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मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व में महत्वपूर्ण संसोधन

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-01-17 22:29:49

 
मौलिक अधिकारों में संशोधन
         

                                            
 

  • भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा विभिन्न मामलों में निर्णय तथा संसद द्वारा किए गए संशाधनों का परिणाम यह है कि मूल अधिकारों का संशोधन किया जा सकता है।
  • प्रत्येक ऐसे संशोधन में न्यायालय यह विचार करेगा कि क्या मूल अधिकारों के संशोधन से संविधान के किसी आधारिक लक्षण (Basic Feature) का निराकरण या विनाश तो नहीं हो रहा है और यदि ऐसा होता है, तो संशाधन उस विस्तार तक शून्य रहेगा।
  • उच्चतम न्यायालय द्वारा आधारिक लक्षण की काई सूची जारी नहीं की गई है, लेकिन उसके कई निर्णयों से कुछ मूल ढाँचे (Basic Structure) के बारे में पता चलता है|  जैसे- संविधान की सर्वोच्चता, संसदीय प्रणाली, न्यायिक पुनर्विलोकन, पंथ निरपेक्ष, शक्तियों का पृथक्करण आदि।

 

मौलिक अधिकारी की स्थिति


◆◆ पहला संविधान संशोधन (1951) :-इसमें अनुच्छेद 31 द्वारा प्रत्याभूत संपत्ति के अधिकार को सीमित किया गया।

◆◆ शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) :- इस मामले में यह प्रश्न उठाया गया क्या संसद मौलिक अधिकारों का संशोधन कर सकती है? इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 368 में निहित प्रक्रिया के अनुसार संविधान संशोधन, विधि के अंतर्गत नहीं आता, अत: संसद संविधान में संशोधन कर सकता है।

◆◆ गोलकनाथ बनाम पंजाव राज्य (1967) :- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मौलिक अधिकार को संविधान में सर्वोपरि स्थिति प्रदान की गई है। इसलिए संसद अनुच्छेद 368 द्वारा मौलिक अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती है।

◆◆ 24वाँ संविधान संशोधन, (1971) :- यह अधिनियम गोलकनाथ के मामले में उत्पन्न स्थिति के संदर्भ में पारित हुआ। अनुच्छेद 13 एवं 368 में संशोधन करके संविधान में संशोधन करने के संसद के अधिकारों के बारे में सभी प्रकार के संदेहों को दूर किया गया अर्थात् संसद को संविधान के किसी भी उपबंध को (जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं) संशोधित करने का अधिकार होगा।

◆◆ 25 वां संविधान संशोधन :- अनुच्छेद 31 में 31(ग) जोड़ा गया, जिसके अनुसार 39(क) तथा 39( ग) को लागू रहने के लिए अगर अनुच्छेद 14 19 या 31 में कोई कटौती की जाए तो यह मान्य होगा।

◆◆ केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) :- सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान के आधारिक लक्षणों से छेड़छाड़ नहीं कर सकती है। इस निर्णय में संसद ने संविधान के मूल ढाँचे की अवधारणा को स्पष्ट किया था।

◆◆ 42वाँ संविधान संशोधन, (1976) :-इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 368 में खण्ड (4) एवं (5) जोड़कर यह व्यवस्था की गई कि इस प्रकार से किए गए संशोधन को किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है।

 

◆◆ मिनर्वामिल्स बनाम भारत संघ (1980) :- इस मामले में अनुच्छेद 368 खण्ड (4) को असंवैधानिक घोषित किया गया, क्योंकि वह न्यायिक पुनर्विलोकन का विनाश करने के उद्देश्य से बना था। न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान का एक आधारभूत लक्षण है।

 


नीति निर्देशक तत्वों से सम्बंधित सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय निम्नलिखित हैं:-

मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराइराजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं|
केरल शिक्षा विधेयक में न्यायालय ने कहा कि हालाँकि,राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं ,फिर भी अधिकारों की संभावनाओं और दायरे का निर्धारण करते समय न्यायालयों को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को पूरी तरह उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि दोनों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण संबंधों को स्वीकार करना चाहिये और जहाँ तक संभव हो सके दोनों को लागू करने का प्रयास किया जाये| 
25वें संविधान संशोधन,1971 द्वारा नीति निर्देशक तत्वों के महत्त्व में वृद्धि हुई।इसके द्वारा संविधान में अनुच्छेद 31 (ग) जोड़ा गया, जिसमे कहा गया  अनुच्छेद 39(ब) और (स) को लागू करने के लिए लाये गए किसी भी कानून को इस आधार पर अमान्य नहीं ठहराया जा सकेगा कि वह अनुच्छेद 14 या 19 में दिए गए मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है।
 42वें संविधान संशोधन ने अनुच्छेद 31(स) के दायरे को और अधिक विस्तृत कर दिया ताकि सभी नीति निर्देशक तत्वों को समाहित किया जा सके।इसने सभी नीति निर्देशकों को अनुच्छेद 14 और 19 के तहत दिए गए मूल अधिकारों पर अधिमान्यता प्रदान कर दी।
केशवानंद भारती बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नीति निर्देशक तत्व और मूल अधिकार एक दूसरे के पूरक हैं।यह कहा जा सकता है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में उन लक्ष्यों का वर्णन है जिन्हें प्राप्त किया जाना है और मूल अधिकार वे साधन है जिनके माध्यम से उन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता  है।    
मिनर्वामिल्स बनाम भारत संघ मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि 42 वें संविधान संशोधन द्वारा 31(ग) में किया गया संशोधन असंवैधानिक है क्योकि यह संविधान की मूल संरचना को नष्ट करता है।बहुमत से निर्णय लिया गया कि संविधान की नींव भाग 3 और भाग 4 के मध्य संतुलन पर आधारित है।अतः एक पर दूसरे को स्पष्ट महत्व प्रदान करना संवैधानिक सौहार्द्र को नष्ट करना है जोकि संविधान की मूल संरचना है।
अबूकावूर बाई बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में पांच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने कहा कि हालाँकि,राज्य के नीति निर्देशक तत्व बाध्यकारी नहीं हैं फिर भी न्यायालयों को नीति निदेशक तत्वों और मूल अधिकारों के बीच समन्वय स्थापित करने का वास्तविक प्रयास करना चाहिए और दोनों  के मध्य किसी भी प्रकार के संघर्ष से जहाँ तक संभव हो बचा जाये।
उन्नाकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में न्यायालय ने पुनः दोहराया कि मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्व एक दूसरे के पूरक और सहायक हैं और भाग 3 में दिए गए प्रावधानों की व्याख्या प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों के सन्दर्भ में की जानी चाहिए।

संतुलित आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने  और लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के सन्दर्भ में कुछ नीति निर्देशक तत्वों जैसे-भूमि सुधारों को बढ़ावा देना,ग्राम पंचायतों का गठन करना,कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करना, अनुसूचितजाति/जनजाति के कल्याण, अनिवार्य शिक्षा, कामगारों को निर्वाह मजदूरी, श्रमिक कानून और हिन्दू विवाह अधिनियम के कार्यान्वयन का महत्वपूर्ण स्थान है।

अतः,राज्य के नीति निर्देशक तत्व सरकार के लिए निर्देश-पत्र के सामान हैं,जिसमे भारत में सामाजिक व कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए राज्य को कुछ सकारात्मक निर्देश दिए गए हैं।

 

नीति निदेशक तत्व की तरह महत्व रखने वाले अन्य अनुच्छेद :-


◆◆ अनुच्छेद 350 (क) :- प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा देना।

◆◆ अनुच्छेद 351 :- हिन्दी भाषा को प्रोत्साहन देना।

 

संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए नीति निदेशक तत्व :-

◆◆ 42वाँ संविधान संशोधन 1976:- अनुच्छेद 39 (क), अनुच्छेद 39 (च), अनुच्छेद 43 (क), अनुच्छेद 48 (क)।

●●  44वाँ संविधान संशोधन 1978, अनुच्छेद 38 (2)

●● 86 वां संविधान संसोधन 2002 द्वारा अनु़. 45 में 

●● 97 वां संविधान संसोधन द्वारा 2011 में 43 'ख' में सहकारी समिति शब्द जोड़ा गया।

मूल अधिकारों एवं निदेशक सिद्धांतों के मध्य विवाद:- 

मूल अधिकारों को न्यायोचित एवं निदेशक सिद्धांतों को गैर न्यायोचित नाम दिया गया । 
एक तरफ इनको नैतिक बढ़ावा (अनुच्छेद 37) तो दूसरी तरफ दोनों में संवैधानिक मान्यताओं के तहत संघर्ष की स्थिति ।
यह स्थिति संविधान लागू होने के समय से ही है । 
चम्पाकम दोराइराजन मामले (1951) में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि निदेशक सिद्धांत एवं मूल अधिकारों के बीच किसी तरह के संघर्ष में पूर्व की स्थिति प्रभावी रहेगी ।
इसमें घोषणा की गयी कि निदेशक सिद्धांत मूल अधिकारों के पूरक के रूप में निश्चित रूप से लागू होंगे । लेकिन यह भी तय हुआ कि मूल अधिकारों को संसद द्वारा संविधान संशोधन प्रक्रिया के तहत संशोधित किया जा सकता है । 
इसी के फलस्वरूप संसद ने पहला संशोधन अधिनियम (1951), चौथा संशोधन अधिनियम (1955) एवं सत्रहवीं संशोधन अधिनियम (1964) कुछ निर्देशों के साथ लागू किया ।
उपरोक्त परिस्थिति में 1967 में उच्चतम न्यायालय के फैसले में गोलकनाथ मामले से एक व्यापक परिवर्तन हुआ । 
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संसद किसी मूल अधिकार को समाप्त नहीं कर सकती । दूसरे शब्दों में, निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता ।
संसद ने गोलकनाथ मामले (1967) में उच्चतम न्यायालय के फैसले पर 24वें संशोधन अधिनियम (1971) एवं 25वें संशोधन अधिनियम (1971) के जरिए प्रतिक्रिया व्यक्त की । वे संशोधन अधिनियम में घोषणा की गई कि संसद को यह अधिकार है कि वह संवैधानिक संशोधन अधिनियम के तहत मूल अधिकारों को समाप्त करे या कम कर दे ।

25वें संशोधन अधिनियम के तहत एक नया अनुच्छेद 31C को जोड़ा गया जिसमें निम्नलिखित व्यवस्थाएं रखी गईं:


1. कोई भी कानून जिसमें सामाजिक निदेशक सिद्धांत निहित हैं, उन्हें मूल अधिकारों के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 31 के संदर्भ में अवैध नहीं किया जा सकता ।
2. इस तरह की नीतियों को प्रभावी बनाने के लिए कोई कानूनी घोषणा नहीं है ताकि इन्हें प्रभावी न बनाने के लिए किसी अदालत में इन पर प्रश्न उठाया जा सके ।

केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त दूसरी व्यवस्था के तहत घोषणा की । इसमें कहा गया कि अनुच्छेद 31C न्यायिक समीक्षा, जो कि संविधान की मुख्य विशेषता है, के आधार पर असंवैधानिक एवं अवैध है इसलिए इसे दूर नहीं किया जा सकता । हालांकि अनुच्छेद ट की उपरोक्त प्रथम व्यवस्था को संवैधानिक एवं वैध माना गया है ।

बाद में 42वें संविधान अधिनियम (1976) में उपरोक्त अनुच्छेद 31C की पहली व्यवस्था की उम्मीदों को विस्तारित किया गया । इसमें कानूनी सुरक्षा को छोड़कर एवं किसी भी निदेशक सिद्धांत को विशेष रूप से उन्हें नहीं जिनकी विशेष चर्चा अनुच्छेद 39(b) एवं 39(c) में है ।

दूसरे शब्दों में, वे संशोधन अधिनियम में निदेशक सिद्धांतों की प्राथमिकता एवं सर्वोच्चता को मूल अधिकारों पर प्रभावी बनाया गया, उन अधिकारों पर जिनका उल्लेख अनुच्छेद 14,19 एवं 31 में है । हालांकि, इस विस्तार को उच्चतम न्यायालय द्वारा मिनरवा मिल्स मामले (1980) में असंवैधानिक एवं अवैध घोषित किया गया ।

इसका तात्पर्य है कि निदेशक सिद्धांतों को एक बार फिर मूल अधिकारों का पूरक बताया गया लेकिन अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 19 द्वारा स्थापित मूल अधिकारों को अनुच्छेद 39(b) और 39(c) में बताए गए निदेशक सिद्धांतों का पूरक माना गया । आगे अनुच्छेद 31 को 44वें संशोधन अधिनियम (1978) द्वारा समाप्त कर दिया गया ।

मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था भी दी कि ”भारतीय संविधान मूल अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन के रूप में है । ये आपस में सामाजिक क्रांति के वादे पर जुड़े हुए हैं । ये एक रथ के दो पहियों के समान हैं तथा एक-दूसरे पर लादने से संविधान की मूल भावना बाधित होती है । मूल भावना और संतुलन संविधान के बुनियादी ढांचे की विशेषता के लिए आवश्यक है । निदेशक सिद्धांतों के तय लक्ष्यों को मूल अधिकारों को प्राप्त किए बगैर प्राप्त नहीं किया जा सकता ।”

इस तरह वर्तमान स्थिति में मूल अधिकार निदेशक सिद्धांतों पर उच्चतर हैं फिर भी इसका मतलब यह नहीं है कि निदेशक सिद्धांतों को लागू नहीं किया जा सकता । संसद, निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है । इस संशोधन में संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुँचना चाहिए या उसे समाप्त नहीं होना चाहिए ।

●● अनु़च्छेद 31:- 

इस अनुच्छेद में सम्पति का अधिकार बताया गया था | इस अनुच्छेद 31 में अनुच्छेद 31(A) और 31(B) का भी वर्णन किया जाता है। हालांकि सम्पति का अधिकार जो एक मौलिक अधिकार था, को 44वें संशोधन अधिनियम  के द्वारा संविधान के भाग XIl के अनुच्छेद 300(A) में डाल दिया गया है अब सम्पत्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार न होकर संवैधानिक अधिकार है।

भारत के नागरिकों को मूल संविधान में सम्पति का अधिकार दिया गया है तथा प्रदान किया है | प्रथम संशोधन अधिनियम 1951 द्वारा अनुच्छेद 31(A) और 31(B) अनुच्छेद दोनों को अनुच्छेद 31 में सम्मिलित तथा जोड़ा गया है| 

अनुच्छेद 31(A) के तहत यह निर्णय किया गया है कि कोई भी राज्य का कोई भी कानून जमींदारी प्रथा के उन्मूलन करने के लिए काम करें तो यह एक वैध होगा | 

अनुच्छेद 31(B) 9वीं अनुसूची में संविधान के साथ जोड़ी गयी है तथा इसमें जमींदारी प्रथा के उन्मूलन कानून रखे गए है | 
25वें संशोधन अधिनियम के द्वारा अनुच्छेद 31 में एक खण्ड (c) है तथा अनुच्छेद 31 में जोड़ा गया है जिसमें प्रावधान नीति-निदेशक तत्त्व 39 (B) एवं (C) को लागू करने हेतु कुछ अनुच्छेद जैसे अनुच्छेद 14, 19 और 31 के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने पर न्यायालय में किसी भी प्रकार की चुनौती भी नहीं दी जा सकती है।

हालांकि सम्पति का अधिकार जो एक मौलिक अधिकार था, को 44वें संशोधन अधिनियम  के द्वारा संविधान के भाग XIl के अनुच्छेद 300(A) में डाल दिया गया है अब सम्पत्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार न होकर संवैधानिक अधिकार है। इसके उपरांत इससे संबंधित विवाद समाप्त हुए।


                      

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