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कार्यपालिका :परिभाषा एवं स्वरूप

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-01-17 22:51:31

कार्यपालिका 

• साधारण अर्थ में कानूनों का क्रियान्वयन करने वाली संस्था कार्यपालिका कहलाती है। वर्तमान युग में  इसका अर्थ सीमित और व्यापक दोनों अर्थों में किया जाता है। क्योंकि आधुनिक राज्यों के कल्याणकारी स्वरूप ने  कार्यपालिका के साथ नौकरशाही को भी मिला दिया है।

• सीमित अर्थ में तो राज्य के प्रधान तथा उसके मन्त्रीमण्डल को ही कार्यपालिका कहा जाता है। व्यापक अर्थ में कार्यपालिका के अन्तर्गत नीति को अमली जामा पहनाने वाले प्रशासकीय अंग भी शामिल हो जाते हैं।

 

अन्य विद्वानों के अनुसार कार्यपालिका की परिभाषा - 

 

◆ मेक्रिडीस के अनुसार – “राजनीतिक कार्यपालिका, राजनीतिक समाज के शासन के लिए औपचारिक उत्तरदायित्व निभाने वाली संस्थागत व्यवस्थाएं हैं।”

 

◆ गार्नर के अनुसार- “व्यापक तथा सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका के अन्तर्गत वे सभी अधिकारी, राज्य कर्मचारी तथा एजेन्सियां आ जाती हैं जिनका कार्य राज्य की इच्छा को, जिसे विधानमण्डल ने प्रकट कानून का रूप दे दिया है, कार्य रूप में परिणत करना है।”

 

◆ जवाहरलाल नेहरू के अनुसार- "लोकतन्त्र  मात्र राजनीतिक सामाजिक क्षेत्र मे जनमानस के अवसर के समानता मे विचार अंतर्निहित हो।"

◆ गिलक्राइस्ट के अनुसार -"कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो कानून के रूप में अभिव्यक्त जनता की इच्छा को कार्य में परिणत करती है। यह वह धुरी भी है जिसके चारों ओर राज्य का वास्तविक प्रशासन घूमता है।”

 

◆ लाल पालोम्बारा के अनुसार - "कार्यपालिका से आशय मुख्य कार्यपालक, विभागों के अध्यक्ष तथा सरकारी सोपान में उच्चतम स्तर के सार्वजनिक प्रशासकों से है। इसमें वे व्यक्ति, सिविल कर्मचारी तथा अन्य लोग जो मुख्य कार्यपालक की मदद के लिए भर्ती किए जाते हैं, शामिल होते हैं।”

 

● भारत में कार्यपालिका का सिद्धांत - 

 

राष्‍ट्रपति को उसके कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये प्रधानमंत्री के नेतृत्‍व में मंत्रिपरिषद होती है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्‍ट्रपति द्वारा की जाती है और वह प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्‍य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्‍तरदायी होती । मंत्रिपरिषद में कैबिनेट मंत्री, राज्‍य मंत्री (स्‍वतंत्र प्रभार) और राज्‍य मंत्री होते हैं।

 

1972 में केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 13 जजों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया गया  कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है। इस सिद्धांत के तहत संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को स्पस्ट कर दी गयी । कानून बनाना विधायिका का काम है इन तीनों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिये यह ज़रूरी है।

 

■ डी. सी. वाधवा बनाम बिहार राज्य, 1987-

 

इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय मे कहा कि अध्यादेश जारी करने के लिए कार्यपालिका की विधायी शक्ति असाधारण परिस्थितियों में उपयोग की जानी चाहिए।  न कि विधि बनाने की शक्ति के विकल्प के रूप में। यह एक ऐसे मामले की जांच से सम्बंधित था जहां राज्य सरकार द्वारा कुल 259 अध्यादेशों और उनमें से कुछ को समय-समय पर पुनः जारी कर रखा था।

 

गोलकनाथ परिवार ने यह भी तर्क दिया कि उनकी ज़मीन का अधिग्रहण संविधान द्वारा दिए गए क़ानून के समक्ष समानता और क़ानून के समान संरक्षण के मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ ठहरता है।

 

●● कार्यपालिका के प्रकार - 

◆  राजनीतिक और स्थायी कार्यपालिका - 

 

आज राज्यों के कार्यों में वृद्धि हो जाने के कारण कार्यपालिका प्रशासन के साथ जुड़ गई है। आज कार्यपालिका के सभी कार्य प्रशासनिक अधिकारियों पर नौकरशाही द्वारा ही किए जाते हैं। इससे प्रशासकीय और राजनीतिक कार्यपालिका का अन्तर मिट गया है। लेकिन राजनीति विज्ञान में इनका अलग-अलग अर्थों में प्रयोग किया जाता है। लोकतन्त्रीय देशों में तो सारे राजनीतिक निर्णय तथा सर्वोच्च प्रशासनिक निर्णय मुख्य कार्यपालक या मन्त्रीमण्डल द्वारा ही लिए जाते हैं। इसे राजनीतिक कार्यपालिका कहा जाता है। इसका स्वरूप अस्थायी होता है। निश्चित अवधि के बाद चुनावों के बाद नई कार्यपालिका अस्तित्व में आ जाती है। दूसरी तरफ प्रशासन के अधिकारी स्थायी रूप से अपने पद पर रिटायरमेन्ट की अवधि तक रहते हैं। उन्हें अपने पद पर रहने के लिए राजनीतिक समर्थन की आवश्यकता नहीं होती। इनका कार्य राजनीतिक कार्यपालिका के निर्णयों को कार्यरूप देना है। यह कार्यपालिका स्थायी कार्यपालिका कहलाती है। इसका स्वरूप स्थायी है। आज के लोकतन्त्रीय देशों में ये दोनों कार्यपालिकाएं इस तरह से अंगीकार हो चुकी हैं कि इनमें अन्तर करना कठिन हो गया है। भारत में स्थायी व राजनीतिक कार्यपालिका का सुन्दर समन्वय है।

 

 

राजनीतिक और स्थायी कार्यपालिका में अंतर शून्य होना-

 

आज राज्यों में अपराध  वृद्धि हो जाने के कारण कार्यपालिका प्रशासन के साथ जुड़ गई है। आज कार्यपालिका के सभी कार्य प्रशासनिक अधिकारियों पर नौकरशाही द्वारा ही किए जाते हैं। इससे प्रशासकीय और राजनीतिक कार्यपालिका का अन्तर मिट गया है। लेकिन राजनीति विज्ञान में इनका अलग-अलग प्रयोग किया गया हैं। लोकतन्त्रीय देशों में तो सारे राजनीतिक निर्णय तथा सर्वोच्च प्रशासनिक निर्णय मुख्य कार्यपालक या मन्त्रीमण्डल द्वारा ही लिए जाते हैं।जिसको  राजनीतिक कार्यपालिका कहा जाता है। इसका स्वरूप अस्थायी होता है। निश्चित अवधि के बाद चुनावों के बाद नई कार्यपालिका अस्तित्व में आ जाती हैवही दूसरी तरफ प्रशासन के अधिकारी स्थायी रूप से अपने पद पर रिटायरमेन्ट की अवधि तक रहते हैं। उन्हें अपने पद पर रहने के लिए राजनीतिक समर्थन की आवश्यकता नहीं होती। इनका कार्य राजनीतिक कार्यपालिका के निर्णयों को कार्यरूप देना है। यह कार्यपालिका स्थायी कार्यपालिका कहलाती है। इसका स्वरूप स्थायी है। आज के लोकतन्त्रीय देशों में ये दोनों कार्यपालिकाएं इस तरह से एक हो गयी कि इनमें अन्तर करना कठिन हो गया है।

 

 

◆  वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका - 

 

प्राचीन समय में नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में कोई अन्तर नहीं था। शासन की सारी शक्तियां राजा के पास होती थी और वही अकेला समस्त शक्तियों का प्रयोग करता था। लेकिन 1688 की शानदार क्रान्ति के बाद इंग्लैण्ड में मन्त्रिमण्डल नाम की संस्था के जन्म के साथ ही कार्यपालिका के दो रूप उभर गए शासन की वास्तविक शक्तियों मन्त्रिमण्डल की संस्था के हाथ में चली गई और नाममात्र की शक्तियां सम्राट के पास रह गई। नाममात्र की कार्यपालिका के लिए संविधानिक कार्यपालिका का भी प्रयोग किया जाता है। संसदीय शासन प्रााली वाले सभी देशों में इस प्रकार की कार्यपालिकाएं हैं। 

भारत में राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका है और प्रधानमन्त्री वास्तविक।नाममात्र की कार्यपालिका वह कार्यपालिका होती है जिसमें शासन की शक्तियों का राष्ट्राध्यक्ष के नाम पर वास्तविक प्रयोग मन्त्रीमण्डल या प्रधानमन्त्री ही करता है, क्योंकि वही वास्तविक कार्यपालक होता है। राष्ट्राध्यक्ष तो रबड़ की मुहर या ध्वजमात्र होता है। उसे अपने अधिकारों और शक्तियों का स्वतन्त्र प्रयोग करने की अनुमति नहीं होती। राष्ट्रपति शासन सम्बन्धी जो भी कार्य करता है, वह मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही करता है। संसदीय शासन प्रणालियों में ही वास्तविक और नाममात्र की कार्यपालिका का अन्तर देखने को मिलता है, अध्यक्षात्मक सरकारों में नहीं। 

अध्यक्षात्मक सरकारों में तो राष्ट्राध्यक्ष ही वास्तविक कार्यपालक होता हे, वहां नाममात्र की कार्यपालिका का सर्वथा अभाव होता है। अपने कार्यों के लिए पूर्ण रूप से उत्तरदायी होता है।

 

◆ संसदीय तथा अध्यक्षात्मक कार्यपालिका - 

 

कार्यपालिका तथा विधायिका के पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर दो तरह की कार्यपालिका होती है - संसदीय और अध्यक्षात्मक। संसदीय कार्यपालिका को मन्त्रीमण्डल तथा उत्तरदायी कार्यपालिका भी कहा जाता है। संसदीय कार्यपालिका के सदस्य संसद या विधायिका के सदस्यों में से चुने जाते हैं और वे अपने अस्तित्व के लिए विधायिका के निरन्तर विश्वास ओर समर्थन पर आश्रित होते हैं। वे अपने कार्यों के लिए सीधे ही संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इस प्रकार की कार्यपालिका में राष्ट्राध्यक्ष व सरकार के अध्यक्ष या शासनाध्यक्ष में अन्तर होता है। इसके अन्तर्गत राष्ट्राध्यक्ष नाममात्र की शक्तियों का स्वामी होता है तथा शासनाध्यक्ष (प्रधानमन्त्री) वास्तविक शक्तियों का स्वामी होता है। इसमें समस्त निर्णय सामूहिक स्तर पर मन्त्रीमण्डल द्वारा ही लिए जाते हैं और अपनी नीतियों के लिए वही उत्तरदायी रहता है। इसके अन्तर्गत राष्ट्राध्यक्ष का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता। उसकी स्थिति तो रबड़ की मुहर जैसी होती है।

इस कार्यपालिका में राष्ट्राध्यक्ष शासनाध्यक्ष की अनुमति से कार्यपालिका को भंग कर सकता है। इसके विपरीत अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में शासनाध्यक्ष व राष्ट्राध्यक्ष एक ही व्यक्ति होता है। उसे शासन की समस्त शक्तियां प्राप्त होती हैं। वह अपने कार्यकाल तथा नीतियों के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। वह प्रतीकात्मक या नाममात्र का शासनाध्यक्ष न होकर वास्तविक कार्यपालक होता है। 

इस प्रकार की कार्यपालिका अमेरिका में है, जबकि संसदीय कार्यपालिका इंग्लैण्ड तथा भारत में है।

 

 

◆  एकल तथा बहुकार्यपालिका - 

 

राज्य की कार्यपालक शक्तियों के आधार पर कार्यपालिका, एकल व बहुसंख्यक दो प्रकार की होती है। जहां पर शासन की सारी शक्तियां एक ही व्यक्ति में निहित रहती हैं, वह एकल कार्यपालिका होती है। इसके विपरीत जब कार्यपालक शक्तियां अनेक व्यक्तियों या समूह के हाथों में होती हैं तो उसे बहुल या मंडल-कार्यपालिका के नाम से जाना जाता है। भारत, स्विटजरलैण्ड व ब्रिटेन में बहुकार्यपालिका हैं, जबकि अमेरिका में एकल कार्यपालिका है। 

एकल कार्यपालिका वहीं पर अस्तित्व में पाई जाती हैं जहां शक्तियों का पृथक्करण सिद्धान्त को कठोरता से अपनाया गया हो। अमेरिका में शक्तियों के पृथक्करण के कारण कार्यपालिका, विधायी नियन्त्रण से मुक्त है। यहां  प्रशासन की कार्यपालिका, विधायी नियन्त्रण से मुक्त है। यहां पर शासन की कार्यपालक शक्तियां राष्ट्रपति में निहित हैं। यहां पर संविधानिक मन्त्रीमण्डल की संस्था का अभाव है। राष्ट्रपति अपने उत्तरदायित्वों के निवर्हन के लिए कुछ व्यक्तियों की समिति या मन्त्रिमण्डल बना सकता है, लेकिन उनका कोई स्वतन्त्र व संविधानिक अस्तित्व नहीं हो सकता। वे कार्यपालक शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति की इच्छानुसार ही करते हैं। वास्तविक कार्यपालक के रूप में प्रशासन पर समस्त अधिकार उसी का होता है। 

इसके विपरीत बहुत कार्यपालिका में सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त कार्य करता है। इसमें शासन की सारी शक्तियां मन्त्रिमण्डल नामक संविधानिक संस्था के पास होती हैं। इसके अन्तर्गत न तो शक्तियों का एकमात्र स्वामी होता है और न ही वह अपनी इच्छानुसार कार्यपालक शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का उत्तम उदाहरण है तो भारत का मन्त्रीमण्डल बहुत कार्यपालिका का।

 

◆  पैतृक तथा चुनी हुई कार्यपालिका :- 

 

जिस देश में कार्यपालिका को पैतृक आधार पर चुना जाता है, वह पैतृक कार्यपालिका होती है। ब्रिटेन में सम्राट का चुनाव पैतृक आधार पर ही होता है। यह कार्यपालिका वंशानुगत होती है। इसमें जन इच्छा का अभाव पाया जाता है। इसके विपरीत जिन देशों में कार्यपालिका जनता या जन-प्रतिनिधियों द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव के आधार पर चुनी जाती है, उसे निर्वाचित या चुनी हुई कार्यपालिका कहा जाता है। 

भारत, अमेरिका, बंगलादेश, श्रीलंका, पीरु, चिल्ली आदि देशों में निर्वाचित कार्यपालिकाएं हैं।

 

स्थायी कार्यपालिका  2 प्रकार से हो सकती हैं -

1. केंद्र स्तर पर ,   2. राज्य स्तर पर

केंद्र स्तर पर रास्टपति ,प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद होते हैं | राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री ,गवर्नर, मंत्रिपरिषद  होते हैं |

लोकसभा मे जिसको बहुमत मिलता हैं वही प्रधानमंत्री बनाता हैं और विधायिका के प्रति जिम्मेदार होता हैं |

जहा संसदीय व्यवस्था होती हैं वहा प्रधानमंत्री प्रमुख होता हैं |

 

 

कार्यपालिका के कार्य

 

कार्यपालिका के प्रमुख कार्य निम्न  हैं :-

 

 

• कार्यपालिका के प्रशासकीय कार्य 

• विदेश नीति का संचालन 

• कार्यपालिका के व्यवस्थापन सम्बन्धी कार्य 

• कार्यपालिका के सैनिक कार्य 

• कार्यपालिका के वित्तीय कार्य 

• कार्यपालिका के न्यायिक कार्य 

• नीति-निर्माण करना 

• कार्यपालिका के संकटकालीन कार्य 

• कार्यपालिका के राजनीतिक कार्य 

• कार्यपालिका के आर्थिक कार्य

 

चेस्टर बनार्ड ने अपनी पुस्तक 'Functions of the Executive' में कार्यपालिका के कार्यों को बहुआयामी बताया है। उनके अन्तर्गत समस्त प्रकार के प्रशासकीय, वित्तीय, न्यायिक, कूटनीतिक, सैनिक, राजनीतिक व आर्थिक कार्य आ जाते हैं। सार रूप में देश में शान्ति व्यवस्था बनाए रखना, लोककल्याण के आदर्श को प्राप्त करना तथा विदेशी नीति का सफल क्रियान्वयन ही कार्यपालिका का आदर्श है।

 

 

○ कार्यपालिका के प्रशासकीय कार्य :- 

 

कार्यपालिका प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए सभी प्रशासनिक तथा नीति सम्बन्धी निर्णय लेती है। विधायिका द्वारा निर्मित कानूनों को अमली जामा पहनाने के लिए वह महत्वपूर्ण पदों पर कर्मचारियों व अधिकारियों की नियुक्ति करती है। प्रशासन को चलाने के लिए सभी आवश्यक विभागों की स्थापना भी कार्यपालिका ही करती है। सभी विभागों पर अपना नियन्त्रण; निर्देशन व निरीक्षण बनाए रखने की भी व्यवस्था कार्यपालिका ही करती है। संसदीय देशों में कार्यपालिका को अपने प्रशासकीय कार्य अधिक कुशलता से करने पड़ते हैं। इनमें मन्त्रीमंडल नामक संस्था के द्वारा सामूहिक उत्तरदायित्व के आधार पर प्रशासकीय कार्यों का निष्पादन होता है, जबकि अध्यक्षात्मक देशों में राष्ट्राध्यक्ष ही वास्तविक कार्यपालक होने के नाते समस्त प्रशासन का अधिकृत प्रशासक होता है। सभी महत्वपूर्ण विभागों में नियुक्तियों व प्रशासनिक अधिकारियों पर उसी का नियन्त्रण रहता है। देश के अन्दर प्रशासन पर कार्यपालिका का ही वास्तविक नियन्त्रण रहता है।

 

○ विदेश नीति का संचालन :- 

 

आज का युग अन्तर्राष्ट्रीय अन्तनिर्भरता का युग है। दूसरे देशों से व्यापारिक तथा कूटनीतिज्ञ सम्बन्ध बनाए रखना प्रत्येक राष्ट्र की मजबूरी है। परमाणु युद्ध का खतरा उत्पन्न होने के बाद तो विदेशी-सम्बन्धों का महत्व और अधिक बढ़ गया है। ये कार्य अब कार्यपालिका के हाथों से ही सम्पन्न किए जाते हैं। विदेशों में विदेश नीति के संचालन के लिए राजदूतों की नियुक्ति, विदेशी राजनयिकों का स्वागत, अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों व सम्मेलनों में देश का प्रतिनिधित्व, विदेशी सम्बन्धों को सुसंगत बनाए रखने के लिए की जाने वाली सन्धियां व समझौते, सांस्कृतिक, शैक्षिक व व्यापारिक गतिविधियों का संचालन व नियन्त्रण आदि समस्त कार्य कार्यपालिका के ही कार्य हैं। राष्ट्रीय हित को प्राप्त करने में कार्यपालिका का बहुत अधिक हाथ होता है। यद्यपि विदेश नीति के संचालन में विधायिका का भी कुछ न कुछ योगदान अवश्य होता है, लेकिन वह औपचारिकता तक ही सिमटकर रह जाता है। युद्धकाल में तो कूटनीतिक सम्बन्धों को गति देने के लिए सक्रिय कार्यपालिका की आवश्यकता अधिक अनुभव की जाती है। भारत में विदेश नीति के संचालन में राष्ट्रपति व प्रधानमन्त्री दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। अमेरिका में इस कार्य में राष्ट्रपति पूर्ण रूप से महत्वपूर्ण अधिकार रखता है।

 

○  कार्यपालिका के व्यवस्थापन सम्बन्धी कार्य :- 

 

संसदीय देशों में व्यवस्थापन का कार्य कार्यपालिका के सहयोग से विधायिका द्वारा ही किया जाता है। अध्यक्षात्मक देशों में यह कार्य विधायिका द्वारा स्वतन्त्र रूप से किया जाता है। अध्यक्षात्मक व संसदीय सरकार में कानून को मूर्त रूप देने का कार्य कार्यपालिका ही करती है। कार्यपालिका प्रत्येक व्यवस्थापन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका संसदीय शासन प्रणाली वाले देशों में ही निभाती है। यहां पर वह कानून का निर्माण और उसे लागू करना दोनों कार्यों को पूरा करने में सक्षम होती है। पारस्परिक निर्भरता के सिद्धान्त पर आधारित होने के कारण व्यवस्थापन प्रक्रिया से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। संसद का अधिवेशन बुलाना, उसका सत्रवसान, स्थगन तथा विघटन कार्यपालिका ही करती है। कार्यपालिका ही विधेयक पेश करती है और उसे संसद से पारित भी कराती है।

व्यवस्थापन कार्य में कार्यपालिका नीति-सम्बन्धी सूचनाएं व्यवस्थापिका की सलाह मानने को बाध्य नहीं होती लेकिन आजकल कई देशों में अध्यक्षात्मक सरकार के व्यवस्थापन सम्बन्धी कार्यों को कार्यपालिका कुछ न कुछ प्रभावित अवश्य करती है। अपनी प्रदत व्यवस्थापन की शक्ति के अन्तर्गत कार्यपालिका को स्वतन्त्र रूप से कानून बनाने का अधिकार प्राप्त होता है। विधायिका के अधिवेशन न चलने की स्थिति में कार्यपालिका अध्यादेश भी जारी कर सकती है।

 

 

○ कार्यपालिका के सैनिक कार्य :- 

 

युद्धकाल या शांतिकाल में देश की सैनिक शक्ति को संगठित रखना व संचालन करने का अधिकार भी कार्यपालिका के हाथों में ही होता है। राष्ट्रपति सेनाओं का वास्तविक कार्यपालक होता है। उसे सेनाओं के गठन, सैनिक अधिकारियों की नियुक्ति, पदच्युति और युद्ध का नेतृत्व करने का अधिकार प्राप्त होता है। वह राष्ट्रीय सम्मान या सुरक्षा के लिए युद्ध की घोषणा भी कर सकता है। संसदीय सरकार में तो उसे मन्त्रीमण्डल या विधायिका की अनुमति लेनी पड़ती है, लेकिन अध्यक्षात्मक सरकार में उसे स्वतन्त्र रूप से सैनिक कार्यों के संचालन का अधिकार होता है। 

युद्धकाल में कार्यपालिका देश के निवासियों को अनिवार्य सैनिक सेवा देने को बाध्य भी कर सकती है। अमेरिका में अफगानिस्तान और ईराक के विरुद्ध युद्ध की घोषणा अमेरिका के राष्ट्रपति ने ही की थी। सद्दाम को पकड़ने का निर्णय राष्ट्रपति बुश का ही स्वतन्त्र निर्णय था। 

इस तरह सैनिक कानून लागू करने और संकटकाल की घोषणा करने का भी अधिकार राष्ट्रपति या कार्यपालिका को ही है, चाहे वह औपचारिक हो या अनौपचारिक। युद्धकाल में कार्यपालिका की शक्ति कई गुणा बढ़ जाती है। तानाशाही देशों में तो कार्यपालिका का सैनिक कार्यों पर सर्वाधिकार हो जाता है। 

शांतिकाल में भी देश की सेनाओं पर वास्तविक नियन्त्रण कार्यपालिका का ही होता है, चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष।

 

○ कार्यपालिका के वित्तीय कार्य :- 

 

आज देश के वित्त पर भी कार्यपालिका का कुछ न कुछ नियन्त्रण अवश्य रहता है। आय-व्यय पर व्यवहारिक नियन्त्रण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कार्यपालिका का ही होता है। सिद्धान्त रूप में तो यह कार्य विधायिका का है। संसदीय देशों में कार्यपालिका को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होने के कारण नए टैक्स लगाने, टैक्स हटाने या घटाने के बिल प्राय: कार्यपालिका ही पेश करती है और उन्हें पास करा लेती है। राष्ट्रीय कोष की समुचित व्यवस्था के लिए कार्यपालिका के अन्तर्गत एक वित्त विभाग रहता है। 

कार्यपालिका प्रत्येक विभाग के वित्त पर नियन्त्रण भी रखती है। अध्यक्षात्मक सरकार में भी कार्यपालिका बजट तो पेश नहीं करती, लेकिन बजट को अपनी देख-रेख में ही तैयार कराती है। अमेरिका में बजट का निर्माण राष्ट्रपति की ही देखरेख में होता है। भारत में वित्तमन्त्री ही बजट पेश करता है। 

अर्थात इस तरह कार्यपालिका कुछ वित्तीय कार्य भी करती है।

 

○ कार्यपालिका के न्यायिक कार्य :-

 

उच्चतम न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा ही की जाती है। कार्यपालिका के अध्यक्ष के पास अपराधी की सजा माफ करने या घटाने का पूरा अधिकार है। यद्यपि लोकतन्त्र में इस शक्ति को खतरे की निशानी समझा जाता है, लेकिन आज न्यायपालिका के अधिकार का भी कार्यपालिका द्वारा कुछ न कुछ प्रयोग अवश्य किया जाता है। भारत में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई फांसी की सजा को भी राष्ट्रपति माफ कर सकता है या आजीवन कारावास में बदल सकता है। इससे न्यायपालिका की शक्ति का हास अवश्य होता है।

 

○  नीति-निर्माण करना :- 

 

कार्यपालिका का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य नीति निर्धारण करना भी है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपनी नीति निर्धारण करके संसद के सामने प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में वह अपनी नीतियों की स्वतन्त्र निर्धारक होती है। कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक व बाहरी नीति का निर्धारण करती है और उसी के आधार पर शासन चालती है। नीतियों को लागू करना भी कार्यपालिका का ही कार्य है।

 

○  कार्यपालिका के संकटकालीन कार्य :- 

 

संकटकालीन परिस्थितियों में कार्यपालिका की शक्तियां कई गुणा बढ़ जाती हैं। सैनिक संकट, विद्रोह, बाहरी आक्रमण, देश की सुरक्षा को खतरा या आर्थिक संकट के पैदा होने की स्थिति में कार्यपालिका अपनी संकटकालीन शक्तियों का प्रयोग कर सकती है। ऐसे समय में वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का स्थगन भी कर सकती है और देश में आर्थिक आपातकाल की भी घोषणा कर सकती है। इन शक्तियों के कारण व्यवस्थापिका की शक्ति का हास होने लगा है।

 

○ कार्यपालिका के राजनीतिक कार्य :- 

 

प्रत्येक देश में राजनीतिक कार्यपालिका कुछ न कुछ राजनीतिक कार्य भी अवश्य करती है। इनमें प्रतिनिधित्व, नेतृत्व, विचार विमर्श व निर्णय, निरीक्षण व नियन्त्रण आदि कार्य शामिल हैं। राजनीतिक समाज में विभिन्न संस्थागत व्यवस्थाओं का संयोजन व एकीकरण करना भी कार्यपालिका ही करती है। विभिन्न हितों को प्रतिनिधित्व देना व उनमें सामंजस्य बिठाना भी कार्यपालिका का ही कार्य है। कार्यपालिका देश व समाज को नेतृत्व देने का भी कार्य करती है। प्रदत व्यवस्थापन के अन्तर्गत निर्णय देना भी कार्यपालिका का ही कार्य है। कार्यपालिका की निर्णयकारी भूमिका के कारण आज उसकी शक्तियों में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है।

 

○ कार्यपालिका के आर्थिक कार्य :- 

 

आज का युग कल्याणकारी राज्यों का युग है। आज सभी सरकारें लोकहित के कार्य करने को मजबूर है। इसी कारण में नियोजन द्वारा आर्थिक विकास की योजनाओं को सफल बनाने के प्रयास करती है। इस आर्थिक योजना पर कार्यपालिका का ही पूर्ण नियन्त्रण रहता है। देश को सम्पूर्ण आर्थिक जीवन पर नियन्त्रण होने के कारण कार्यपालिका का महत्व भी बढ़ रहा है। व्यापार, वाणिज्य, कृषि, उद्योग जैसे विषयों पर कार्यपालिका का नियन्त्रण बढ़ा है। आय व व्यय पर नियन्त्रण रखने के साथ-साथ आर्थिक साधनों की उत्पादन व वितरण प्रणाली पर भी कार्यपालिका का ही नियन्त्रण रहता है।

 

 

कार्यपालिका का औपचारिक नाम अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न होता है। कुछ देशों में राष्ट्रपति होता है, तो कहीं चांसलर। कार्यपालिका में केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मंत्री ही नहीं होते बल्कि इसके अंदर पूरा प्रशासनिक ढांचा (सिविल सेवा के सदस्य) भी आते हैं  ।

सभी देशों में एक ही तरह की कार्यपालिका नहीं होती। उदाहरण के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति की शक्तियाँ और कार्य भारत के राष्ट्रपति की शक्तियों से बहुत अलग है। इसी प्रकार, इंग्लैंड की महारानी की शक्तियाँ भूटान के राजा से भिन्न है।

भारत और फ्रांस दोनों ही देशों में प्रधानमंत्री है, पर उनकी भूमिका अलग-अलग हैं। फ्रांस में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अर्ध-अध्यक्षात्मक व्यवस्था के हिस्से हैं। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है पर उन्हें पद से हटा नहीं सकता क्योंकि वे संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं।  जापान में संसदीय व्यवस्था है जिसमें राजा देश का और प्रधानमंत्री सरकार का प्रधान है। इटली में एक संसदीय व्यवस्था है जिसमें राष्ट्रपति देश का और प्रधानमंत्री सरकार का प्रधान है। रूस में एक अर्ध्यक्षात्मक व्यवस्था है जिसमें राष्ट्रपति देश का प्रधान और राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री सरकार का प्रधान है। जर्मनी में एक संसदीय व्यवस्था है जिसमें राष्ट्रपति देश का नाममात्र का प्रधान और चांसलर सरकार का प्रधान है।

 

वर्तमान युग में राजनीतिक कार्यपालिका के चार स्वरूप देखे जाते हैं – 

 

1. संसदीय -

यह ब्रिटेन और भारत जैसे देश में देखे जाते हैं, जहां एक नाम मात्र संवैधानिक प्रधान होता है। जैसे राष्ट्रपति  और क्राउन, वहीं दूसरा प्रशासनिक प्रधान होता है। जैसे - प्रधानमंत्री।

 

2. अध्यक्षात्मक -

यह अमेरिका जैसे देशों में देखा जाता है जहां प्रशासनिक एवं संवैधानिक शक्ति केवल एक व्यक्ति के पास,  वहां के राष्ट्रपति के पास होते हैं ।

 

3. दोहरी

यह फ्रांस जैसे देशों में देखे जाते हैं, जहां राष्ट्रपति का अपना एक मंत्रिमंडल होता है और प्रधानमंत्री का भी अपना एक मंत्रिमंडल होता है तथापि दोनों मंत्रिमंडल के कार्यों एवं शक्तियों  का पृथक्करण होता है।

 

4. बहुल -

समान्यतः यह कार्यपालिका प्रत्यक्ष लोकतंत्र के गुण है शायद यही कारण है कि यह वर्तमान में केवल यह  एक देश 'स्विजरलैंड' में देखे जाते हैं। जहां मंत्रिमंडल के प्रत्येक सदस्य स्वतंत्र होते हैं एवं उसमें स्थाई शक्ति होती हैं ।

 

 

कार्यपालिका की शक्तियों का विकास - 

 

व्यवस्थापिका की शक्तियों के ह्रास ने जिस नए आयाम को जन्म दिया है, वह कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि से सम्बन्ध रखता है। आज राजनीति विज्ञान में राजनीतिक कार्यपालिका की शक्ति से विकास की सर्वत्र चर्चा की जाती है। सभी देशों की शासन-व्यवस्थाओं में कार्यपालिका की शक्ति में होने वाली वृद्धि ने राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया है। आज कार्यपालिका नीति-निर्माण का प्रमुख यन्त्र बन गई है।  आज कार्यपालिका का व्यवहारिक रूप बदल चुका है। स्वयं व्यवस्थापिका का कार्य-व्यवहार भी दोषपूर्ण होने के कारण कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि के लिए उत्तरदायी है। प्रशासनिक कार्यों की जटिलता तथा उनसे निबटने में सक्षम कार्यपालिका ही आज सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर चुकी है और भविष्य में भी उसकी शक्तियों व प्रतिष्ठा में वृद्धि होने की पूरी सम्भावना है। 

 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों तथा राज्यों के कल्याणकारी स्वरूप ने कार्यपालिका की ओर सरकार की शक्तियों को झुका दिया है।

आज सर्वत्र कार्यपालिका की शक्तियों में होने वाली वृद्धि के प्रमुख कारण माने जाते हैं :-

• अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के कुशल संचालन में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका की अपेक्षा अधिक सफल रही है। इसी कारण आज सभी देशों में कार्यपालिका को विदेश नीति के सफल संचालन की स्वतन्त्रता प्राप्त है। आज अन्तर्राष्ट्रीय समझौते व सन्धियां कार्यपालिका ही करने लगी है। भारत-पाक युद्ध पर शिमला समझौते भारत के कार्यपालक ने ही किया था।

• व्यवस्थापिका का अपनी शक्ति का कुछ भाग प्रदत-व्यवस्थापन के रूप में कार्यपालिका को दिया है। इस शक्ति का प्रयोग करके आज कार्यपालिका प्रभावी कानून बनाने लगी है। इससे विधायिका की शक्ति तो कम हुई है लेकिन कार्यपालिका की शक्ति बढ़ी है।

• आज संचार के साधनों के विकास ने जनता को सीधे कार्यपालिका से जोड़ दिया है। इससे कार्यपालिका का जनता के प्रति उत्तरदायित्व बढ़ा है। अब कार्यपालिका जनता से आमने-सामने पेश हो रही है। कार्यपालिका की जनता के प्रति निकटता ने भी कार्यपालिका का सम्मान बढ़ाया है। आज कार्यपालिका ही राजनीतिक चेतना को बढ़ाने में जनता के साथ सहयोग करके भी व्यवस्थापिका से आगे निकल गई है।

• आज संसद तो निरर्थक वाद-विवाद का केन्द्र मानी जाने लगी है। संसद की बैठकों के दौरान जो व्यवहार जनता के सामने आता है, वह सर्वविदित है। आज हमारे विधायक या सांसद असभ्य व्यवहार के पर्यायवाची बन चुके हैं। आज जनता एक व्यक्ति विशेष में ही अपनी रुचि दिखाने लगी है। जनता देश में एकता देखना चाहती है। ऐसा स्वप्न कार्यपालिका का अध्यक्ष ही पूरा कर सकता है। आज जनता को प्रधानमन्त्री तथा राष्ट्रपति के बारे में लोकप्रिय छवि उभरी है। भारत में वर्तमान कार्यपालिका में जनता का विश्वास बढ़ने का कारण प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का योग्य नेतृत्व ही है। व्यवस्थापिकाओं में ऐसे नेतृत्व की कमी होती जा रही है।

• व्यवस्थापिका के अधिवेशनों की तुलना में कार्यपालिका के अधिवेशन अधिक होते हैं। वह निरन्तर अिधेवेशन में रहने वाली संस्था बनकर उभरी है। वह समाज की पहरेदार, राष्ट्र की रक्षक व प्रशासन की अधिष्ठात्री है। वह समाज हित में सरकार के दूसरे अंगों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करने लगी है। उसकी इस सक्रियता से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी है।

• आज सरकार की जटिल समस्याओं से निपटने में कार्यपालिका ही अपना उत्तरदायित्व निभाने में सक्षम है। आज शासन की नीतियों का सम्पूर्ण राजनीतिक जीवन से सम्बन्ध होने के कारण कार्यपालिका का जागरूक होना आवश्यक हो गया है। अपने उत्तरदायित्वों को निभाने तथा पेचिदा राजनीतिक परिस्थितियों से निपटने में सफल रहने के कारण कार्यपालिका के सम्मान में वृद्धि हुई है।

• संविधान संशोधनों ने भी कार्यपालिका के शक्ति क्षेत्र में वृद्धि की है।

• राजनीतिक व्यवस्था में बार बार आने वाले राजनीतिक व आर्थिक संकटों से निपटने के लिए कार्यपालिका के पास आपातकालीन शक्तियां रहती हैं। अपनी इन शक्तियों का कुशलतापूर्वक प्रयोग करके भी कार्यपालिका ने अपनी शक्तियां बढ़ा ली हैं। ;9द्ध कार्यपालिका विधायिका के कानून तथा न्यायालयों के निर्णय भी निष्पक्षता व ईमानदारी से लागू करती है। शासनतन्त्र की धुरी के रूप में वह सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था को गति देने लगी है। इससे उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो रही है। 

• राष्ट्रीय संकट के समय कार्यपालिका को सब बन्धनों से मुक्ति मिल जाती है और उसकी शक्तियां असीम हो जाती हैं। कारगिल युद्ध में भारत की कार्यपालिका को सारे देश की जनता व राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त था। भारत में कार्यपालिका को आपातकाल का सामना करने के लिए कुछ संविधानिक सुविधाएं भी दी हैं।

• राजनीतिक दल के माध्यम से भी व्यवस्थापिका की सारी शक्तियां कार्यपालिका में निहित हो जाती हैं। विधायिका में दल के बहुमत के कारण वह संसद में आनी बात मनवाने में सफल रहती है।

• आधुनिक समय में कार्यपालिका के अधिकारियों और संस्थाओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होने के कारण भी कार्यपालिका की कार्य-निष्पादन की व्यवस्था में सुधार आने के कारण ही कार्यपालिका का सम्मान बढ़ा है।

• कार्यपालिका की कार्यकुशलता व योग्यता के कारण भी उसका सम्मान बढ़ा है। कार्यपालिका में योग्य व अनुभवी व्यक्ति ही होते हैं, जबकि विधायिका में अपनढ़, असभ्य तथा अनुभवहीन व्यक्ति होते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में होने वाले हर कार्य उनकी योग्यता व अनुभव का ही परिणाम होता हे। कानून निर्माण व नीति निर्माण में भी उनकी भूमिका होने के कारण व्यवस्थापिका की शक्ति सरक कर उसके पास आ गई है।

• लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा ने भी कार्यपालिका की भूमिका में वृद्धि की है।

• कार्यपालिका द्वारा विधानपालिका के अधिवेशन न होने की स्थिति में अध्यादेश जारी किया जाता है। अपने दलीय बहुमत के कारण वह बाद में उसे संसद से स्वीकृत भी करा लेती है। इससे भी कार्यपालिका की शक्ति बढ़ी है।

• आर्थिक नियोजनतन्त्र पर भी कार्यपालिका का एकाधिकार होने के कारण उसकी शासन में प्रभावशीलता बढ़ी है।

• कार्यपालकों के करिश्माई व्यक्तित्व ने भी कार्यपालिका का सम्मान बढ़ाया है। भारत में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी, अमेरिका में राष्ट्रपति रुजवेल्ट, फ्रांस के राष्ट्रपति जनरल डिगाल, अफ्रीका में नेल्सन मंडेला, मिश्र के कर्नल नासीर अपने करिश्माई व्यक्तित्व के कारण ही लोकप्रिय कार्यपालक हुए हैं। उनके कारण ही कार्यपालिका की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई है।

• संसदीय देशों में कार्यपालिका को निम्न सदन को भंग करने की शक्ति भी प्राप्त है। भारत में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर निम्न सदन को भंग कर सकता है। इस अधिकार के कारण भी इन देशों में कार्यपालिका को महत्वपूर्ण शक्ति का स्वामी माना जाता है।

• स्वयं विधायिका की अक्षमता तथा असमर्थता भी इसकी शक्तियों में वृद्धि करने के लिए उत्तरदायी है। विकासशील देशों में कार्यपालिका की असीमित शक्तियां व्यवस्थापिकाओं की कार्य-निष्पादन में असमर्थता का ही परिणाम है।

 

अर्थात द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बदलती परिस्थितियों तथा राष्ट्रीय विकास की आवश्यकता ने कार्यपालिका को शक्तिशाली बनाने की आवश्यकता महसूस करा दी। लोक कल्याण के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कार्यपालिका का शक्तिशाली होना आवश्यक माना जाने के कारण कार्यपालिका के व्यावहारिक ढाँचे में अनेक परिवर्तन हुए हैं। अब कार्यपालिकाएं कानून लागू करने वाली औपचारिक संस्थाएं मात्र न रहकर राजनीतिक जीवन के हर क्षेत्र में अपना प्रभाव जमा चुकी हैं।

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