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बिहार में प्रमुख जनजाति विद्रोह

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-07-18 13:45:56

बिहार में प्रमुख जनजाति विद्रोह

 

बिहार का पठारी क्षेत्र जनजाति इलाका रहा है। 1765 ई वो बाद ही इस क्षेत्र में ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित होने लगा। परिणाम स्वरूप भूमि हस्तांतरण, साहूकारों द्वारा आर्थिक शोषण एवं सामाजिक जीवन में होने वाले नित नए परिवर्तन के कारण नव आगन्तुकों: (दौक) एवं ब्रिटिश शासन के प्रति जनजातीय लोगों में विद्रोह की भावना जगी। आदिवासियों ने एक के बाद एक कई विद्रोहों के द्वारा अपने शौर्य, बलिदान एवं राष्ट्रप्रेम का परिचय दिया।

 

1. तमाड़ विद्रोह :-

इस विद्रोह का क्षेत्र छोटानागपुर के आस पास का क्षेत्र था। 1789 ई. में उरॉव जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के विरुद्ध विद्रोह की शुरूआत हुई। यह विद्रोह 1794 ई तक चलता रहा। इस विद्रोह के परिणाम स्वरूप 1809 ई० में सरकार ने छोटानागपुर में शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए जमींदारी पुलिस बल की व्यवस्था की।

 

2. चेरो विद्रोह :-

पलामू क्षेत्र के आस पास के जमींदारों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए अंग्रेजों ने पलामू दूर्ग पर अधिकार करने की योजना बनाई। उस समय पलामू में राजा और दीवान में मतभेद चल रहा था जिसका फायदा अंग्रेजों ने उठाना चाहा। अंग्रेजों ने छत्रपति रहा एवं जगन्नाथ सिंह को पलामू का दूर्ग उसे सौंप देने का हुक्म दिया। इसके लिए अंग्रेजों ने कूटनीति का भी सहारा लिया। प्रस्ताव ठुकराये जाने पर ईस्ट इंडिया कम्पनी बल प्रयोग पर उतर आई। 1771 ई० में इस दूर्ग पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया। कम्पनी ने गोपाल राय को यहाँ का राजा नियुक्त कर दिया। लोगों में इसी समय से अँग्रेजों के प्रति असंतोष था। कालान्तर में 1800 ई में चेरों लोगों के इस असंतोष ने विद्रोह का रूप ले लिया। भूषण सिंह के नेतृत्व में पलामू रियासत के लोगों ने विद्रोह प्रारम्भ कर दिया। राजा इस विद्रोह को दबाने में असमर्थ था। अतः विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेज सेना बुलाई गई। भूषण सिंह को 1802 ई में फाँसी दे दी गई।

 

3. कोल विद्रोह :-

छोटानागपुर में सन् 1831-32 ई में 'कोल विद्रोह' हुआ। यह मुण्डा जनजाति के लोगों द्वारा किया गया विद्रोह था जिसमें 'हो' जनजाति के लोग भी शामिल हो गए। विद्रोह का मुख्य कारण था-भूमि सम्बन्धी असंतोष। छोटानागपुर के महाराजा के भाई हरनाथ शाही द्वारा इनकी जमीन को छीनकर अपने प्रिय लोगों को सौंप देना इस विद्रोह का तात्कालिक कारण था। विद्रोह का क्षेत्र मुख्यतया राँची, हजारीबाग, पलामू तथा मानभूम का पश्चिमी भाग था। विद्रोह को दबाने के लिए अनेक जगहों से सेना बुलायी गई। इस विद्रोह का प्रमुख नेता बुद्धो भगत था। अन्य नेता थे-सिंहराय एवं सुर्गा।

4. भूमिज विद्रोह :-

कम्पनी सरकार ने वीरभूम के जमींदारों पर इतना अधिक राजस्व लाद दिया कि उसे चुकाना मुश्किल था। जमींदार गंगा नारायण के विद्रोह ने जन समर्थन प्राप्त किया। विद्रोह की शुरुआत 1832 ई में हुई। गंगा नारायण को सिंहभूम के लिए लड़ाई में 'कोल' एवं 'हो' लोगों का भी समर्थन मिला।

5. खेरवार आन्दोलन :-

1860 ई के दशक में मंडा एवं उरॉव जनजाति के लोगों ने जमींदारों के शोषण और पुलिस के अत्याचार का विरोध करने के लिए संवैधानिक संघर्ष आरम्भ किया। इसे 'सरदारी लड़ाई' भी कहते हैं। मुंडा लोगों ने जमीन पर अधिकार का दावा किया और जमींदारों को लगान देने से इंकार कर दियाले लगान सीधे सरकार को देने के लिए तैयार थे। उन्होंने इसके लिए अदालत की भी शरण ली। मगर उचित पैरवी के अभाव में उनकी माँगों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इस असफलता को प्रतिक्रिया में भागीरथ झाँकी के नेतृत्व में खेरवार आन्दोलन की शुरुआत हुई।

6. ताना भगत आन्दोलन :-

ताना भगत आन्दोलन 1913-14 ई के मध्य जात्रा भगत के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ। आन्दोलन के अन्य नेता थे-सिबू, माया,देविया आदि। इसका प्रभाव उराँव, मुण्डा और संथाल जनजाति पर व्यापक रूप से पड़ा। इस आन्दोलन में राजनीतिक जागरुकता का अधिक स्पष्ट प्रभाव था। इस आन्दोलन की माँगें थी-स्वशासन का अधिकार, लगान न देने का आह्वान एवं मनुष्ण समाज में समता। आन्दोलन पर काँग्रेस और गाँधी जी का स्पष्ट प्रभाव था। 1919 तक इसका प्रसार बृहत पैमाने पर हो चुका था। मूलतः यह आन्दोलन भी दीकूओं, जमीन्दारों एवं प्रशासन के अत्याचार के विरुद्ध था। लेकिन इसमें हिंसात्मक संपर्ष के बरते संवैधानिक संघर्ष का रास्ता अपनाया गया। इस आन्दोलन के साथ ही राष्ट्रीय गतिविधि से भी अपने को जोड़े रखना आन्दोलनकारि की विशेषता रही।

7. संथाल विद्रोह-

संथाल विद्रोह औपनिवेशिक सरकार के विरूद्ध प्रथम सशक्त जनजातीय विद्रोह था। संथाल विद्रोह का प्रमुख केन्द्र संथाल परगना था। संथाल परगना पूर्वी बिहार राज्य के भागलपुर से लेकर राजमहल तक के विस्तृत क्षेत्र का रा जाता है। इस क्षेत्र को दामन-ए-कोह के नाम से भी जाना जाता है।

संथाल विद्रोह के कारण :

भू-राजस्व की नई प्रणाली एवं सरदारों को जमींदार का दर्जा: जनजातीय क्षेत्र में ब्रिटिश शासन की शुरूआत के साथ ही अंग्रेजी सरकार ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए भू-स्वामित्व की ऐसी प्रणाली बनाई जिससे जमींदारी प्रथा का जनजातीय क्षेत्र में जन्म हुआ। उनके सरदारों को ब्रिटिश अधिकारियों ने जमींदारों का दर्जा प्रदान किया। इन जमींदारों का उपयोग सरकार अपने हित को साधने के लिए तथा अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करती थी।लगान एवं कर में वृद्धि पहले गांव के लोग एकल कर दिया करते थे लेकिन अब प्रत्येक व्यक्ति को अलग से कर देना होता था। उनके द्वारा उत्पादित हर वस्तु पर सरकार ने नया कर लगाया। यह कर इतना अधिक था कि पहले से वसूली जा रही लगान में लगभग 3 गुनी वृद्धि हो गई जो संथाल कृषकों की स्थिति एवं क्षमताओं से अधिक था।

 

बाहरी लोगों का संथाल क्षेत्रों में आना :

संघाल क्षेत्रों में बाहरी लोगों की जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई। इन लोगों ने अपनी संपन्नता के कारण बहुत कम समय में अच्छा प्रभाव जमा लिया। इनके द्वारा संथालों का शोषण किया जाने लगा।

प्रशासन की उदासीनता :

साहुकारों और महाजनों ने संथालों को भारी ब्याज पर धन प्रदान किया, नहीं चुकाने की स्थिति में साहुकारों महाजनों द्वारा उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया जाने लगा। उनकी समस्याओं के प्रति प्रशासन और पुलिस उदासीनता के कारण, इनके मन में औपनिवेशिक सत्ता के प्रति भी विरोध की भावना बढ़ने लगी।

तत्कालीन कारण :

एक स्थानीय साहुकार ने दारोगा की सहायता से अपने घर में मामूली चोरी करने के अपराध में संथालों को गिरफ्तार करवा दिया। आवेश में आकर एक संथाल ने उस दारोगा की हत्या कर दी। इसका कारण समर्थन सभी संथालों ने किया और गिरफ्तार होने के भय से एक जगह इक‌ट्ठा हो गए।

संथाल विद्रोह की गति :

इस विद्रोह को संथाल परगना के सभी संथालों का समर्थन प्राप्त था। 30 जून, 1855 को भागीनीडीह में करीब 400 गाँवों के 6070 प्रतिनिधि इक‌ट्ठा हुए। इन्होंने एक स्तर में संथाल विद्रोह का समर्थन किया और इसके पक्ष में निर्णय लिया। उनके विद्रोह का मुख्य उद्देश्य था बाहरी लोगों को भगाना, विदेशियों का राज हमेशा के लिए समाप्त करना तथा न्याय एवं धर्म का राज पित करना। इनके नेता सिद्ध, कान्हू, चांद और भैरव थे। शीघ्र ही करीब 60000 संथाल जमा हो गए और उन्होंने महाजनों एवं जमींदारों पर हमला करना शुरू, किया।

उन्होंने साहुकारों के मकानों के साथ ही कचहरी के उन दस्तावेजों को भी जला दिया जो उनकी गुलामी के प्रतीक थे। उन्होंने सरकार के अन्य स्वरूप जैसे कि पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन आदि पर भी हमला किया। उन्होंने मैदानी भागों से आने वाले लोगों की खड़ी फसलों को भी जला दिया। विद्रोह की गति एवं तीव्रता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने मेजर जनरल के नेतृत्व में सेना की टुकड़ियों को भेजा। संथालों ने प्रारंभ में उन्हें करारी मात दी फिर कैप्टन एलेक्जेंडर और लेफ्टिनेंट थॉमसन के नेतृत्व में सेना भेजी। अगस्त, 1855 में सिद्ध पकड़ा गया और मार डाला गया।

संथाल विद्रोह के परिणाम

संथाल परगना जिला का गठन तथा गॉन रेगुलेशन जिला की घोषणा 1856 के 37वें अधिनियम के द्वारा संचाल परगनका

क्षेत्र को नॉन रेगुलेशन जिला घोषित किया गया। विद्रोह समाप्ति के पश्चात् सरकार ने संथाल बहुल क्षेत्रों के लिए प्रशासन की

विशेष पद्धति के अधीन भागलपुर एवं वीरभूमि से कुछ क्षेत्रों को काटकर संथाल परगना जिला बनाया। संथाल परगना टेनेंसी एक्ट: संथाल परगना देवेंगी एक्ट बनाया गया। इससे संथालों को अपने जमीन पर मालिकाना हक की रक्षा करने में सहायता मिली।

मांझी व्यवस्था पुनः बहाल संथालों के सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मांझी व्यवस्था को पुनः बहाल किया गया। इसके साथ ही ग्राम प्रधान को मान्यता दी गई और ग्रामीण अधिकारियों को पुलिस का अधिकार दिया गया।

जन-धन की हानि: इस विद्रोह के पहले चरण में बहुत से साहुकार और पुलिस अफसर मारे गये। विद्रोह के दमन के लिए सेना के आने के पश्चात् लगभग 15000 संथाल मारे गये। सेना ने बहुत से संथाल गांव को लूटा और उन्हें आग लगा दी। संथाल विद्रोह अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सका परन्तु इसमें सरकार के दमन के विरूद्ध, अन्याय के विरूद्ध हथियार उठाने के लिए आने वाली पौड़ियों को प्रेरित किया।

8. बिरसा आन्दोलन :-

जनजातीय विद्रोह में सबसे संगठित और विस्तृत विद्रोह 1895 ई से 1901 ई के बीच चला मुंडा विद्रोह था। इसके पूर्व सरकार द्वारा कोल एवं संथाल विद्रोह का दमन किया जा चुका था और 1881 ई से 1895 ई के बीच राँची एवं सिंहभूम में हुए कई कृक्षक उपद्रवों को भी सरकार ने सैन्य बल से दवा दिया था। लेकिन सरकारी नीति से आम जनता असंतुष्ट थी और असंतोष भड़‌काने वाले कारण पूर्ववत बने हुए थे। दूसरी ओर जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार आरम्भ हो चुका था। ईसाई धर्म मिशनरियों के माध्यम से नए विचार और आदर्श जनजातियों के बीच प्रसारित हो रहे थे। इन सबका मिला-जुला परिणाम बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में प्रकट हुआ।

जनजातियों के बीच परम्परागत खुटकुटी व्यवस्था प्रचलित थी। यह व्यवस्था सामूहिक भू-स्वामित्व से सम्बन्धित व्यवस्था थी। इस व्यवस्था को ब्रिटिश सरकार ने समाप्त कर दिया और यहाँ निजी भू-स्वामित्व पर आधारित नवीन व्यवस्था को लागू किया। भू-राजस्व में भी वृद्धि की गई। निर्धन मुंडा किसान जिन्हें पुरानी तकनीक तथा अधिकार अनुपजाऊ जमीन से उपज काफी कम होता था, राजस्व की बढ़ी हुई दर से कर चुकाने में असमर्थ थे। ऐसी स्थिति ने इन्हें धूपूर्त साहू‌कारों की दया पर जीवित रहने को विवश किया। महाजन से ऋण लेने एवं बदले में अपनी जमीन गिरवी रखने को वे वाध्य थे। धीरे-धीरे उनकी जमीन पर साहूकारों का कब्जा होने लगा। गरीब आदिवासी किसानों को अपनी ही जमीन से बेदखल होना पड़ा। इन सब से परेशान इन किसानों ने ईसाई मिशनरियों की शरण ली। परन्तु उनकी आशाओं के विपरीत आवश्यकता पड़ने पर इन मिशनरियों ने भी उनकी कोई मदद नहीं की। उन्हीं के शब्दों में "हम मिशनरी के पास गए लेकिन हमें कोई भरोसा नहीं दिलाया गया। हमने दीकू (बाहरी लोग गैर आदिवासी) से भी अपनी परेशानी बताई लेकिन किसी ने हमारी कोई मदद नहीं की। हम न्यायालय गए, वहाँ भी हमें राहत नहीं मिला। अब हम अपने ही आदमी पर भरोसा करें तो यह उत्तम होगा।" इन आदिवासियों के मन में यह बात बैठ गई कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। अब कोई मुक्तिदाता आए तो आए। यह मुक्तिदाता आया-बिरसा मुंडा।

ऐसी स्थिति में उनका बिरसा नामक एक 20 वर्षीय साहसी एवं उत्साही मुंडा नवयुवक ने आगे बढ़‌कर नेतृत्त्व सम्भाला। बिरसा का जन्म 1874 ई में राँची के तमार थाना के अन्तर्गत चालकंद गाँव में हुआ था। उसने मिशनरियों में अँग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की थी। उसे ईसाई धर्म के सिद्धान्तों की भी जानकारी थी। तत्कालीन सामाजिक जीवन में जो मौलिक परिवर्तन आ रहे थे उसके कारण आदिवासी परिवार में चिन्ता का वातावरण व्याप्त था और लोग एक शांतिपूर्ण एवं आदर्श समाज की कल्पना से प्रेरित हो रहे थे। बिरसा ने ऐसा ही आदर्श प्रस्तुत किया। वह वैष्णव धर्म के अनुयायी एक मुनि आनन्द पांडेय के साथ रहने लगा। उसने घोषणा की कि मुंडा जनजाति को बाहरी तत्वों से मुक्ति दिलाने तथा उसके उत्थान के लिए उसे भगवान ने भेजा है। उसके व्याख्यानों एवं भाषणों में हिन्दू धर्म इसाई धर्म तथा मुंडा राजनीति तीनों का मिश्रण था। उसने मुंडा लोगों को जड़-परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों को तिलांजलि देकर ईश्वर में विश्वास करने की बात समझाई। उसने पशुओं के बलिप्रथा का विरोध किया। इन समाओं में वह अपनी जनजाति के लोगों को नहीं डरने और साहस का परिचय देने की बात कहता था। बिरसा उन्हें समझाता था कि उसके मानवेत्तरशक्तियों के कारण कोई भी लौकिक शक्ति उसे मार नहीं सकता है। इस प्रकार आदिवासियों को धार्मिक स्तर पर संगठित कर बिरसा ने उसे अपना नेतृत्व प्रदान किया।

बिरसा ने नैतिक आचरण की शुद्धता आत्मसुधार एवं एकेश्वरवाद का उपदेश दिया। उसने अनेक देवी-देवताओं (बोंगा) का छोड़‌कर एक ईश्वर (सिंह बोंगा) की आराधना का आदेश अपने अनुयायियों को दिया। उसने बताया कि सिंह बोंगा की दशा में समाज में पुनः एक आदर्श व्यवस्था आयेगी तथा शोषण एवं उत्पीड़न का काल समाप्त हो जाएगा। उसने ब्रिटिश सता के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान नहीं देने का आदेश दिया। बिरसा के उपदेशों से अनेक लोग प्रभावित हुए। धीरे-धीरे बिरसा आन्दोलन का प्रचार-प्रसार पूरे जनजातीय क्षेत्र में होने लगा। सन् 1895 तक अपने अथक प्रयागों से बिरसा ने 6 हजार समर्पित मुंडा लोगों का दल तैयार कर लिया।

अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभुत्व को समाप्त करना, सभी बाहरी तथा विदेशी तत्वों को बाहर निकालना तथा स्वतंत्र मुंडा राज्य की स्थापना करना बिरसा के मुख्य उद्देश्य थे। विद्रोह का प्रारम्भ एक पूर्व निश्चित योजना के अनुसार साहुकारों, मिशनरियों अधिकारियों एवं सभी बाहरी लोगों पर आक्रमण द्वारा किया गया। बिरसा ने नारा दिया 'कटोंग बाबा कटोंग, साहेब कटोंग-कटेंग, राडी (रानी) कटोंग-कटोंग'। इसी बीच बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। कारण था-वह जनजातीय लोगों को सरकार को लगान न देने के लिए कहा करता था। उसे राँची में बन्दी बनाया गया बिरसा को षडयंत्र रचने के जुर्म में दो वर्ष की सजा हुई। महारानी विक्टोरिया के हीरक जयन्ती के अवसर पर 1888 ई० में बिरसा को कैद से मुक्ति मिली। बिरसा ने मुंडा आन्दोलन को पुनः संगठित करना प्रारम्भ किया। आन्दोलन ने पुनः जोर पकड़ा। 1899 और 1900 में बिरसा ने स्वयं और अपने प्रचारकों के माध्यम से अनेक आदिवासी गाँवों में प्रचार कार्य प्रारम्भ किया। उसने विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए लोगों को तैयार किया। बिरसा के अनुयायियों ने यूरोपीय मिशनरियों पर छापे मारे। राँची, खूँटी, तमार आदि जगहों पर हिंसक झड़पें हुई। परिणामस्वरूप सरकार द्वारा आन्दोलन के दमन और बिरसा की गिरफ्तारी के लिए तैयारी शुरू हो गई। 3 फरवरी 1900 ई को बिरसा को पुनः बनी बना लिया गया। जेल में ही 30 मई को हैजा के कारण बिरसा की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् बिरसा के अनेक सहयोगियों को कैद कर लिया गया। जल्द ही आन्दोलन का अन्त हो गया।

बिरसा आन्दोलन विफल रहा। लेकिन यह उत्साहपूर्ण प्रयास था। सामाजिक विषमता, आर्थिक शोषण एवं विदेशी सत्ता के कारण हुए परिवर्तन के प्रति यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। आन्दोलन के कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आये। 1903 ई० में काश्तकारी संशोधन अधिनियम द्वारा पहली बार मुण्डाओं के खुटकुटी व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गई। बाद में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 बना। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप कुछ ऐसे प्रशासनिक कदम उठाए गए जिसका उद्देश्य प्रशासन को आदिवासियों के नजदीक पहुँचाना था। 1905 में खूँटी को अनुमण्डल बनाया गया। अब प्रशासन भी इन आदिवासियों के प्रति अधिक संवेदनशील हुआ। बिरसा आन्दोलन मुख्यतया एक धार्मिक सुधार आन्दोलन था। अतः इस आन्दोलन से जनजातियों में जागरुकता आई। जिसने आदिवासी समाज को काफी प्रभावित किया। इस जागृति ने आने वाले वर्षों में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न

1. संथाल विद्रोह के कारण क्या थे ? उसकी गति और परिणाम क्या था। (66वीं, बी.पी.एस.सी.)

2. बिरसा आंदोलन की विशेषताओं की समीक्षा कीजिए। (66वीं, बी.पी.एस.सी.)

3. उपयुक्त उदाहरण सहित 19वीं सदी में जनजातीय प्रतिरोध की विशेषताओं की समीक्षा कीजिए तथा इनकी असफलता के कारण बतायें ।(64वीं, बी.पी.एस.सी.)।

4. संथाल विद्रोह के कारणों एवं परिणामों का मूल्यांकन कीजिए? (63ीं, बी.पी.एस.सी.) उनके क्या प्रभाव हुए? (56-59वीं, बी.पी.एस.सी.)

5. संथाल विद्रोह के मुख्य कारणों का विवरण दीजिए तथा 6. "बिरसा आंदोलन का आधारभूत उद्देश्य आंतरिक शुद्धिकरण और विदेशी शासन की समाप्ति" स्पष्ट कीजिए।

(53-55वीं, बी.पी.एस.सी.)

 

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