इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच ये समझौता हुआ है, जिसका नाम अब्राहम अकॉर्ड है।
अब्राहम अकॉर्ड पर 15 सितंबर को वाशिंगटन में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मौजूदगी में हस्ताक्षर हुए। इस दौरान इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, यूएई के विदेश मंत्री अब्दुल्ला बिन जायद और बहरीन के विदेश मंत्री अब्दुल लतीफ अल जयानी मौजूद रहे।
पिछले 26 साल में ये पहला अरब-इजरायल समझौता है।
गौरतलब है कि इससे पहले वर्ष 1994 में इज़राइल और जॉर्डन के बीच शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
अमेरिकी राष्ट्रपति के अनुसार, यह समझौता पूरे अरब क्षेत्र में व्यापक शांति स्थापना के लिये एक नींव का काम करेगा, हालाँकि इस समझौते में इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष के संदर्भ में कोई बात नहीं की गई है।
ध्यातव्य है कि 13 अगस्त, 2020 को इज़राइल-यूएई शांति समझौते की घोषणा के बाद 11 सितंबर को बहरीन-इज़राइल समझौते की घोषणा की गई थी।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने अन्य अरब देशों के भी इस समझौते में शामिल होने के संकेत दिये हैं।
13 अगस्त, 2020 को इस्राइल-संयुक्त अरब अमीरात के मध्य शांति समझौते की घोषणा की गई।
11 सितंबर, 2020 को इस्राइल-बहरीन के मध्य शांति समझौते की घोषणा की गई।
वर्ष 1979 में मिस्र प्रथम अरब राज्य था, जिसने इस्राइल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके बाद जॉर्डन ने 1994 में इजरायल से डील की थी।
इज़राइल-संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल-बहरीन शांति समझौता :-
इस समझौते के अनुसार, यूएई और बहरीन द्वारा इज़राइल में अपने दूतावास स्थापित करने के साथ पर्यटन, व्यापार, स्वास्थ्य और सुरक्षा सहित कई क्षेत्रों में आपसी सहयोग को बढ़ावा दिया जाएगा।साथ ही इस समझौते के तहत इज़राइल ने वेस्ट बैंक की बस्तियों को इज़राइल में जोड़ने की अपनी योजना को ‘स्थगित’ कर दिया है।
इज़राइल के प्रधानमंत्री के अनुसार, तीनों देशों द्वारा कोरोनावायरस की महामारी से निपटने के लिये सहयोग प्रारंभ कर दिया गया है।
अमेरिकी राष्ट्रपति के अनुसार, इस समझौते के माध्यम से पूरी दुनिया के मुसलमानों के लिये इज़राइल में ऐतिहासिक स्थलों का दौरा करने और जेरूसलम में अल-अक्सा मस्जिद (इस्लाम में तीसरा सबसे पवित्र स्थल) में शांतिपूर्वक प्रार्थना करने का रास्ता साफ होगा।
इसके कारण:-
इज़राइल के साथ अरब देशों की बढ़ती नज़दीकी का एक बड़ा कारण ईरान से इन देशों की शत्रुता को भी माना जा रहा है।
हाल के कुछ वर्षों में खाड़ी देशों और इज़राइल के बीच संबंधों में कुछ सुधार देखने को मिला था, ध्यातव्य है कि इसी माह सऊदी अरब ने यूएई और इज़राइल के बीच विमान सेवाओं को अपने वायु क्षेत्र से होकर जाने की अनुमति दी थी।
इज़राइल तथा अरब देशों के बीच इस समझौते के पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण रही है।
अरब-इज़राइल विवाद :-
वर्ष 1917 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने ऑटोमन साम्राज्य से फिलिस्तीन को अपने कब्जे में लिया और 2 नवंबर, 1917 की बॅल्फोर घोषणा (Balfour Declaration) के तहत यहूदियों को इस स्थान पर एक ‘राष्ट्रीय घर’ (National Home) देने का वचन दिया।
नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र संकल्प-181 के तहत फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्य में विभाजित कर दिया गया तथा जेरूसलम को अंतराष्ट्रीय नियंत्रण में रखा गया।
इस विभाजन में पूर्वी जेरूसलम सहित वेस्ट बैंक का हिस्सा जॉर्डन के पास और गाजापट्टी का क्षेत्र मिस्र (Egypt) के पास चला गया, इसमें इज़राइल की सेना से बचते हुए लगभग 760,000 फिलिस्तीनी शरणार्थियों ने वेस्ट बैंक, गाजापट्टी तथा अन्य अरब देशों में जाकर शरण ली।
14 मई, 1948 को इज़राइल की स्थापना हुई जिसके बाद लगभग 8 महीनों तक इज़राइल और अरब देशों में युद्ध चला।
वर्ष 1967 की प्रसिद्ध ‘सिक्स डे वॉर’ (Six-Day War) के दौरान इज़राइल ने जॉर्डन, सीरिया और मिस्र को परास्त कर पूर्वी यरुशलम, वेस्ट बैंक, गाजा पट्टी और गोलन हाइट्स (Golan Heights) पर कब्जा कर लिया।
वर्ष 1967 में अरब देशों ने खार्तूम बैठक में ‘तीन नकारात्मक सिद्धांत (Three Nos)’ का प्रस्ताव पेश किया जिसके अंतर्गत ‘इज़राइल के साथ कोई शांति नहीं, इज़राइल के साथ कोई वार्ता नहीं और इज़राइल को किसी प्रकार की मान्यता नहीं’ का प्रावधान किया गया।
हालाँकि इस सिद्धांत से हटते हुए वर्ष 1979 में मिस्र ने तथा जॉर्डन ने वर्ष 1994 में इज़राइल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर लिया था।
फिलिस्तीन की प्रतिक्रिया: -
फिलिस्तीन ने इस समझौते का विरोध किया है, बहरीन द्वारा इस समझौते की घोषणा के बाद फिलिस्तीनी नेतृत्त्व ने इसे वापस लेने की मांग की थी।
इस समझौते के बाद गाजा और वेस्ट बैंक में फिलिस्तीनी कार्यकर्त्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया।
एक सर्वेक्षण के अनुसार, 86% फिलिस्तीनी लोगों ने का मानना है कि यह समझौता इज़राइल के हितों को पूरा करता है फिलिस्तीन के नहीं।
प्रभाव: -
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों को उम्मीद है कि इस समझौते के माध्यम से एक राजनेता के रूप में ट्रंप की छवि मज़बूत होगी।
गौरतलब है कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में अब लगभग दो माह से भी कम का समय बचा है और अब तक चुनाव प्रचार में कोरोनावायरस, नस्लभेद और अर्थव्यवस्था से संबंधित मुद्दे ही हावी रहें हैं, जबकि विदेशी नीति की कोई बड़ी भूमिका नहीं रही है।
विशेषज्ञों के अनुसार, यह समझौता अरब क्षेत्र में सक्रिय युद्धों को नहीं समाप्त करेगा परंतु यह दशकों से चल रही शत्रुता के बाद एक व्यापक अरब-इज़राइल मैत्री का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
इज़राइल के प्रधानमंत्री ने इस समझौते को नई सुबह की शुरुआत बताया है, यह समझौता इज़राइली प्रधानमंत्री को देश की स्थानीय राजनीति में अपनी छवि मज़बूत करने में सहायता प्रदान कर सकता है।
यूएई के विदेश मंत्री ने इस समझौते को क्षेत्र की शांति के लिये महत्त्वपूर्ण बताया है, उनहोंने कहा कि यह समझौता राजनीतिक लाभ की भावना से परे है और शांति के अलावा और कोई भी विकल्प विनाश, गरीबी और मानव पीड़ा को ही बढ़ावा देगा।
यह समझौता यूएई को अपनी रूढ़िवादी छवि से बाहर आने में सहायता करेगा।
बहरीन के विदेश मंत्री ने इज़राइल और बहरीन के बीच हुए समझौते को ‘वास्तविक और स्थायी सुरक्षा तथा समृद्धि की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम बताया है।
सऊदी अरब की भूमिका : -
विशेषज्ञों के अनुसार, सऊदी अरब की सहमति के बगैर बहरीन इस समझौते के लिये आगे नहीं बढ़ सकता।
सऊदी अरब पर इज़राइल के साथ संबंधों को सामान्य करने का दबाव के बावज़ूद वह इस्लाम में सबसे पवित्र स्थल का संरक्षक होने की वजह से वह अभी इस समझौते में शामिल नहीं हो सकता।
हालाँकि बहरीन को इज़राइल के साथ समझौते की अनुमति देकर सऊदी अरब अमेरिकी राष्ट्रपति से अपने अच्छे संबंधों को बनाए रख सकेगा।
गौरतलब है कि वर्ष 2011 में बहरीन में उठे जन-विद्रोह को नियंत्रित करने के लिये सऊदी अरब ने कुवैत और यूएई के साथ अपनी सेना भेजी थी।
इसके साथ ही वर्ष 2018 में सऊदी अरब ने बहरीन को 10 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराई थी।
चुनौतियाँ:-
इस समझौते में फिलिस्तीन समस्या पर कोई बात नहीं की गई, जिससे भविष्य में फिलिस्तीन का संकट और भी बढ़ सकता है।
इस समझौते पर इज़राइल में व्यापक समर्थन देखने को मिला है परंतु इज़राइल में ऐसी चिंताएँ बनी हुई हैं कि इस समझौते के परिणामस्वरूप बहरीन और यूएई के लिये अमेरिका से परिष्कृत हथियारों की खरीद संभव हो सकती है, जो क्षेत्र में इज़राइल की सैन्य बढ़त को प्रभावित कर सकता है।
इस बात का भी अनुमान है कि बहरीन और यूएई में इस समझौते को इज़राइल की तरह व्यापक जन-समर्थन नहीं प्राप्त हुआ है, गौतलब है कि दोनों देशों ने इस समझौते के लिये अपने राज्य या सरकार के प्रमुखों को नहीं बल्कि विदेश मंत्रियों को भेजा था।
बहरीन के शिया बाहुल्य विपक्षी समूह ने इस समझौते का विरोध किया है, गौरतलब है कि बहरीन में शिया मुस्लिमों की आबादी अधिक है परंतु बहरीन के वर्तमान राजा एक सुन्नी मुसलमान हैं।
इस समझौते से अरब देशों के बीच शिया और सुन्नी का मतभेद और अधिक बढ़ सकता है।
भारत पर प्रभाव: -
हाल के वर्षों में भारत और खाड़ी के देशों के संबंधों में बहुत सुधार देखने को मिला है, साथ ही इज़राइल के साथ भी रक्षा सहित कई अन्य क्षेत्रों में भारत ने बड़ी साझेदारी की है।
खाड़ी क्षेत्र के देश, ऊर्जा (खनिज तेल) और प्रवासी कामगारों के लिये रोज़गार की दृष्टि से भारत के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं, इस समझौते से क्षेत्र में स्थिरता के प्रयासों को बल मिलेगा जो भारत के लिये एक सकारात्मक संकेत है।
इस समझौते से खाड़ी क्षेत्र के देशों में भारत की राजनीतिक पकड़ और अधिक मज़बूत होगी।
अतः इस क्षेत्र में स्थायी शांति के लिये शिया और सुन्नी तथा फारसियों (Persian) एवं अरब के बीच संतुलन को बनाए रखना बहुत ही आवश्यक होगा।
हाल के वर्षों में अरब देशों में बड़े आर्थिक और राजनीतिक बदलाव देखने को मिले हैं, वर्तमान में क्षेत्र के अधिकाँश देशों ने खनिज तेल और इस्लामिक कट्टरपंथ से हटकर एक आधुनिक तथा प्रगतिशील देश के रूप में स्वयं को प्रकट करने का प्रयास किया है।
भारत को इस क्षेत्र के उभरते बाज़ार में अपने हस्तक्षेप को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये।