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मौद्रिक नीति

By - Admin

At - 2024-01-23 11:05:08

मौद्रिक नीति

 

 

 

  • मौद्रिक नीतियों के माध्यम से किसी देश की केंद्रीय बैंक उस देश की अर्थव्यवस्था में मुद्रा के प्रवाह यानी की तरलता को नियंत्रित करती है। इसे जारी करना किसी भी देश के केंद्रीय बैंक की जिम्मेदारी होती है।

 

मौद्रिक नीति के मात्रात्मक नियंत्रण विधियां :-

1. आरक्षी अनुपात

A. नगद आरक्षी अनुपात (CRR – Capital Reserve Ratio)

B. वैधानिक तरलता अनुपात (SLR – Statutory liquidity ratio)

 

2. खुली बाजार की प्रक्रियाएं – (Open market Operation)

3. बैंक दर (Bank Rate)

4. रेपो दर (Repo Rate)

5. रिवर्स रेपो दर (Reverse Repo Rate)

6. सीमांत स्थाई सुविधा (Marginal Standing Facility)

 

 

नकद आरक्षी अनुपात – CRR- Capital Reserve Ratio

  • यह मौद्रिक नीति के मात्रात्मक उपकरण का सबसे प्रभावी उपकरण है| नगद आरक्षी अनुपात को नगद कोष अनुपात भी कहते है। यह बैंकों के कुल जमा राशि का वह हिस्सा होता है, जिसे किसी बैंक को अनिवार्य रूप से भारत की केंद्रीय बैंक आरबीआई के पास जमा रखना होता है।
  • इस राशि का उपयोग ना तो बैंक कर सकती है और ना ही आरबीआई ही कर सकती है। एक तरीके से यह राशि अर्थव्यवस्था से बिल्कुल बाहर कर दी जाती है।
  • प्रारंभ में सीआरआर के दर पर एक परिसीमन लागू होता था। अर्थात केन्द्रीय बैंक इसे न तो 3 % से नीचे ला सकती थी एवं न ही 15 % के ऊपर ले जा सकती थी, परंतु आरबीआई संशोधन अधिनियम 2006 के माध्यम से इस परिसीमन को खत्म कर दिया गया। अब सीआरआर के दर को अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिहाज से आरबीआई कितना भी नीचे और ऊपर ले जा सकती है।
  • यदि मुद्रास्फीति के आंकड़ों से यह स्पष्ट हो कि अर्थव्यवस्था में तरलता ज्यादा है और इसे कम करने की आवश्यकता है तब आरबीआई नगद आरक्षी अनुपात या नगद कोष अनुपात को बढ़ा कर बैंकों की जमा राशि में से अतिरिक्त धनराशि निकाल सकती है।
  • यदि सीआरआर में बढ़ोतरी हो जाए तब ऐसे में बैंकिंग व्यवस्था में तरलता कम होगी तथा मांग में कमी उत्पन्न होगी। इससे मुद्रा स्फीति नीचे आएगी लेकिन आर्थिक समृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
  • इससे भिन्न यदि सीआरआर की दर में कमी की जाए तब इससे बैंकिंग व्यवस्था में तरलता बढ़ेगी जिससे उपभोक्ता की ओर ऋण का प्रभाव बढ़ेगा। इससे अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी तथा बड़े हुए उत्पादन के कारण आर्थिक संवृद्धि सुनिश्चित होगी। सीआरआर की गणना 14 दिन में की जाती है। इसकी गणना 14 दिन की औसत जमा राशि पर होती है।

 

 

वैधानिक तरलता अनुपात ( Statutory liquidity ratio )

 

  • वैधानिक तरलता अनुपात को सांविधिक तरलता अनुपात भी कहते है। यह बैंकों के कुल जमा राशि का एक निश्चित अनुपात होता है जिसे बैंक अलग हटाकर अपने पास ही रखती हैं लेकिन इसका प्रयोग आम उपभोक्ता एवं निवेशक को कर्ज के रूप में प्रदान करने के उद्देश्य से नहीं कर सकती हैं।
  • एसएलआर के रूप में रखी जाने वाली धनराशि को बैंक नगद, सोने और सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में रख सकते हैं। चूंकि सरकारी प्रतिभूतियां ब्याज के रूप में बैंकों को एक निश्चित लाभ सुनिश्चित करवाती हैं इसीलिए बैंक अपनी एसएलआर सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में ही रखना पसंद करते हैं।

 

  • प्रारंभ में वैधानिक तरलता अनुपात या संविधिक तरलता अनुपात पर भी परिसीमन लागू होता था। आरबीआई इसे न तो 40 % के ऊपर ले जा सकती थी एवं न ही 25 % से नीचे ला सकती थी, परंतु आरबीआई संशोधन अधिनियम 2006 के अंतर्गत इस परिसीमन को खत्म कर दिया गया। अब आरबीआई इसे अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिहाज से ऊपर नीचे ले जा सकती है।

 

  • क्योंकि सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश की गई धनराशि एवं सोने के रूप में निवेश की गई धनराशि अंततः अर्थव्यवस्था में ही चली जाती है, यह अर्थव्यवस्था में तरलता को नियंत्रित करने की एक उचित उपकरण नहीं बन पाती है परंतु यह अर्थव्यवस्था में ऋण दिशा को तय कर देती है।

 

  • यदि एसएलआर की दर ज्यादा हो तो ज्यादा से ज्यादा धनराशि सरकार की ओर ऋण के रूप में प्रवाहित होती है जबकि एसएलआर की दर कम हो तो अधिक से अधिक धनराशि आम उपभोक्ता एवं निवेशकों की ओर प्रवाहित होती है।

 

  • एसएलआर की गणना भी 14 दिनों पर की जाती है। सीआरआर तथा एसएलआर को सम्मिलित रूप से आरक्षी अनुपात कहते हैं। यह दोनों न केवल मौद्रिक नीति के उपकरण हैं बल्कि भारत की बैंकिंग व्यवस्था को भी सुरक्षित बनाती हैं।

 

मौद्रिक नीति के मात्रात्मक उपकरण के रूप में खुले बाजार की प्रक्रिया (Open Market Operation)

 

  • इसके अंतर्गत आरबीआई सरकारी प्रतिभूतियों को बेचने एवं वापस खरीदने का कार्य करती है। यहां सरकारी प्रतिभूतियां बिल तथा बौण्ड दोनों ही प्रारूपों में बेची जाती हैं।
  • खुली बाजार की प्रक्रिया के अंतर्गत जो प्रतिभूतियां बेची जाती है वह बैंकों के एसएलआर से अलग होती है‌ ‌। अतः इन प्रतिभूतियों को खरीदना बैंकों के लिए अनिवार्य नहीं होता है। प्रतिभूति की खरीदारी वहीं बैंक करते हैं जिनके पास अधिशेष होता है एवं जो खरीदने के इच्छुक होते हैं।
  • जब अर्थव्यवस्था में तरलता ज्यादा होती है तब आरबीआई ज्यादा से ज्यादा प्रतिभूतियों को बेचकर अतिरिक्त धनराशि सोख लेती है। इससे भिन्न जब अर्थव्यवस्था में अथवा बैंकिंग व्यवस्था में तरलता की कमी होती है तब ऐसे में आरबीआई प्रतिभूतियों को वापस खरीद कर बैंकिंग व्यवस्था में तरलता सुनिश्चित करती है।
  • जब आरबीआई प्रतिभूतियां बेचकर तरलता कम करने का प्रयास करती है तब इसे संकुचन वादी खुली बाजार की प्रक्रिया कहते हैं। जब आरबीआई प्रतिभूतियों को वापस खरीद कर बैंकिंग व्यवस्था में तरलता सुनिश्चित करती है तब इसे प्रसारणवादी खुली बाजार की प्रक्रिया कहते हैं।
  • खुली बाजार की प्रक्रिया से ही मिलती जुलती एक अन्य प्रक्रिया है जिसे मार्केट स्टेबलाइजेशन स्कीम कहते हैं। इस व्यवस्था को भारत में आरबीआई ने 2004 में लागू किया था, परंतु विमुद्रीकरण के उपरांत इस व्यवस्था का प्रयोग आरबीआई ने पुनः किया।

 

मार्केट स्टेबलाइजेशन स्कीम

  • इसके अंतर्गत आरबीआई बैंकिंग व्यवस्था से अतिरिक्त धनराशि सोख कर ना केवल अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाती है बल्कि वह बैंकों को क्षति भी नहीं पहुंचने देती है। विमुद्रीकरण के उपरांत बैंकिंग व्यवस्था में जमा राशि के रूप में अतिरिक्त धनराशि पहुंचे।
  • यदि इस अतिरिक्त धनराशि का प्रयोग बैंक किसी भी ग्राहक को ऋण प्रदान करने के उद्देश्य से करते तब इससे बैंकिंग व्यवस्था में जोखिम बढ़ती। अतः बैंकों से इस धन राशि को सोखना अनिवार्य था। साथ ही यह भी अनिवार्य था कि बैंकिंग व्यवस्था से सोखे गए धनराशि पर बैंकों को ब्याज की भी प्राप्ति हो अतः इस उद्देश्य से मार्केट स्टेबलाइजेशन स्कीम का प्रयोग किया गया।
  • मार्केट स्टेबलाइजेशन स्कीम के अंतर्गत आरबीआई भारत सरकार से मार्केट स्टेबलाइजेशन सिक्योरिटी (प्रतिभूति) प्राप्त करती है और इन्हे बैंकों को बेचती है। इसके द्वारा बैंक से अधिशेष जमा राशि सोख लिया जाता है। परंतु आरबीआई इस धनराशि को भारत सरकार को ऋण के रूप में उपलब्ध नहीं कराती है। वह धनराशि आरबीआई अपने पास रख लेती है एवं बैंकों को अपने संसाधन से ब्याज उपलब्ध कराती है।

 

बैंक दर (Bank Rate)

 

  • यह वह ब्याज दर है जिस पर बैंक आरबीआई से लंबी अवधि का ऋण प्राप्त करते रहे हैं।
  • लंबी अवधि का तात्पर्य 90 दिनों से ज्यादा की परिपक्वता की है। जब आरबीआई बैंक दर पर बैंकों को लंबी अवधि का ऋण प्रदान करती थी तब उसके बदले वह बैंकों से सरकारी प्रतिभूतियां गिरवी रखवाती थी। यह प्रतिभूतियां बैंकों के एसएलआर का हिस्सा नहीं हो सकती थी एवं जो प्रतिभूतियां गिरवी रखी जाती थी उनका मूल्य लिए गए ऋण के 105 % के बराबर होती थी।
  • ऐसी स्थिति में यदि आरबीआई बैंक दर बढ़ा दे, तब बैंकों के लिए लंबी अवधि का ऋण प्राप्त करना महंगा हो जाता था अतः आम उपभोक्ता को ऋण प्रदान करने की प्रक्रिया में बैंक भी ब्याज दर बढ़ा देती थी जिससे उपभोक्ता ऋण लेने से कतराता था एवं उपभोग नीचे आता था , परंतु वर्ष 1999 में अंतरिम रूप से एवं वर्ष 2000 में स्थाई रूप से जब आरबीआई ने लिक्विडिटी एडजस्टमेंट फैसिलिटी एलएएफ की व्यवस्था लागू की तब आरबीआई ने बैंक दर पर बैंकों को ऋण प्रदान करना बंद कर दिया।
  • अतः बैंक दर के अंतर्गत अब आरबीआई प्रतिभूतियां गिरवी नहीं रखती है। इसलिए कहा जा सकता है कि मौद्रिक नीति के एक उपकरण के रूप में बैंक दर की भूमिका खत्म हो चुकी है| वर्तमान में बैंक दर वह आधार दर है जिस पर एसएलआर अथवा सीआरआर ना रख पाने पर आरबीआई बैंकों पर जुर्माना लागू करती है।

 

 

रेपो रेट – (Repo Rate)

 

  • रेपो रेट वह ब्याज दर है जिस पर एक बैंक आरबीआई से कम अवधि का ऋण प्राप्त करती है। समान्यतः यहां ऋण की परिपक्वता की अवधि अधिकतम 90 दिनों की होती है परंतु विभिन्न देशों में यह अवधि अलग अलग हो सकती हैं।

 

  • इस पूरी व्यवस्था को दो हिस्सों में वर्गीकृत किया गया है:-

 1. overnight repo

2.  term repo.

 

 

  • ओवरनाइट रेपो के अंतर्गत ऋण की परिपक्वता की अवधि मात्र 24 घंटे की होती है, जबकि टर्म रेपो के अंतर्गत ऋण की परिपक्वता की अवधि 7 दिन, 14 दिन, 21 दिन, 28 दिन इत्यादि की होती है। दोनों के अंतर्गत ऋण की धनराशि कम से कम ₹10 करोड़ की होनी चाहिए एवं यह ₹10 करोड़ से ऊपर ₹5 करोड़ के गुणज में ही बढ़ेगी।

 

  • overnight repo के अंतर्गत एक बैंक अपने कुल जमा राशि का 0.25 % से ज्यादा की धनराशि ऋण के रूप में प्राप्त नहीं कर सकती है जबकि टर्म रेपो के अंतर्गत एक बैंक अपने कुल जमा राशि का 0.75 % से ज्यादा की धनराशि ऋण के रूप में प्राप्त नहीं कर सकती है।

 

  • रेपो दर पर ऋण लेने की प्रक्रिया में बैंकों को आरबीआई के पास प्रतिभूतियां गिरवी रखनी होती है। गिरवी रखी गई प्रतिभूति का मूल्य लिए गए ऋण के 105 % होनी चाहिए परंतु यह प्रतिभूतियां बैंकों के एसएलआर का हिस्सा नहीं हो सकती है।

 

  • यदि रेपो दर में बढ़ोतरी हो जाए तब बैंकों के लिए कम अवधि का ऋण प्राप्त करना महंगा हो जाएगा अतः बैंक भी आम उपभोक्ता को बढ़े हुए दर पर ऋण प्रदान करेंगे। ऐसे में उपभोग नीचे आएगा एवं इन्फ्लेशन में कमी आएगी।

 

  • इससे भिन्न यदि रेपो दर में कमी हो जाए तब बैंकों के लिए कम अवधि का ऋण प्राप्त करना सस्ता हो जाएगा अतः वे उपभोक्ता को भी सस्ते दर पर ऋण उपलब्ध कराएंगे इससे मांग एवं आर्थिक समृद्धि में बढ़ोतरी होगी।

 

  • रेपो का अर्थ है री पर्चेज ऑपरेशन। अर्थात जब एक बैंक आरबीआई के पास प्रतिभूतियां गिरवी रखती है तब वह यह वादा करती है की एक तय तिथि पर ब्याज दर के साथ वह बैंक गिरवी रखी गई उन प्रतिनिधियों को वापस खरीदेगी।

 

रिवर्स रेपो दर  (Reverse Repo Rate)

 

  • यह वह ब्याज दर है जिस पर आरबीआई वाणिज्यिक बैंकों से कम अवधि का ऋण प्राप्त करती है।
  • Repo और Reverse repo दोनों सम्मिलित रूप से आरबीआई के लिक्विडिटी एडजस्टमेंट फैसिलिटी को संबोधित करते हैं।
  • इस व्यवस्था के लागू होने के उपरांत आरबीआई प्रतिदिन एक निश्चित धनराशि उन बैंकों से ऋण के रूप में प्राप्त करती है जिनके पास अधिशेष है एवं उन बैंकों को रिवर्स रेपो दर पर ब्याज अदा करती है। यही धनराशि आरबीआई रेपो दर पर उन बैंकों को ऋण के रूप में उपलब्ध कराती है जिन्हें कम अवधि के लिए ऋण की आवश्यकता हो।
  • यदि रिवर्स रेपो दर में बढ़ोतरी हो जाए तब ऐसे में बैंकों के लिए आरबीआई को ऋण प्रदान करना ज्यादा आकर्षक हो जाता है अतः जो धनराशि कम दर पर ऋण के रूप में उपभोक्ता तक जाती वह आरबीआई की ओर प्रवाहित होती है।
  • क्योंकि रेपो दर रिवर्स रेपो दर से हमेशा उच्च होती है आरबीआई इस अंतर के कारण लाभ बना लेती है। इस लाभ का एक हिस्सा आरबीआई अपने आपातकालीन कोष में रखती है जिसका प्रयोग वह उन बैंकों के पुनर्गठन के लिए करती है जो की प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियों के कारण दिवालिया हो जाते हैं।
  • इस लाभ का प्रयोग आरबीआई मार्केट स्टेबलाइजेशन स्कीम के अंतर्गत बैंकों को ब्याज प्रदान करने के उद्देश्य से भी करती है शेष धनराशि का प्रयोग आरबीआई भारत सरकार को लाभांश प्रदान करने के उद्देश्य से करती है।

 

सीमांत स्थाई सुविधा ( Marginal Standing Facility)

 

  • इस उपकरण को आरबीआई ने 9 मई 2011 को लागू किया। इसके अंतर्गत भी एक बैंक आरबीआई से 24 घंटों के लिए ऋण प्राप्त कर सकती है। परंतु यह सुविधा भी मात्र वाणिज्यिक बैंकों को ही उपलब्ध है क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक एवं सहकारी बैंकों को यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।
  • एक बैंक सीमांत स्थाई सुविधा के अंतर्गत अपने कुल जमा राशि का 2.5% से ज्यादा की धनराशि ऋण के रूप में प्राप्त नहीं कर सकती है।
  • सीमांत स्थाई सुविधा के अंतर्गत ऋण प्राप्त करने की प्रक्रिया में एक बैंक उन प्रतिभूतियों को भी गिरवी रख सकती है जो कि उसके एसएलआर का हिस्सा हो।
  • मौद्रिक नीतियों में रेपो दर एक आधार का कार्य करती है इसी पर बैंक दर सीमांत स्थाई सुविधा एवं रिवर्स रेपो दर आधारित होते हैं। वर्तमान नियमों के अंतर्गत बैंक दर एवं एमएसएफ रेपो दर से 0.25% ज्यादा होंगे जबकि रिवर्स रेपो दर 0.25% कम होगी।

 

 

                                 

 

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