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राज्य क्या है ? भाग -1

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-01-17 22:53:49

सामान्य शब्दों में राज्य उस संगठित इकाई को कहा जाता  हैं जो एक शासन (सरकार) के अधीन हो।   इसके अलावा किसी शासकीय इकाई या उसके किसी प्रभाग को भी 'राज्य' कहते हैं, जैसे भारत के प्रदेशों को भी 'राज्य' कहते हैं।

 'राज्य' शब्द को अंग्रेजी में State कहा जाता है और 'State' शब्द लैटिन भाषा केे Status से निकला है। लैटिन भाषा में, 'स्टेटस' शब्द का अर्थ दूसरों की तुलना में उच्च स्तर है। शब्दों के अर्थ के पख से राज्य उस संगठन का नाम है जिसका रूतबा या स्थिति अन्य संगठनों और लोगों की रूतबे या स्थिति से ऊचा है। राज शब्द का पहली बार प्रयोग इटली के महान विद्वान, Mechavalli ने किया था।


वास्तव में, 'राज्य' शब्द का उपयोग तीन अलग-अलग तरीके से किया जा सकता है -

●● पहला, इसे एक ऐतिहासिक सत्ता माना जा सकता है।
●●  दूसरा इसे एक दार्शनिक विचार अर्थात् मानवीय समाज के स्थाई रूप के तौर पर देखा जा सकता है ।
●● तीसरा, इसे एक आधुनिक परिघटना के रूप में देखा जा सकता है।


मैक्स वेबर ने राज्य को ऐसा समुदाय माना है जो निर्दिष्ट भूभाग में भौतिक बल के विधिसम्मत प्रयोग के एकाधिकार का दावा करता है।

गार्नर ने राजनीति विज्ञान का आरंभ और अंत राज्य को ही बताया है वहीं आरजे गेटल ने राजनीति विज्ञान को राज्य का विज्ञान बताया है।

◆◆ यूरोपीय चिंतन में राज्य के चार मूल तत्व बताये जाते हैं - निश्चित भूभाग , जनसंख्या , सरकार और संप्रभुता।

◆◆ भारतीय राजनीतिक चिन्तन में 'राज्य' के सात अंग गिनाये जाते हैं- राजा या स्वामी, मंत्री या अमात्य, सुहृद, देश, कोष, दुर्ग और सेना। 

◆◆कौटिल्य ने राज्य के सात अंग बताये है, जोकि उनका "सप्ताङ्ग सिद्धान्त " कहलाता है - राजा , आमात्य या मंत्री , पुर या दुर्ग , कोष , दण्ड, मित्र ।

◆◆ अरस्तु के अनुसार " राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक ऐसा संघ है जिसका उद्देश्य एक पूर्ण, एक आत्म-निर्भर जीवन की प्राप्ति करना है, जिसका महत्व एक सुखी सम्मानित मानव जीवन से है। 

आधुनिक युग में राष्ट्र और राज्य प्राया एक से हो गए हैं राज्य की सीमाओं को ही राष्ट्रीय सीमाएं कहा जाता है। राज्य के हित को ही राष्ट्रीय हित मान लिया जाता है और विभिन्न राज्यों के परस्पर संबंधों को अंतरराष्ट्रीय संबंध कहा जाता है किन्तु आधुनिक राष्ट्र-राज्य का विकास मानव सभ्यता की बहुत लंबी इतिहास का परिणाम है , जैसे कि - 

●● कबीला राज्य- यह राज्य का सबसे पुराना रूप है, जिसमें छोटे छोटे काबिले अपने अपने सरदार की शासन में रहते थे । यह कबीले स्वजन समूह पर आधारित है समूहों पर आधारित थे । कुछ कबीले खानाबदोश थे जिन्हें राज्य मानना ठीक नहीं होगा।

●● प्राच्य साम्राज्य- यह वही स्थिति है जब नीलगंगा पीली नदी आदि की उर्वर घाटियों में प्रारंभिक सभ्यता का विकास हुआ और शहर बन गए ।  इन जगहों पर भिन्न-भिन्न सुजन समूहों के लोग आकर मिलजुल कर रहने लगे ।  प्राचीन मिस्र बेबीलोन सीरिया भारत और चीन के साम्राज्य इसी श्रेणी में आते हैं।

●● यूनानी नगर- राज्य जब ईजियन और भूमध्य सागर की ओर सभ्यता का विस्तार हुआ तब यूरोप प्रायद्वीप में भी राज्य का उदय हुआ। इस तरह यूनानी नगर राज्य अस्तित्व में आए क्योंकि वहां पर्वतों, घने जंगलों और समुद्र ने भूमि को अनेक घाटियों और द्वीपो में बांट दिया था। जिन की रक्षा करना सरल था परंतु समुद्री मार्ग से आपस में जुड़े हुए थे । यहां छोड़ चुके नगर राज्य बस गए । इससे वहां निरंकुश निरंकुश शासक आदत में नहीं आए बल्कि यहां के नागरिक मिलजुलकर शासन चलाते थे।

●● रोमन साम्राज्य- जब आंतरिक कला और बाय आक्रमणों के कारण यूनानी नगर राज्य नष्ट हो गए। तब यूरोप में रोम सारी सभ्यता का केंद्र बना और रोमन साम्राज्य विकसित हुआ। विभिन्न जातियों धर्म और प्रथाओं को मानने वाले लोगों पर शासन करने के लिए विस्तृत कानूनी प्रणाली विकसित की गई। साम्राज्य की शक्ति पर धर्म की छाप लगा दी गई। उनकी अदम्य शक्ति के नीचे व्यक्तियों की स्वतंत्रता दबकर रह गई। अंततः यह शक्तिशाली साम्राज्य अपने ही भार को ना संभाल पाने के कारण छिन्न भिन्न हो गया।

●● सामन्ती राज्य- रोमन साम्राज्य के पतन के बाद केंद्रीय सत्ता लुप्त हो गई।  पांचवी शताब्दी ईस्वी से मध्यकाल का आरंभ हुआ जिसमें सारी शक्ति बड़े बड़े जमीदारों जागीरदारों और सामान सरदारों के हाथों में आ गई । वैसे छोटे-छोटे राज्यों में राजा जिसकी सर्वोच्च मानी जाती थी परंतु शक्ति सामंत सरदारों के हाथ में ही रही। जनसाधारण के कृषि दासों के रूप में खेतों पर घोर परिश्रम करते थे और उनका जीवन जमीदारों के अधीन था। सामंत सरदारों के अलावा धार्मिक तंत्र के उच्चाधिकारियों विशेषता पूर्व के हाथों में भी विस्तृत शक्तियां आ गई थी। चौदहवीं शताब्दी तक आते-आते अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने लगे और तब राजतंत्र की शक्ति को पुनर्जीवित किया गया। उन्हें दिनों वाणिज्य व्यापार और उद्योग के विकास के कारण भी जमीदारों की शक्ति को चुनौती दी जाने लगी।

●● आधुनिक राष्ट्र राज्य- 15वीं और 16वीं शताब्दी से यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय हुआ तब जमीदारों और धर्म अधिकारियों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और नए आर्थिक संबंधों के अलावा लोग राष्ट्रीय भाषा और संस्कृति की एकता तथा देश की प्राकृतिक सीमाओं इत्यादि के विचार से अस्थाई समूह के रूप में जुड़ गए थे। इस तरह पहले फ्रांस, स्पेन, इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, रूस, इटली और जर्मनी में राष्ट्र राज्यों का विकास हुआ। प्रारंभिक राज्यों में राजतंत्र का बोलबाला था जिसमें सारी सत्ता किसी राजा के हाथों में रहती थी परंतु 18वीं शताब्दी में यूरोप में संवैधानिक शासन का उदय हुआ।  सर्वप्रथम इंग्लैंड में गौरव क्रांति के अंतर्गत शांतिपूर्ण तरीके से संसद के हाथों में अधिकार प्राप्त हो गए । फ़्रांस मे फ्रांसीसी क्रांति के अंतर्गत हिंसा का सहारा लेना पड़ा । 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान उपनिवेशवाद का सहारा लिया गया । इस दौर में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम और  पुर्तगाल, स्पेन, इत्यादि ने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के क्षेत्रों पर अपनी उपनिवेशवाद का जाल फैला कर उनका भरपूर दोहन किया। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात उपनिवेशवाद का पतन होना शुरू हो गया और विश्व के क्षितिज पर नए -  नए राष्ट्र राज्य उदित हुए।

 


●● मैकियावेली की राज्य की अवधारणा :- कई राजनीतिक दार्शनिकों की मान्यता है कि सबसे पहले निकोलो मैकियावेली के लेखन में आधुनिक अर्थों में राज्य के प्रयोग को देखा जा सकता है। 1532 में प्रकाशित अपनी विख्यात रचना द प्रिंस में उन्होंने 'स्टेटो' (या राज्य) शब्द का प्रयोग भू-क्षेत्रीय सम्प्रभु सरकार का वर्णन करने के लिए किया। मैकियावेली की एक अन्य रचना 'द डिस्कोर्सिज़' की विषय-वस्तु अलग है, लेकिन बुनियादी वैचारिक आधार उसका भी द प्रिंस जैसा ही है। मैकियावेली के अनुसार राजशाही में केवल प्रिंस ही स्वाधीन है, पर गणराज्य में हर व्यक्ति प्रिंस है। उसे अपनी सुरक्षा, स्वतंत्रता और सम्पत्ति बचाने के लिए वैसे ही कौशल अपनाने का अधिकार है। मैकियावेली के अनुसार गणराज्य में प्रिंस जैसी ख़ूबियों को सामूहिक रूप से विकसित करने की ज़रूरत है, और ये ख़ूबियाँ मित्रता और परोपकार जैसे पारम्परिक सद्गुणों के आधार पर नहीं विकसित हो सकतीं। गणराज्य में हर व्यक्ति नाम और नामा हासिल करने के मकसद से दूसरे के साथ खुले मंच पर सहयोग करेगा। मैकियावेली मानते थे कि राजशाही के मुकाबले गणराज्य अधिक दक्षता से काम कर सकेगा, उसमें प्रतिरक्षा की अधिक क्षमता होगी और वह युद्ध के द्वारा अपनी सीमाओं का अधिक कुशलता से विस्तार कर सकेगा। मैकियावेली के अनुसार यह सब करने की प्रक्रिया में ही शक्तिशाली, अदम्य और आत्म-निर्भर व्यक्तियों की रचना हो सकेगी।

हालांकि क्वेंटिन स्किनर मानते हैं कि मैकियावेली ने जब राज्य की चर्चा की तो वे एक प्रिंस के राज्य की बात कर रहे थे। वह उस अर्थ में निर्वैयक्तिक नहीं था, जिस अर्थ में आज इसका प्रयोग किया जाता है। युरोपीय आधुनिकता के शुरुआती दौर में चर्च और राजा दोनों के पास ही राजनीतिक शक्ति होती थी और दोनों के पास अपनी-अपनी सेनाएँ भी होती थीं। इससे चर्च और राजा के बीच युद्ध की भी सम्भावना बनी रहती थी। 1648 में तीस वर्षीय युद्ध के बाद वेस्टफ़ेलिया की संधि हुई। इसने चर्च की शक्ति कम की और राजा को उसके अपने क्षेत्र में प्राधिकार दिया। इसने अंतराष्ट्रीय स्तर पर सम्प्रभु राज्यों के अस्तित्व को स्वीकार किया।

 

●● हॉब्स की राज्य की अवधारणा :- 
 दार्शनिक स्तर पर समाज के लिए राज्य की अनिवार्यता स्थापित करने का श्रेय सत्रहवीं सदी के विचारक थॉमस हॉब्स और उनकी रचना लेवायथन को जाता है। इस पुस्तक के पहले संस्करण के आवरण पर एक दैत्याकार मुकुटधारी व्यक्ति का चित्र उकेरा गया था जिसकी आकृति छोटी-छोटी मानवीय उँगलियों से बनी थी। इस दैत्याकार व्यक्ति के एक हाथ में तलवार थी, और दूसरे में राजदण्ड। दरअसल, हॉब्स इस भौतिकवादी और आनंदवादी विचार के प्रतिपादक थे कि मनुष्य का उद्देश्य अधिकतम आनंद और कम से कम पीड़ा भोगना है। अगर दूसरे के आनंद में मनुष्य को सुख मिल सकता है, तो हॉब्स के अनुसार वह परोपकार के लिए भी सक्षम है। लेकिन, अगर संसाधन कम हुए या किसी किस्म का भय हुआ, तो मनुष्य आत्मकेंद्रित और तात्कालिक आग्रहों के अधीन हो कर परोपकार को मुल्तवी कर देगा। ऐसी स्थिति में उसे अपने ऊपर किसी सरकार का नियंत्रण चाहिए, वरना वह अपने सुख को अधिकतम और दुःख को न्यूनतम करने का अबाध प्रयास करते हुए सभ्यता और संस्कृति से हीन प्राकृतिक अवस्था में पहुँच जायेगा। जो कुछ उसके पास है, उसे खोने के डर से मनुष्य शक्ति के एक मुकाम से दूसरे मुकाम तक पहुँचने की कोशिशों में लगा रहेगा जिसका अंत केवल उसकी मृत्यु से ही हो सकेगा। अगर मज़बूत राज्य ने उसकी इन कोशिशों को संयमित न किया तो मानव जाति प्राकृतिक अवस्था में पहुँच जायेगी जहाँ हर व्यक्ति दूसरे के दुश्मन के रूप में परस्पर विनाशकारी गतिविधियों में लगा होगा। मनुष्य को नियंत्रित करने वाला यही परम शक्तिशाली और सर्वव्यापी राज्य हॉब्स के शब्दों में लेवायथन है। हॉब्स को कोई शक नहीं था कि अगर यह दैत्याकार हस्ती लेवायथन मनुष्य को शासित नहीं करेगी तो वह शांति और व्यवस्था हासिल करने के तर्कसंगत निर्णय पर नहीं पहुँच सकता। उस सूरत में मनुष्य एक-दूसरे को हानि न पहुँचाने के परस्पर अनुबंध पर भी नहीं पहुँच पायेगा। तर्कों की यह शृंखला हॉब्स को दिखाती है कि मनुष्य एक सामाजिक समझौते के तहत एक समाज रचता है जिसमें हर कोई अपना हित साधना चाहता है और इसीलिए दूसरों से करार करता है कि वह किसी दूसरे के हित पर चोट नहीं करेगा बशर्ते बदले में उसके हित पर चोट न की जाए। हॉब्स का विचार था कि इस समझौते का उल्लंघन न हो, इसलिए एक सम्प्रभु सत्ता की ज़रूरत पड़ेगी ताकि सार्वजनिक शांति और सुरक्षा की गारंटी की जा सके। यह सम्प्रभु केवल ताकत के डर से ही अपनी सत्ता लागू नहीं करेगा। हॉब्स ने लेवायथन के दूसरे अध्याय ‘ऑफ़ द कॉमनवेल्थ’ में कई तरह के सम्भव संवैधानिक रूपों की चर्चा की है।

हॉब्स का विचार था कि धर्म निजी मामला है, पर उसके सार्वजनिक पहलुओं को पूरी तरह राज्य के मुखिया के फ़ैसले पर छोड़ देना चाहिए। राज्य का मुखिया ही चर्च का मुखिया होना चाहिए। बाइबिल जिन मामलों में स्पष्ट निर्देश नहीं देती, वहाँ राज्य के मुखिया का निर्देश अंतिम समझा जाना चाहिए। अपने इन्हीं विचारों के कारण हॉब्स ने कैथॅलिक चर्च को अंधकार के साम्राज्य की संज्ञा दी, क्योंकि वह अपने अनुयायियों से राज्य के प्रति वफ़ादारी से भी परे जाने वाली वफ़ादारियों की माँग करता है। उन्होंने शुद्धतावादियों के विरुद्ध आवाज़ उठायी जो अंतःकरण के आधार पर राज्य के ख़िलाफ़ खड़े होने की अपील करते थे। हॉब्स का मतलब साफ़ था कि अगर शांति-व्यवस्था के साथ रहना है तो राजकीय प्राधिकार के उल्लंघन से बाज़ आना होगा। 

हॉब्स द्वारा पेश किये गये राज्य संबंधी सिद्धांत ने बाद के युरोपीय चिंतकों को प्रभावित करना जारी रखा। इस प्रक्रिया में एक सामान्य समझ उभरी जिसके मुताबिक राज्य राजनीतिक संस्थाओं का एक ऐसा समुच्चय माना गया जो एक निश्चित सीमाबद्ध भू-क्षेत्र में मुश्तरका हितों के नाम पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है। यह परिभाषा मैक्स वेबर की उस व्याख्या से बहुत प्रभावित है जो उन्होंने अपनी रचना ‘दि प्रोफ़ेशन ऐंड वोकेशन ऑफ़ पॉलिटिक्स’ में पेश की थी। इसमें वेबर ने आधुनिक राज्य के तीन पहलू बताये थे : उसकी भू-क्षेत्रीयता, हिंसा करने का उसका अधिकार और वैधता। वेबर का तर्क था कि अगर किसी सुनिश्चित भू-भाग में रहने वाले समाज में कोई संस्था हिंसा का डर दिखा कर लोगों से किन्हीं नियम-कानूनों का पालन नहीं करायेगी तो अराजकता फैल जाएगी। 

अन्य प्रमुख विद्वानों के अनुसार राज्य की परिभाषा - 

◆◆ हालैंड के अनुसार - “राज्य मनुष्य के ऐसे समूह का नाम है जो एक निश्चित क्षेत्र में रहते है और जिसमें बहु-गिणती के आधार पर एक वर्ग अपने विरोधियों पर हकूमत करता है।

◆◆ सिसरो के अनुसार " राज्य एक ऐसा समाज है जिसमे मनुष्य पारस्परिक लाभ के लिए और अच्छाई की एक सामान्य भावना के आधार बंधे हुए है।

◆◆ गिलक्रिस्ट के अनुसार - "जहां कुछ लोग एक निश्चित क्षेत्र में एक संगठित सरकार के अधीन है और सरकार के आंतरिक मामलों में उनकी संप्रभुता को प्रगट करने का साधन है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतंत्र है तो वह राज्य होता है।

◆◆ गार्नर के अनुसार - "राज्य कुछ या अधिक लोगों का एक ऐसा समूह है, जो स्थायी रूप से पृथ्वी के निश्चित हिस्से में बसे हैं, बाहरी नियंत्रण से पूरी तरह से या पूरी तरह से स्वतंत्र हैं और जिसकी एक ऐसी संगठित सरकार है जिसकी आग्याा का पालन वहाँ के लोगो स्वाभाविक रूप करते है।

◆◆ लास्की के अनुसार - "राज्य एक विशेष प्रदेश में रहने वाला समाज है, जो समाज और प्रजा में विभाजित है और अपने क्षेत्र में आने वाली या सभी समस्याओं पर प्रभुत्व रखता है।

◆◆ गेटेल के अनुसार - राज्य उन व्यक्तियों का संगठन है जो स्थायी तौर पर निश्चित क्षेत्र में रहते है। कानूनी दृष्टिकोण से विदेशी नियंत्रण से स्वतंत्र हैं, उनकी अपनी संगठित सरकार होती है, जो अपने अधिकार क्षेत्र में रहने वाले सभी लोगों और समूहों के लिए कानून बनाते हैं और उन्हें लागू करते हैं।

◆◆ फिलिमोर के अनुसार " राज्य वह जनसमाज है जिसका एक निश्चित भू-भाग पर स्थायी अधिकार हो, जो एक से कानूनों, आदतों व रिवाजों द्वारा बँधा हुआ हो, जो एक संगठित सरकार के माध्यम द्वारा अपनी सीमा के अंतर्गत सब व्यक्तियों तथा वस्तुओं पर स्वतंत्र प्रभुसत्ता का प्रयोग एवं नियंत्रण करता हो तथा जिसे भू-मण्डल के राष्ट्रों के साथ युद्ध एवं संधि करने तथा अन्तराष्ट्रीय संबंध स्थापित करने का अधिकार हो। 

◆◆ बलंशली (Bluntschli) के अनुसार - "एक निश्चित प्रदेश पर राजनीतिक दृष्टिकोण से गठित लोगों को ही राज्य कहा जाता है।

◆◆ वुडरोविल्सन  के अनुसार - "एक निश्चित क्षेत्र के अंदर कानून द्वारा संगठित लोगों को राज्य कहा जाता है।

◆◆ बरगस के शब्दों में - राज्य मानव जाति के एक हिस्से का एक विशेष हिस्सा है जिसे एक संगठित इकाई के रूप में देखा जाता है।

◆◆ संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा था कि "राज्य एक निश्चित जमीन पर रहने वाले राजनीतिक समूह का नाम है, जिसकी सीमा एक लिखित संविधान द्वारा तय की गई है और जिसको शाश्त लोगों की प्रवाणगी के साथ स्थापित किया गया है।

अतः उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राज्य के व्यक्तियों का एक ऐसा संगठित समूह हैं जो इस भूमि के एक निश्चित हिस्से पर है, जिसकी अपनी सरकार है और जिसमें आंतरिक और बाहरी संप्रभुता है।

 

राज्य का वास्तविक अवधारणा - 

वास्तविक अर्थ में राज्य किसी समाज की राजनीतिक संरचना से होता है जो कि एक अमूर्त अवधारणा है, अर्थात इसे बौद्धिक स्तर पर तो समझा जा सकता है किंतु देखा नहीं जा सकता। 

किसी समाज की विकसित व सक्षम होने का प्रमाण इस बात से भी होता है कि वह स्वतंत्र राज्य हो सका या ना हो सका ।  एक मजबूत राज्य होने के लिए आवश्यक है स्थिर राजनीतिक प्रणाली।  यदि स्थिर राजनीतिक प्रणाली ना हो तो वह राज्य ना मजबूत हो सकता है ना ही स्वतंत्र ।

राज्य की व्यवस्था की आवश्यकता - 

राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता हॉब्स के शब्दों में देखा जाएं तो  मनुष्य अपनी सुविधा के लिए अनियंत्रित हो सकता है,  ऐसे में उसे नियंत्रित करने के लिए या पतन में जाने से रोकने के लिए एक कड़ा नियंत्रण की आवश्यकता होती है और इसके लिए राज्य का होना आवश्यक है। 

हालांकि कई विद्वान ऐसे भी हुए हैं जो राज्य की आवश्यकता तर्कहीन समझते हैं, उनके मानना है कि मनुष्य समझदारी और पारस्परिक विश्वास से काम करें तो राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत अपने आप खत्म हो जाएगी। ऐसे मानने वालों में से जैसे की मार्क्स,   महात्मा गांधी इत्यादि।  इनका मानना है कि समाज के प्रत्येक सदस्य के आत्मिक उन्नति का पर्याप्त अवसर तभी मिलेगा जब राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत नहीं रहेगी किंतु ऐसे मानने वालों का संख्या कम ही है । अधिकांश विद्वानों का यह मानना है कि राज्य का अस्तित्व होना आवश्यक है क्योंकि मनुष्य चाहे जितना भी विवेकशील प्राणी हो वह कभी या आम तौर पर अपने स्वार्थ के अधीन होता है जिससे दूसरे व्यक्ति से टकराव की स्थिति बनती है। राज्य का ढांचा सभी मनुष्य को एक निश्चित कानून व्यवस्था के दायरे में लाता है ताकि अपनी मूल और सुरक्षा से मुक्त होकर सभी एक सहज जीवन व्यतीत कर सकें।

 

इतिहासकारों और मानवशास्त्रियों ने अभी तक प्राचीन से प्राचीन और सरल से सरल जितने भी सामाजिक अध्ययन किया है उनमें भी किसी ना किसी रूप में राजनीतिक ढांचे की मौजूदगी देखी गई है। यह ढांचा राजतंत्र में भी देखा गया है, लोकतंत्र के रूप में भी देखा गया है एवं तानाशाही के रूप में भी देखा गया है । इनके अलावा आज के समय में जनसंख्या की अधिकता के कारण भी राजनीतिक व्यवस्था की भूमिका काफी ज्यादा बढ़ गई है। अत्यधिक जनसंख्या कहीं ना कहीं लोगों के बीच सहमति की भूमिका को कमजोर कर रही है, जिस कारण औपचारिक कानूनों के निर्माण और कानूनों को लेकर के ही विवादों की स्थिति में न्यायिक प्रक्रिया के सहायता से एक व्यवस्थित समाज चलाया जा सकता है एवं बढ़ती जनसंख्या के साथ लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा का भी भूमिका बढ़ गई है, जिससे एक राजनीतिक व्यवस्था की मांग को बढ़  जाती है ताकि समाज के सभी वर्गों को स्वतंत्रता समानता और न्याय उपलब्ध कराया जा सके ।


भारत के संदर्भ में राजनीतिक प्रणाली की आवश्यकता के कारण -

1.  राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में सहायता,
2.  आंतरिक सुरक्षा,
3.  कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था में सहायता होना,
4. हित समूह के प्रतिस्पर्धा में संयम रखना,
5.  वंचित वर्ग का विकास होना ।

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