सार्वजनिक व्यापारिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण की असफलताओं को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने 14 अगस्त, 1991 को देश की कार्यप्रणाली एवं वित्तीय प्रणाली की संरचना में सुधार करने के लिए आवश्यक सुझाव देने हेतु श्री एम. नरसिम्हम की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, जिसने अपनी रिपोर्ट 20 नवम्बर, 1991 को प्रस्तुत की ।
समिति ने व्यापारिक बैंकों की गिरती लाभदायकता के लिए सार्वजनिक दायित्वों से बंधे होने के कारण गिरती ब्याज से आय निरन्तर बढ़ती हुई बैंकों की परिचालन लागत को उत्तरदायी माना है । समिति ने बैठक प्रणाली में राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप को भी बैंकों की घटती लाभदायकता के लिए दोषी माना है समिति की मुख्य सिफारिशों को देश के बैंकिंग ढाँचे में आधारभूत परिवर्तन करने, बैंकों को अपने क्रियाकलापों में पूर्ण स्वायत्तता देने, बैंक के लिए सर्वाधिक तरलता अनुपात को धीरे-धीरे घटाकर 25 प्रतिशत तक लाने, रियायती ब्याज दरों को समाप्त करने साख हेतु प्राथमिक लक्ष्यों के पुन निर्धारण करने तथा इसे कुल साख के 10 प्रतिशत तक सीमित करने की सिफारिश की गई है ।
समिति ने पूंजी बाजार में त्वरित एवं प्रभावपूर्ण उदारीकरण की सिफारिश की है । विकास से सम्बद्ध वित्तीय संस्थाओं के संबंध में यह कहा गया है कि इन संस्थाओं को प्रतियोगी दरों पर बाजार से ही संसाधन जुटाने चाहिये ।
समिति ने निजी क्षेत्र के अन्तर्गत नये बैंकों के विस्तार पर कोई नियन्त्रण नहीं लगाया । बैंकों के ढाँचे को पुननिर्मित करके यह सुझाव दिया कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जो कि लाभकारी गतिविधियाँ सम्पन्न करते है को अपनी पूँजी बढाने के लिये पूँजी बाजार में बिना किसी रोकटोक के प्रवेश करने की अनुमति दी जानी चाहिए ।
समिति ने बैंकिंग व्यवस्था पर रिजर्व बैंक तथा वित्त मंत्रालय के बैंकिंग विभाग के दोहरे नियंत्रण की व्यवस्था को समाप्त करने और बैंकिंग व्यवस्था पर नियंत्रण हेतु सार्वजनिक संस्था की सिफारिश की है । सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के प्रबन्धक मण्डल में सरकार का प्रतिनिधि होना आवश्यक है ।
यद्यपि केन्द्र सरकार ने नरसिंहम समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुये अनेक वित्तीय परिवर्तनों का समावेश बजट के अन्तर्गत किया है । वित्तीय क्षेत्र के अन्तर्गत लाभकारी प्रभावों का विगत वर्षों के बजटों से परिवर्तन के सकेत मिलते है ।
चूँकि बैंकों के कामकज में पारदर्शिता आयी है तथा उनकी वास्तविक वित्तीय स्थिति का अध्ययन भी होता है लेकिन भारतीय बैंकिंग क्षेत्र अभी भी अनेक दुर्बलताओं से ग्रसित है जिससे न तो उसका स्वस्थ विकास हो पा रहा है और न ही स्तर में लेन-देन का त्वरित निपटारा करने में सक्षम है । राष्ट्रीयकृत बैंकों के समक्ष कड़ी चुनौती है कि वे उच्च कोटि की सेवा में एवं ऋण वसूली सम्बन्धित क्रियाओं को सम्पन्न करें ।
बैंकिंग सुधार का द्वितीय दौर
वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में बैंकिंग सुधारों के लिए गठित दूसरी नरसींहम समिति ने अपनी रिपोर्ट 23 अप्रैल, 1998 को केन्द्रीय वित्त मंत्री को सुपुर्द की । आर्थिक समीक्षा के अनुसार भारतीय बैंकिंग प्रणाली में सुधार लाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा गया कि महत्वपूर्ण उपलब्धियों के बावजूद हमारी बैंकिंग प्रणाली को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धा में आने के लिए सुधारों की आवश्यकता है ।
इसके लिये वित्तीय निष्पादन को बढाने और उच्च क्षमता को प्राप्त करने में उपायों को अपनाने की आवश्यकता है । समिति ने पूँजी खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता से पूर्व देश में मजबूत व प्रभावी वित्तीय व्यवस्था विकसित करने का सुझाव दिया ।
इसके अलावा बैंकों की परिसम्पत्तियों की गुणवत्ता में सुधार, गैर निष्पादन परिसम्पत्तियों में कमी, पूँजी पर्याप्तता अनुपात में वृद्धि, बैंकों को राजनीति से मुक्त करने, आदि के परिपेक्ष्य में बैंकिंग क्षेत्र को सुदृढ़ बनाने की दिशा में प्रयास प्रारम्भ हो गये हैं ।
इसी प्रकार बैंकिंग प्रणाली को सुदृढ़ करने हेतु पूंजी पर्याप्तता अपेक्षाओं में ऋण जोखिमों के अतिरिक्त बाजारीय जोखिम को भी ध्यान में रखा गया है । वित्तीय क्षेत्र में जो व्यापक सुधार पिछले वर्षों में किये गये वे समग्र आर्थिक सुधारों का एक भाग रहे हैं । वित्तीय का समग्र औचित्य वित्तीय प्रणाली की दक्षता एवं कार्यकुशलता को सुधारना एवं एक ऐसी प्रतियोगी प्रणाली विकसित करना था जिससे विकास का मार्ग प्रशस्त हो सके ।
इस सन्दर्भ में कुछ सीमा तक बैंकिंग क्षेत्र में आम उपभोक्ताओं को अपने धन को अनुकूलतम संसाधनों में निवेश करने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हो रहे हैं । बैंकिंग क्षेत्र में म्यूचुअल फंड योजनाएँ सार्वजनिक क्षेत्र के अतिरिक्त निजी क्षेत्र द्वारा भी संचालित की जा रही हैं ।
वर्तमान में हमारे देश में लगभग 42 म्यूचुअल फंड कार्यरत हैं । ये फंड पोर्टफोलियो प्रबंधक के रूप में कार्य करते हैं । वर्ष 1999-2000 के बजट में म्यूचुअल फंडों से प्राप्त आय एवं लाभांश को करमुक्त कर दिया गया था । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में क्रेडिट कार्ड व्यवसाय में प्रवेश किया है ।
इस समय भारत में लगभग 15 लाख से भी अधिक लोगों के पास मास्टर कार्ड हैं एवं वर्ष 1997-98 में इसने 967 करोड़ डालर का व्यवसाय किया था जबकि वर्ष 2006-07 में 135.6 करोड़ डालर का व्यवसाय हुआ है । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों सहित व्यापारिक बैंकों की कुल शाखाएँ वर्ष 2013-14 में 109811 है, जिनमें से लगभग 50 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में है ।
ग्रामीण ऋण के सम्बन्ध में रिजर्व बैंक ने एक विशेष ऋण रियायती दर पर देने की रणनीति बनाई है । भारतीय रिजर्व बैंक में आंकडों से स्पष्ट होता है कि व्यापारिक बैंकों के पास जमाओं का 79.9 प्रतिशत भाग सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास तथा शेष स्टेट बैंक और उनके सहयोगी बैंकों के पास है ।
बैंकिंग सुधारों के समक्ष चुनौतियाँ
बैंकिंग सुधारो के लागू होने के पश्चात् से वाणिज्यिक बैंकों के प्रदर्शन में निरंतर सुधार हो रहा है । घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में परिवर्तन वित्तीय सेवाओं के सार्वभौमिक एकीकरण व अन्य सापेक्षिक कारणों से वाणिज्यिक बैंकों के समक्ष अभी भी कुछ चुनौतियाँ शेष हैं ।
आर्थिक सुधारों के दूसरे दौर में यह प्रयास होना चाहिये था कि बैंकिंग क्षेत्र इन चुनौतियों का सामना स्वयं अपने संसाधनों से करने में समर्थ व सक्षम बन सकें, किन्तु ऐसा संभव नहीं हो सका । वर्तमान में प्रौद्योगिकी के प्रभावी प्रयोग की चुनौती, मानव संसाधन विकास की चुनौती, पारदर्शिता और प्रकटीकरण बढ़ते हुए बैंक घोटालों के नियंत्रण की चुनौती बढ़ती प्रतिस्पर्धा की चुनौती तथा गैर निष्पादन सम्पत्तियों में वृद्धि की चुनौती आदि भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष गम्भीर चुनौतियों है ।
बैंकिंग सुधार में सरकार द्वारा निर्णय :-
बैंकिंग सुधार हेतु उपयुक्त समितियों के परिप्रेक्ष्य में भारत सरकार और रिजर्व बैंक ने बैंकिंग एवं वित्तीय क्षेत्र के सुदृणीकरण की दिशा में कार्य प्रारम्भ कर दिया है । इस दिशा में निम्नलिखित निर्णय लिये गये- घोषित मौद्रिक एवं साख नीति में सरकारी प्रतिभूतियों के सम्पूर्ण पोर्टफोलियो बाजार को चिन्हित किया गया है ।
गैर निष्पादनकारी परिसम्पत्तियों को 5 प्रतिशत के स्तर पर लाने के लिए ऋण वसूली न्यायाधिकरणों को मजबूत किया गया है साथ ही परिसम्पत्तियों के वर्गीकरण, आय निर्धारण, जोखिम आदि के सम्बन्ध में विवेकपूर्ण उपायों की घोषणा भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा की जायेगी ।
इसके अलावा बैंकिंग कानूनों को अधिक प्रभावी बनाने हेतु उनमें संशोधन करने के सुझाव दिये गये हैं । घोषित मौद्रिक एवं साख नीति के अन्तर्गत बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं को पूर्ण पारदर्शिता तथा खुलेपन के साथ कार्य करने के लिये पूंजी पर्याप्तता को सुदृढ़ किया जाना आवश्यक समझा गया । नई मौद्रिक नीति में बैंकिंग सुधार हेतु जोखिम आस्तियों से न्यूनतम आस्तियों का अनुपात वर्तमान में 8 प्रतिशत के स्थान पर 9 प्रतिशत किया जायेगा ।
इसी प्रकार बैंकों परामर्श दिया जा रहा है कि वे साख जोखिम, बाजार जोखिम, भाकर व्यवस्था अब लागू नहीं होगी किन्तु प्रतिमानों में छूट दी गई है । इस प्रकार अधिकांश बैंकों ने अपना ध्यान देश के महानगणे पर केन्द्रित किया है । यह बैंक अपनी सीमित शाखाओं में नवीनतम प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते है ।
अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि यद्यपि हमारी अर्थव्यवस्था वैश्वीकरण की दिशा में अग्रसर हो चुकी है परन्तु इस दिशा में किये गये बैंकिंग सुधारों की रणनीति में कहीं न कहीं प्रयासों की सफलता में संदेह होता है । हमारे दृष्टिकोण से भारत में वित्तीय सुधारों के अन्तर्गत संरचनात्मक परिवर्तन होना चाहिये साथ ही वित्तीय उदारीकरण में साख उपयोग एवं ब्याज दरों पर लगे नियंत्रणों को हटाना भी आवश्यक होगा ।
चूँकि आर्थिक उदारीकरण की इसी प्रक्रिया के दौरान देश में सामाजिक आर्थिक परिदृश्य में मध्यम वर्ग परिमाणात्मक रूप से बढ़ा है एवं उनकी आकांक्षाओं में वृद्धि हुई है । वित्तीय सुधारों के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ देश की बैंकिंग प्रणाली भी संक्रमणकल से गुजर रही है एवं अपने विकास के मोड पर खडी है ।
चूंकि भारतीय बैंकिंग क्षेत्र ने लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप इस दौर में प्रतिकूल आर्थिक मंदी के बावजूद अपनी वित्तीय स्थिति एवं प्रबन्ध स्तर में सुधार के प्रति गहरी प्रतिबद्धता का परिचय दिया है ।
अन्ततः निष्कर्ष स्वरूप यही कहा जा सकता है कि बैंकिंग क्षेत्र में पूर्ण पारदर्शिता एवं दक्षता के साथ स्वयं को पुर्नसंगठित करना होगा । उच्च लाभप्रदता के साथ तेजी से विकसित हो रहे व्यवसाय को संभालने में आमूल-चूल परिवर्तन की महती आवश्यकता है ।
भारत में बैंकों का बदलता स्वरूप (प्रमुखबिन्दु)
बैंक किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। देश में बैंकिंग व्यवस्था की शुरुआत को इतिहासकार लगभग 18वीं शताब्दी से ही मानते हैं| इसके बारे में कहा जाता है कि अंग्रेजों ने आधुनिक बैंकिंग प्रणाली को लाकर भारत की अर्थव्यवस्था में क्रांति कर दी थी। अंग्रेजों ने सुनियोजित तरीके से धन की उगाही के लिये तीनों प्रेसीडेंसियों मसलन मद्रास, बंबई और बंगाल में बैंकों की स्थापना की। इसके बाद तीनों प्रेसीडेंसी बैंकों को मिलाकर 1921 में इम्पीरियल बैंक की स्थापना हुई।
भारत की स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1955 को इम्पीरियल बैंक की सभी संपत्तियों का अधिग्रहण करके स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने कार्य करना शुरू कर दिया। आपको बता दें कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया देश का सबसे पुराना और सबसे बड़ा व्यापारिक बैंक है| इसे राष्ट्रीयकृत बैंकों की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। राष्ट्रीयकृत बैंकों में उन बैंकों को रखा जाता है जो 1969 के राष्ट्रीयकरण और उसके बाद सरकार के अधीन आये हैं।
यह तो बात थी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के बारे में| अब बात करते है केन्द्रीय बैंक यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बारे में। 1926 हिल्टन यंग कमीशन ने इस बात का सुझाव दिया था कि इम्पीरियल बैंक से अलग एक केन्द्रीय बैंक को स्थापित किया जाना चाहिये जो विदेशी विनिमय कोष प्रबंधन के साथ-साथ नोट भी जारी कर सके। यहाँ यह भी जानना जरूरी है कि हिल्टन यंग कमीशन पहला कमीशन था जिसने रिजर्व बैंक को लाने की बात कही थी|
1934 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट के जरिये 1 अप्रैल,1935 से रिजर्व बैंक ने कार्य करना शुरू कर दिया। आपको बता दें कि वर्मा विभाजन के बाद रिजर्व बैंक ने 1942 तक वहाँ की करेंसी अथॉरिटी और 1947 तक वहाँ की सरकार के बैंकर के रूप में भी कार्य किया था। देश के विभाजन के बाद 1948 तक इसने पाकिस्तान के सेन्ट्रल बैंक के रूप में भी कार्य किया था। वर्ष 1949 में रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और तब से यह देश का केन्द्रीय बैंक है।
इस समय देश में RBI और SBI के अलावा भी कई अन्य व्यापारिक बैंक कार्य कर रहे थे। फिर भी ऐसा लगातार महसूस किया जा रहा था कि इन बैंकों के द्वारा कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग, गाँव और कस्बों की लगातार उपेक्षा की जा रही है। उस समय सरकार ने देश के आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिये 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया । इस कदम को और विस्तार देते हुए सरकार ने 1980 में 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इन सबके बावजूद भी इसके वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका। इसलिए सरकार ने बैंक क्षेत्र में सुधार के लिये कई आयोगों का गठन किया।
बैंकिंग क्षेत्र में सुधार करने के लिये सरकार ने 1991 में एम. नरसिंहम की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि बैंकिंग क्षेत्र में चार स्तरीय ढाँचे की व्यवस्था की जाए जिसमें तीन या चार बड़े बैंक होंगे। SBI इसमें शामिल होगा और इसे शीर्ष स्थान प्राप्त होगा तथा यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना कार्य कर सकेगा। इसने कहा कि बेसल समिति द्वारा सुझाये गये उपायों को धीरे-धीरे प्राप्त करने की जरूरत है।
नरसिंहम समिति ने लाइसेंस प्रणाली को खत्म करने की भी बात कही थी। बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के लिये दूसरी बार एम. नरसिंहम की अध्यक्षता में ही एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में पूंजी खाते की परिवर्तनीयता को ध्यान में रखते हुए बैंकिंग प्रणाली को और अधिक मजबूत करने पर जोर दिया।
इस समिति ने बड़े बैंकों को भी मिलाने पर बल दिया और कहा कि जहाँ पर कुछ अंतर्राष्ट्रीय और कुछ राष्ट्रीय स्तर के बैंक हों वहाँ पर छोटे स्थानीय बैंकों को खोलने पर भी बल दिया जाना चाहिये जिससे किसी राज्य के स्थानीय व्यापार, उद्योग तथा कृषि को बढ़ावा मिल सके। इस लिहाज से रिजर्व बैंक द्वारा नचिकेत मोर समिति का गठन किया गया।
इस समिति ने छोटे व्यवसायों और कम आय वाले परिवारों के लिए व्यापक वित्तीय सेवाओं और भुगतान बैंकों को लाइसेंस देने संबंधी बात कही। इस समिति की अनुशंसा के आधार पर ही सरकार द्वारा इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक यानी IPPB को लॉन्च किया गया था।
गौरतलब है कि बैंकों में सुधार के लिये बेसल 3 मानक को लाया गया। आपको बता दें कि बेसल 3 बैंकिंग प्रणाली के उन पक्षों को सुधारने का प्रयास करता है जिसके कारण पूरे विश्व को आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ा। इसके पीछे का गणित यह है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं को अपनी वित्तीय प्रणाली को बचाने के लिये बहुत धनराशि खर्च करनी पड़ती है। इसके लिये ये देश नहीं चाहते कि आने वाले समय में इस तरह की समस्या का सामना फिर से करना पड़े। इन सब वजहों से बैंकिंग व्यवस्था को कुछ इस प्रकार से नियंत्रित करना होगा जिससे न केवल बैंक की पूंजी में गुणात्मक सुधार हो बल्कि बैंकों की हानि सहने की क्षमता में भी बढ़ोतरी हो।
आज के समय में बैंकों का स्वरूप :-
आज के समय में बैंकिंग व्यवहार और उपभोक्ताओं की जरूरतों में परिवर्तन जिस तरीके से हो रहे हैं, वैसी स्थिति में बैंकों का भविष्य भी संकट के घेरे में है। अब तो यह भी माना जा रहा है कि परंपरागत बैंकिंग का दौर खत्म हो चुका है और बैंकलेस बैंकिंग अवधारणा मजबूत हुई है। इसी संबंध में एक बार बिल गेट्स ने कहा था कि बैंकिंग तो जरूरी है किन्तु बैंक नहीं।
आज तकनीक ने बैंकों के स्वरूप को एकदम बदल दिया है। इसमें बिग डेटा, क्लाउड कंप्यूटिंग, स्मार्टफोन और ऐसे अन्य नवाचार शामिल हैं।
मोबाइल बैंकिंग के आने से तो ग्राहकों और बैंक के बीच संवाद के तरीके में बहुत बदलाव आ गया है। मोबाइल बैंकिंग के द्वारा घर से दूर रहकर भी अपने बैंक के खातों की जानकारी ली जा सकती है। किसी भी समय खाते से पैसों को ट्रांसफर करना, बिलों का भुगतान इत्यादि किया जा सकता है। यह सुविधा 24 घंटे उपलब्ध होती है।
इसी प्रकार एटीएम मशीनों ने बैंकिंग व्यवस्था को बहुत हद तक सरल, सुरक्षित और सुविधाजनक बना दिया है।
कैशलेस अर्थव्यवस्था ने बैंकिंग स्वरूप में और बड़ा परिवर्तन किया है। इससे एक ओर जहाँ लोगों को लंबी कतारों से मुक्ति के साथ-साथ समय की बचत हुई तो वहीं दूसरी ओर कालेधन को रोकने में बहुत हद तक मदद भी मिली। इसके कारण अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता आयी। कैशलेस व्यवस्था आने के कारण रुपया लोगों के पास से तो हटा ही किन्तु उसका स्थान प्लास्टिक मुद्रा ने लिया।
प्लास्टिक मुद्रा ने लोगों की समस्या के समाधान के साथ-साथ पर्यावरण को तो लाभ पहुँचाया ही इसके साथ ही साथ इससे अर्थव्यवस्था में तेजी भी आयी। कैशलेस अर्थव्यवस्था को पेमेंट्स बैंकों ने भी आगे बढ़ाने में मदद की है।
लिहाज़ा समाज के हाशिये पर बैठे व्यक्तियों को आर्थिक विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिये बैंकों ने समुचित प्रयास किया है। इस प्रयास में माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी लिमिटेड बैंक यानि मुद्रा बैंक का गठन भी बहुत महत्त्व रखता है| यह सूक्ष्म इकाइयों के विकास तथा पुनर्वित्तपोषण से संबंधित गतिविधियों के लिये भारत सरकार द्वारा गठित एक नई संस्था है। इसी प्रकार स्वयं सहायता समूह भी वित्तीय समावेशन की प्रक्रिया को मजबूत करते हैं जो कि समाज के पिछड़े तबके के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नई दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक यानी IPPB को लॉन्च किया। इसकी वजह से पेमेंट्स बैंक एक बार फिर चर्चा में आ गये हैं। गौरतलब है कि 30 जनवरी 2017 को रायपुर और राँची से IPPB का पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया था।
IPPB ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सेवाएँ मुहैया कराकर केंद्र सरकार के वित्तीय समावेशन के मकसद को पूरा करने में सहायता करेगा। इसके जरिये सेविंग्स और करेंट एकाउंट्स, मनी ट्रांसफर, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर और बिल पेमेंट जैसी सुविधाएँ 13 भाषाओं में मुहैया कराई जाएंगी। काउंटर सर्विसेज, माइक्रो एटीएम, मोबाइल बैंकिंग एप, एसएमएस और आईवीआर के माध्यम से ये सुविधाएँ आम जनता तक पहुँचाई जाएंगी। IPPB एक लाख रुपये तक की जमा राशि स्वीकार करेगा। एक लाख रुपये से अधिक राशि वाला खाता अपने आप पोस्ट ऑफिस सेविंग्स अकाउंट में तब्दील हो जाएगा। देशभर में फैले डाक विभाग के 3 लाख से अधिक डाकियों और ग्रामीण डाक सेवकों के विशाल नेटवर्क के माध्यम से IPPB को काम करने में आसानी होगी।
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मौद्रिक नीति क्या है, इसका महत्व एवं भारत में मौद्रिक नीति ?