोक कल्याणकारी राज्य का सृजन( सम्पूर्ण भाग-IV) ,
17. मौलिक अधिकार और निदेशक तत्वों के मध्य संतुलन;
18. संसदीय प्रणाली का शासन;
19. स्वतंत्रता एवं निष्पक्ष निर्वाचन का अधिकार;
20. अनुच्छेद-368 के द्वारा संशोधनकारी शक्ति पर लगाए गए निर्बन्धन
21. न्यायपालिका की स्वतंत्रता, तथा;
न्याय का वास्तव में सुलभ होना।

 

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