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लेखनाभ्यास औषधि-औरंगजेब के राजपूत नीति

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-01-18 22:54:13

औरंगजेब की राजपूत नीति और उसके महत्वपूर्ण तथ्य (लेखनाभ्यास औषधि)

आम तौर पर इतिहासकारों द्वारा यह माना जाता है कि मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण राजपूतों के साथ औरंगजेब द्वारा संघर्ष की नीति थी।  औरंगजेब ने अकबर की नीति को पूरी तरह से पलट दिया।औरंगज़ेब एक विस्तारवादी था और एक या दूसरे बहाने, वह अपने राज्यों को बंद करना चाहता था। औरंगजेब ने राजपूत की शक्ति और प्रभाव को हिंदुओं के धार्मिक उत्पीड़न की अपनी नीति को निष्पादित करने में एक ठोकर के रूप में माना।

उत्तराधिकार के युद्ध में राजपूतों ने दाराशिकोह का साथ दिया था और औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध किया था। जब तक औरंगजेब की स्थिति सुदृढ़ नहीं हो सकी, तब तक तो उसने राजा जयसिंह और राजा जसवन्त सिंह के साथ अच्छा व्यवहार किया तथा उनको उच्च पदों पर आसीन रखा।किन्तु वह हृदय से उनको घृणा एवं सन्देह की दृष्टि से देखता था और किसी भी प्रकार उनकी उन्नति नहीं चाहता था। उसने इनको सदैव राजधानी से दूर रखने का प्रयत्न किया। अपनी स्थिति सुदृढ़ होने पर औरंगजेब ने राजा जयसिंह को, जो उसकी नीति का कट्टर विरोधी था, दक्षिण में विष दिलवाकर मरवा दिया। उसकी मृत्यु से उसका एक बहुत बड़ा विरोधी इस संसार से चला गया। ऐसा भी अनुमान किया जाता है कि औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को भी विष दिलवाकर मरवा दिया था।

 

.राजपूतों से उसके निम्नलिखित प्रमुख संघर्ष हुए-

(1) मारवाड़ से संघर्ष-


1670 ई. में मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह की मृत्यु हो गई। लेकिन उनके कोई सन्तान न होने के कारण
मारवाड़ की राजगद्दी के लिए उत्तराधिकार का संघर्ष आरम्भ हो गया। मुगलों के लिए मारवाड़ का बड़ा महत्त्व था। अत: औरंगजेब ने मारवाड़ को मुगल साम्राज्य के अधीन करके वहाँ शाही अधिकारियों की नियुक्ति कर दीं। लेकिन मारवाड़ के राजपूतों ने मुगल सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिसके दमन के लिए बादशाह ने स्वयं अजमेर के लिए प्रस्थान किया और विरोधियों का सफलतापूर्वक दमन करने के पश्चात् दिल्ली लौट आया। लेकिन दिल्ली लौटने पर बादशाह को समाचार मिला कि जसवन्त सिंह की दो विधवा रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया है, जिसमें एक की मृत्यु हो गई। औरंगजेब ने तुरन्त रानियों को पुत्र सहित राजधानी आने का आदेश दिया। राजपूतों ने औरंगजेब से जसवन्त सिंह के द्वितीय पुत्र अजीत सिंह को मारवाड़ का राजा स्वीकार करने की प्रार्थना की। लेकिन उसने राजपूतों की प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया और रानियों तथा अजीत सिंह को बन्दी बनाने का षड्यन्त्र रचा। राजपूतों ने इनकी रक्षा करने का निश्चय किया।।  इसके कारण राठौरों और मुगलों के बीच 30 साल के युद्ध की शुरुआत हुई।  इस समय दुर्गादास राठौर ने अपने अदम्य साहस के बल पर रानियों को राजकुमार सहित जोधपुर भिजवा दिया और मुगलों से युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया। उसकी राजभक्ति ने उसका नाम अमर कर दिया।दुर्गा दास ने माता और पुत्र को रानी और राजकुमार के स्थान पर नौकर-चाकर और उसके बच्चे को सौंपकर माता और पुत्र को बचाया। मारवाड़ के लोगों ने अजीत सिंह को अपना शासक स्वीकार किया।

 इधर मारवाड़ में अराजकता का दौर प्रारम्भ हो गया। 25 दिसम्बर, 1679 को औरंगजेब ने पुनः मारवाड़ पहुँचकर अपना शिविर स्थापित किया। शहजादा अकबर तथा तहब्बर खाँ के नेतृत्व में शाही सेना ने राजपूतों का दमन किया, लेकिन राजपूत राठौरों ने भी वीरतापूर्वक शाही सेना का सामना किया। अन्त में राजपूत पराजित हुए और मारवाड़ मुगल सत्ता के अधीन आ गया। लेकिन मारवाड़ के राजपूत पराजित होकर भी निराश नहीं हुए और उन्होंने मेवाड़ के सिसौदिया राजवंश से सहायता माँगी।
 1680 से 1707 ई. तक मारवाड़ के राजपूतों एवं औरंगजेब के मध्य संघर्ष चलता रहा। अन्त में 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु का समाचार पाते ही अजीत सिंह ने मारवाड़ में प्रवेश किया तथा जफर कुली नामक शाही फौजदार को निष्कासित कर पुनः मारवाड़ पर अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली। अंततः औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह ने 1709 ई. में अजीत सिंह को मारवाड़ का राजा स्वीकार कर लिया, जिससे मुगलों और राठौरों के युद्ध का अन्त हुआ।
राजपूत अभी भी दुर्गा दास के साहस और वीरता को पोषित करते हैं और कहते हैं, "हे माँ, दुर्गा दास की तरह एक बेटा पैदा करो"।

जेएन सरकार ने उन्हें लिखा, “मुगल सोना उन्हें वश में नहीं कर सकता था। मुगल हथियार उस निरंतर दिल को कुंद नहीं कर सकते थे। ”

 

2.  मेवाड़ के साथ संघर्ष-

 

जब मुगलों ने 1676 ई. में मारवाड़ पर अधिकार कर लिया, तो मेवाड़ का राणा राजसिंह आतंकित हो उठा।   औरंगजेब ने उसे जज़िया अदा करने के लिए कहा था। अत: उसने मारवाड़ के राठौरों से मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाकर मेवाड़ में सैनिक तैयारियाँ आरम्भ कर दीं। ऐसी परिस्थितियों में 30 दिसम्बर, 1679 को औरंगजेब ने अजमेर से मेवाड़ के लिए प्रस्थान किया और देबारी, उदयपुर व चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। औरंगजेब शाही सेना का नेतत्व शहजादा अकबर को सौंपकर मार्च, 1680 में अजमेर लौट आया। इस समय राजपूतों ने छापामार नीति की शरण ली और मुगलों की सेना को तंग करना प्रारम्भ कर दिया। राणा के पुत्र कुंवर सिंह ने गुजरात पर आक्रमण करके कई स्थानों पर खूब लूटपाट की। औरंगजेब के आदेशानुसार शाही सेना ने मेवाड़ को घेर लिया। किन्तु इसी समय शहजादा अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और वह राजपूतों की सेना का नेतृत्व करते हुए अजमेर को प्रस्थान करने की तैयारियाँ करने लगा।।  राजकुमार अकबर (औरंगज़ेब के पुत्र) ने मुगल सेना को छोड़ दिया और राजपूत के साथ हाथ मिलाया।   अकबर उदार विचारों के थे और अपने पिता की धार्मिक कट्टरता की नीति की सफलता पर संदेह करते थे। महाराणा राज सिंह और अजीत सिंह ने उन्हें आश्वासन दिया कि यदि वे खुद को सम्राट घोषित करेंगे, तो मारवाड़ और मेवाड़ की संयुक्त सेनाएं उनका समर्थन करेंगी। राजकुमार अकबर ने खुद को मुगलों का सम्राट घोषित किया था।औरंगज़ेब के पास उस समय उसकी कमान में बहुत कम बल था क्योंकि वह राजधानी से दूर था। इसलिए उन्होंने राजपूतों के बीच असंतोष बोने की योजना के बारे में सोचा। वह अपने प्रयासों में सफल रहा। राजकुमार अकबर हार गया और वह भाग गया।


लेकिन 22, अक्टूबर, 1680 को राणा राजसिंह की मृत्यु हो गई और उसके स्थान पर राणा जयसिंह मेवाड़ के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। शहजादा अकबर की विद्रोही भावना के कारण औरंगजेब ने राजपूतों से सन्धि करना ही अपने लिए श्रेयस्कर समझा।

औरंगजेब और मेवाड़ के नए शासक, राजा जय सिंह ने एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किया जिसे उदयपुर की संधि (1681) के रूप में जाना जाता है।

संधि में निम्नलिखित रूप शामिल थे:

1. मुगलों ने मेवाड़ से अपनी सेना वापस लेने पर सहमति व्यक्त की।

2. राजा जय सिंह ने 5000 के मनसब को स्वीकार किया जबकि उनके पुत्र भीम सिंह को राजा की उपाधि दी गई ।

3. चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत नहीं की जानी थी।

3. बुंदेलखंड के साथ संघर्ष - 

बुंदेला राजपूतों की छापामार युद्धक रणनीति के कारण अकबर सफल नहीं रहा। चंपत राय, बुंदेलखंड के राजपूत शासक औरंगजेब के साथ विवाद में आए। हालांकि, खुद को कैद से बचाने के लिए उसने आत्महत्या कर ली। चंपत राय के बेटे छत्रसाल, जो अपने पिता की मृत्यु के समय सिर्फ 11 वर्ष के थे, मुगलों को हरा दिया और उनके खिलाफ कई जीत हासिल की।

अंततः वह पूर्वी मालवा में एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सक्षम था। 1731 में बुंदेलखंड में मुगल शासन के पूर्ण विनाश के साथ उनका निधन हो गया। बुंदेलखंड और मालवा के लोगों ने छत्रसाल को "हिंदू आस्था और राजपूत सम्मान के चैंपियन" के रूप में प्रतिष्ठित किया।

औरंगजेब की राजपूत नीति के परिणाम-

1. जन-धन की हानि होना 
2  साम्राज्य की मर्यादा को धक्का पहुंचना।
3.  राजपूतों की सहायता से वंचित होना
4. मालवा में विद्रोह की भावना उत्पन्न होना जिससे मुगलों के लिए दक्षिण का मार्ग सुरक्षित नहीं रहना।5. शहजादा अकबर का विद्रोह करना राजपूतों के साथ मिलकर 

अतः राजपूत नीति मुगलों के लिए बहुत विनाशकारी साबित हुई, क्योंकि इसने राजपूतों की शत्रुतापूर्ण और औरंगजेब को बहादुर राजपूतों की वफादारी से वंचित कर दिया। उनके साथ संघर्ष में कई साल बर्बाद हो गए और उन्हें गंभीर झटका लगा। राजपूत शासकों के साथ संघर्ष में उनके कई प्रसिद्ध जनरलों को मार दिया गया था। वह मारवाड़ के दुर्गा दास को अपने अधीन करने में असफल रहा। उसे मेवाड़ के साथ संधि करनी पड़ी।
बुंदेलखंड के छत्रसाल ने मुगलों को ललकारा। मुगल साम्राज्य के प्रतिष्ठा का सामना करना पड़ा। लगातार संघर्षों के कारण औरंगजेब अच्छा प्रशासन नहीं दे पाया। इसमें कोई शक नहीं, राजपूत के प्रति औरंगजेब की दोषपूर्ण नीति मुगल साम्राज्य के विघटन के प्रमुख कारणों में से एक थी।

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