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कांग्रेस हरिपुरा अधिवेशन और त्रिपुरी संकट

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-01-17 22:42:10

कांग्रेस हरिपुरा अधिवेशन और त्रिपुरी संकट

हरिपुरा, विट्ठल नगर, गुजरात राज्य में स्थित है जबकि त्रिपुरी, जबलपुर,  मध्य प्रदेश में स्थित है।

हरिपुरा अधिवेशन, 1938 भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था , जहाँ कांग्रेस में मज़बूत हो चुकी दो विचारधाराओं ने एक दूसरे को प्रभावित करने का प्रयास किया। यह केवल गाँधी जी और सुभाष के बीच का मुद्दा नहीं था बल्कि देश तथा कांग्रेस आगे जाकर किस नीतियों पर चलेगी इसका एक निर्णय था । इस अधिवेशन में तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में समाजवाद और साम्यवाद के उदय ने इस अधिवेशन को प्रभावित किया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस इस अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में चुने गए थे।  यह कांग्रेस का 51वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों से खींचे हुए रथ में किया गया। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहूत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी किया हो। अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे और के.टी. शाह को जनरल एडिटर के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा चुना गया था।
के.टी. शाह राष्ट्रीय योजना समिति के मानद महासचिव थे। के.एस. रामचंद्र अय्यर सचिव थे। के.एम. नाइक और बी. के. शाह समिति के विशिष्ट सदस्य थे।
फरवरी 1938 में गुजरात के हरिपुरा में कांग्रेस की बैठक में बोस को सर्वसम्मति से सत्र का अध्यक्ष चुना गया था।बोस ने योजना के माध्यम से देश के आर्थिक विकास की भी बात की और राष्ट्रीय योजना समिति की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस प्रकार, भारत के राष्ट्रीय योजना को विकसित करने का पहला प्रयास 1938 में शुरू हुआ।  हालांकि, समिति की रिपोर्ट तैयार नहीं की जा सकी और केवल 1948-49 में पहली बार कुछ कागजात सामने आए।
सुभाष बाबू ने बैंगलोर में मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी ली।

कांग्रेस में साम्यवादी विचारधारा प्रबल हो रही थी और सुभाष व जवाहर लाल नेहरू समाजवाद से प्रभावित थे। इस समय दोनों कांग्रेस को आगे ले जा रहे थे परन्तु महात्मा गाँधी जी हरिपुरा अधिवेशन के समय सक्रिय राजनीति से बाहर थे।  इस समय गाँधी जी हरिजनो के उन्नयन के लिए कार्य कर रहे थे। इस से पहले गाँधी जी समाजवाद से मत-भिन्नता, तबीयत ख़राब होने के कारण सक्रिय राजनीति से बहार जरूर थे परन्तु लगातार वो देश की राजनीति पर ध्यान दे रहे थे। 

कांग्रेस के दक्षिणपंथी सुभाष के कठोर वामपंथी विचारधारा से काफी मतभेद रखते थे क्योंकि इसमें गाँधीवादी अहिंसात्मक शैली न थी। इस क्रम में 1938 में हरिपुरा अधिवेशन के पूर्व सरदार वल्लभ भाई पटेल में सुभाष का विरोध किया था। परन्तु गाँधीजी स्वयं सुभाष और जवाहर से प्रभावित थे इसलिए गाँधी जी ने अध्यक्ष पद के लिए सुभाष का नाम पर मोहर लगा दी।

हरिपुरा अधिवेशन में मुख्य प्रस्ताव ब्रिटेन से भारत को आज़ादी देने के लिए 6 महिने का समय देना और उसके बाद ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करना था। यह प्रस्ताव गाँधी जी की अहिंसा की नीति के विरुद्ध था इसलिए गाँधी जी इस से सहमत नहीं हुए। 


गांधी जी कांग्रेस में वामपंथी विचारधारा के हिंसात्मक विचार से सहमत नहीं थे। वही जवाहर लाल नेहरू और सुभाष लगातार कॉंग्रेस में वामपंथी विचारो को प्रसारित कर रहे थे। महात्मा गाँधी शुरुआत में जवाहर और सुभाष के विचारों और ऊर्जा से प्रभावित थे परन्तु कुछ बातो से गाँधी जी असहज भी थे :-

◆◆ सुभाष “दुश्मन का दुश्मन को दोस्त” मानते थे परन्तु गाँधी जी इससे सहमत न थे

◆◆बोस  ने हरिपुरा अधिवेशन के पहले भाषण में स्टालिनवादी साम्यवाद और बेनिटो मुसोलिनी के फासिस्ट विचारधारा की प्रशंसा की। निश्चित रूप से फासिस्ट विचारों से गाँधी जी काफी असहज हो उठे क्योंकी ये देश के लिए एक अलोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने का समर्थन जैसा था। गाँधी जी इस कारण काफी अलग हो गए थे।

◆◆ हरिपुरा अधिवेशन में बोस का ब्रिटिश सरकार को 6 माह का समय देना और उसके बाद विद्रोह का प्रस्ताव पर भी गाँधी जी असहमत थे क्योंकि वे हिंसात्मक तरीको को अनैतिक मानते थे जबकि सुभाष इससे असहमत न थे।

◆◆1938 में बोस ने राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया जिसका काम भारत में विकास की योजना की रूप रेखा बनाना था। परन्तु गाँधी जी जहाँ औद्योगीकरण से ज्यादा ग्राम व कुटीर अर्थव्यवस्था चाहते थे इसलिए दोनों में विकास की रूपरेखा कैसी हो पर मतभेद पैदा हो गए।


अर्थात सुभाष चंद्र बोस और गांधी जी के उद्देश्य एक थे किंतु विचारधारा में मतभेद थे इसलिए दोनों के भारत को आज़ादी दिलाने के तरीके अलग थे।

 

हालांकि गाँधी जी ने 1938 में सुभाष चंद्र बोस के कई कामों से प्रभावित होकर हरिपुरा अधिवेशन की अध्यक्षता सुभाष को ही सौंपी।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार बोस के हरिपुरा अधिवेशन की कार्यशैली और स्टालिन व मुसोलिनी के प्रति झुकाव तथा आज़ादी दिलाने के कठोर शैली के कारण ही गाँधी जी लगातार दूर हो चले थे। गाँधीजी और बोस के बीच मतभेद वैचारिक थे क्योकि बोस और गांधीजी ने कभी एक दूसरे को खुलकर आलोचना नहीं की। फिर भी दोनों के मतभेदों से कांग्रेस वामपंथी और दक्षिणपंथी ग्रुप में बंट गयी और यही मतभेद त्रिपुरी अधिवेशन में दिखाई दिए।

हालांकि 1937 में जापान ने जब चीन पर आक्रमण किया था तो सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चीन की  जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाषबाबू ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया, तब कई लोग उन्हे जापान के हस्तक और फॉसिस्ट कहने लगे। मगर इस घटना से यह कहा जा सकता  हैं कि सुभाषबाबू न ही तो जापान के हस्तक थे, न ही वे फॉसिस्ट विचारधारा से सहमत थे।

1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी दौरान युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। उधर यूरोप में 1 सितम्बर 1939 को जर्मनी पोलैण्ड पर आक्रमण करता है; दो दिनों बाद ब्रिटेन-फ्राँस जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा करते हैं, और इस प्रकार, दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत होती है। आजादी के लिए ब्रिटेन के शत्रु देशों से मदद लेने या कुछ और मामलों में गाँधी-नेहरू से नेताजी का मतभेद बढ़ जाता है। गाँधीजी स्पष्ट कर देते हैं कि सुभाष, तुम अपना रास्ता अलग चुन लो। नेताजी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के माध्यम से (बेशक गुप्त रुप से) स्तालिन को भारत की आजादी में मदद के लिए सन्देश भेजते हैं। सम्भवतः स्तालिन नेताजी को मास्को आने का न्यौता भी देते हैं। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ ठाकूर ने गाँधीजी को खत लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर, बहुत सालो के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया। सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें। गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।गाँधीजी ने पट्टाभी सितारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर, अपने साथीयों से कह दिया कि अगर वें सुभाषबाबू के तरिकों से सहमत नहीं हैं, तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 13 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बनें रहें। 1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार पड गए थे, कि उन्हे स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथीयों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझौता के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन गाँधीजी और उनके साथीयों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिती ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर, 29 अप्रैल, 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया।

 

त्रिपुरी अधिवेशन,1939 में कांग्रेस में आंतरिक संकट आ गया था यह ठीक वैसा ही था जब सूरत अधिवेशन, 1907 में कांग्रेस में दो समूह उभर आकर बँट गए थे। 


1917 के बाद से ही कांग्रेस में वामपंथी विचारधारा का प्रभाव बढ़ने लगा था जिसका परिणाम 1920 में कांग्रेस के संविधान में बदलाव फिर जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे ऊर्जावान नेताओं के उदय से पता चलता है।
जवाहर लाल नेहरू द्वारा पहले ही 1936, 1937 में कांग्रेस अधिवेशनों की अध्यक्षता कर चुके जो कांग्रेस में वामपंथ के उदय का परिणाम थी। उसके बाद सुभाष चंद्र बोस का हरिपुरा में 1938 में कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करना लगातार बड़ी जीत थी। परन्तु इससे कांग्रेस के अंदर दूसरा ग्रुप दक्षिणपंथी लोग लगातार वामपंथ से असहज थे जिसके कारण त्रिपुरी अधिवेशन में संकट आया।

1938 तक कांग्रेस में बिना चुनावों द्वारा राष्ट्रीय अध्यक्ष को चुना जाता था। यह गांधीजी की सलाह पर होता था जिसमे सब एकमत हो जाते थे। परन्तु 1938 के हरिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस दो भागों में बंट जाने से त्रिपुरी अधिवेशन में अध्यक्ष के लिए चुनाव करवाने का निर्णय हुआ था।

कांग्रेस में वामपंथी (Left-wing) और दक्षिणपंथियों ( Right-wing) के बीच यह चुनाव था। जहा वामपंथ का नेतृत्व सुभाष और जवाहर कर रहे थे वही दूसरी ओर गांधीजी, पटेल थे। वास्तविकता में त्रिपुरी अधिवेशन सुभाष चंद्र बोस और गांधीजी के बीच में था। पहले दक्षिणपंथियों की तरफ से मौलाना अब्दूल कलाम आज़ाद को सुभाष चंद्र बोस के सामने खड़ा किया गया परन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपना नाम वपिस ले लिया और पट्टाभि सीतारमैया को सुभाष चंद्र बोस के सामने खड़ा किया गया। चुनाव 29 जनवरी,1939 को हुआ और इसमें सुभाष चंद्र बोस ने पट्टाभि सीतारमैया को हरा दिया। बोस को 1580 मत मिले थे जबकि सीतारमैया को 1377 मत मिले।

1929 की मंदी के बाद साम्यवाद के प्रसार और यूरोप में फासिज़्म के उदय ने औपनिवेशिक अंतर्राष्ट्रीय प्रतीस्पर्धा को कई गुना बड़ा दिया था। जिसके कारण संकीर्ण राष्ट्रवाद और हिंसात्मक राज्यों जैसे जर्मनी, स्पेन, जापान का जन्म हुआ।
इटली में बेनिटो मुसोलिनी के फासिस्ट राष्ट्रवाद और जर्मनी ने नात्सीवाद ने एक बड़े हिंसक राष्ट्रों को जन्म दिया। इन सभी बातो से गाँधी जी भी काफी सक्रिय थे। कालांतर में फासिस्ट राष्ट्रों ने काफी हिंसा और भय को पनपाया। इस क्रम में सुभाष चंद्र बोस का मुसोलिनी की प्रशंसा करना गांधीजी को पसंद नहीं आया ।


त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष की जीत ने गांधीजी को फिर से राजनीतिक सक्रिय बना दिया और वो इससे काफी दुःखी हुए।

◆◆ 31 जनवरी, 1939 को गांधीजी ने एक बयान जारी किया :

“श्री सुभाष चंद्र बोस ने अपने प्रतिद्वंदी डॉ. सीतारमैया पर एक निर्णायक जीत प्राप्त की है। इसे मुझे स्वीकार करना होगा। ….. परन्तु सीतारमैया से ज्यादा यह मेरी हार है..”

सुभाष चंद्र बोस की जीत के बाद गांधीजी का वक्तव्य ने असहयोग का वातावरण बना दिया। गांधीजी भी नहीं चाहते थे की भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के भावी लड़ाई हिंसा और फासिस्टों की मदद से लड़ी जाये क्योंकि उस समय दूसरा विश्वयुद्ध पर पूरा विश्व खड़ा था। सुभाष के त्रिपुरी अधिवेशन के चुने जाने के बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी में असहयोग शुरू हो गया। 22 फ़रवरी, 1939 को 15 में से 13 सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया जिससे कांग्रेस में संकट आ गया।


गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे परन्तु वैचारिक मतभेदों ने यह संकट पैदा कर दिया था। 

◆◆इसके बाद, 3 फ़रवरी, 1939 को गांधीजी के बयान के बाद सुभाष चन्द्र बोस का भी बयान आया :

“..यदि मैं देश के महानतम व्यक्ति का विश्वास प्राप्त नहीं कर सकता तो उनकी जीत निरर्थक है..”

गोविन्द वल्लभ पंत के प्रस्ताव तथा कांग्रेस वर्किंग कमेटी के असहयोग के बाद सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे(अप्रैल 1939 को) कर कांग्रेस के अंदर ही फॉरवर्ड ब्लॉक 
(Forward block) की स्थापना की।

चुनाव के बाद अधिवेशन में पारित प्रस्ताव द्वारा अध्यक्ष को गांधी जी की इच्छानुसार कार्य समिति के सदस्य नियुक्त करने को कहा गया, लेकिन गांधी ने कोई भी नाम सुझाने से इंकार कर दिया।

3 मई,1939 को सुभाष चंद्र बोस ने फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की। अगस्त 1939 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी तथा बंगाल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से सुभाष को हटा दिया गया – साथ ही कांग्रेस के सभी पदों से उन्हें तीन वर्षों के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सुभाष चंद्र बोस की जगह नया कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया।


अन्य महत्वपूर्ण तथ्य :- 

●● 3 सितंबर,1939 को द्वितीय विश्व युद्ध(second World War) में जर्मनी (हिटलर) द्वारा पौलैण्ड पर आक्रमण करने के बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी पर आक्रमण कर दिया।

●● तत्कालीन भारतीय वायसराय लार्ड लिनलिथगो(Lord Linlithgow) ने भारतीयों की अनुमति के बिना यह घोषणा कर दी कि भारत भी जर्मनी के विरुद्ध ब्रिटेन के साथ युद्ध में शामिल है।

●● कांग्रेस कार्यसमिति ने सरकार से युद्ध के उद्देश्यों को स्पष्ट करने की मांग की, परंतु सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।

●● वायसराय ने भारतीयों के सामने युद्ध के बाद औपनिवेशिक स्वराज का पुराना वायदा दुहराया।

●● कांग्रेस शासित प्रदेशों के मंत्रियों ने कांग्रेस कार्य समिति की अनुमति के बाद 15 नवंबर,1939 को मंत्रिमंडलों से त्यागपत्र दे दिया।

●● कांग्रेसी मंत्रियों के त्यागपत्र के बाद मुस्लिम लीग ने दलित नेता भीमराव अंबेडकर(Bhimrao ambedkar) के साथ 22 दिसंबर,1939 को मुक्ति दिवस मनाया।

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