78वां स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर तैयारी करने वाले UPSC, BPSC, JPSC, UPPSC ,BPSC TRE & SI के अभ्यर्थीयों को 15 अगस्त 2024 तक 75% का Scholarship एवं 25 अगस्त 2024 तक 70% का Scholarship. UPSC 2025 और BPSC 71st की New Batch 5 September & 20 September 2024 से शुरु होगी ।

बिहार में किसान आंदोलन

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-07-19 08:34:31

बिहार में किसान आन्दोलन

बिहार हमेशा से कृषि प्रधान प्रान्त रहा है और यहाँ की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित रही है। भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व आरम्भ होने के बाद भारतीय किसान अंग्रेजों के साथ-साथ भारतीय जमीन्दारों से भी त्रस्त होने लगे। शोषण की इस दोहरी प्रक्रिया से बिहार का किसान वर्ग भी काफी परेशान रहा। इसी के परिणामस्वरूप बिहार के किसानों द्वारा जमींदारों के आर्थिक शोषण एवं ब्रिटिश शासन के खिलाफ अनेक विद्रोह किए गए।

बिहार में पहला सशक्त आन्दोलन महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चम्पारण में किया गया। इस क्षेत्र में अंग्रेज भूमिपतियों द्वारा किसानों का निर्मम शोषण एक लम्बे समय से होता आ रहा था। यहाँ पर नील की खेती होती थी और अंग्रेज भूमिपतियों द्वारा बदनाम 'तीन कठिया पद्धति' प्रचलित थी। इस पद्धति के अन्तर्गत काश्तकार को अपनी एक बीघा जमीन में तीन क‌ट्ठा में नील का उत्पादन करना पड़ता था। ऐसा अनुबन्ध 19वीं सदी के प्रारम्भ में ही गोरे बगान मालिकों ने करा लिया था। नील की खेती में आम काश्तकारों की अपेक्षा बागान मालिकों को अधिक लाभ होता था और भूमि पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता था। बुढ काल में (प्रथम विश्वयुद्ध) जर्मनी में रासायनिक रंगों के विकास के बाद नील का बाजार काफी मंदा हो गया और चम्पारण के बागान मालिक व किसान भी नील की खेती बन्द करना चाहते थे। इन परिस्थितियों का लाभ गोरे बागान मालिक उठाना चाहते थे और अधिक से अधिक लगान एवं अन्य करों में वृद्धि कर ही काश्तकारों को इस अनुबन्ध से मुक्त करना चाहते थे।

इस बीच 1916 में काँग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में बिहार से काफी संख्या में प्रतिनिधि शामिल हुए। यहाँ ब्रजकिशोर प्रसाद ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमें इन समस्याओं के निदान के लिए एक समिति के गठन की बात कही गई। गाँधीजी के दक्षिण अफ्रीका में किए गए संघर्ष से प्रभावित होकर चम्पारण के एक पीड़ित किसान राजकुमार शुक्ल ने उनसे चम्पारण आकर स्थिति का अध्ययन करने का अनुरोध किया।

गाँधी जी अप्रैल 1917 में पटना होते हुए मुजफ्फरपुर पहुँचे। वहाँ उन्होंने बिहार प्लैन्टर्स एसोसिएशन के मंत्री जे० एम० विल्सन से भेंट की तथा उसे अपने आने का कारण बताया। परन्तु विल्सन ने सहायता करने से इंकार कर दिया। तब वे तिरहुत डिवीजन के कमिश्नर मौगंड से मिले। मौग्रेड ने इस समस्या को ही सही मानने से इंकार किया। अब गाँधीजी ने राजेन्द्र प्रसाद, कृपलानी, महादेव देसाई, नरहरि पारिख आदि नेताओं के साथ चम्पारण जाकर मामले की जाँच करने का निर्णय किया। उनके चम्पारण आगमन से जिला अधिकारियों में बेचैनी हुई और उन्हें चम्पारण आगमन से जिला अधिकारियों में बैचेनी हुई और उन्हें चम्पारण छोड़ने का आदेश मिला जिसे उन्होंने मानने से इंकार कर दिया। गाँधी जी के शांतिपूर्वक विरोध का जबाव देना सरकार के लिए मुश्किल हो रहा था और सरकार असमंजस की स्थिति में थी। सरकार ने परिस्थिति को समझते हुए गाँधीजी को वार्ता के लिए बुलाया। उपराज्यपाल गेट ने किसानों के कष्टों की जाँच के लिए एक समिति के गठन का प्रस्ताव रखा। गाँधीजी भी इसके सदस्य थे। चम्पारण के किसानों की स्थिति का जायजा लेने के बाद गाँधीजी जाँच समिति को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकठिया व्यवस्था काफी दोषपूर्ण है। इस समिति की अनुशंसा पर तीनकठिया व्यवस्था का कानून बनाकर अन्त कर दिया गया। किसानों पर से लगान भी घटा दिया गया और उन्हें क्षतिपूर्ति राशि भी मिली। इस प्रकार चम्पारण के किसानों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ और गाँधी जी का पहला प्रयास सफल रहा।

इस आन्दोलन के बाद बिहार के किसानों में अत्याचार और शोषण के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा आई। जून 1919 ई० में मधुबनी जिला के किसानों ने लगान वसूली में कर्मचारियों द्वारा किए जा रहे अत्याचार एवं जंगल से फल और लकड़ी प्राप्त करने के अपने अधिकार के लिए दरभंगा राज के विरुद्ध आन्दोलन छोड़ा जोकि धीरे-धीरे पूर्णियाँ, सहरसा, भागलपुर और मुंगेर जिले तक फैल गया। महाराज दरभंगा ने आन्दोलन का प्रभाव खत्म करने के लिए एक प्रान्तीय सभा का गठन 1922 ई० में कराया। कालान्तर में महाराज दरभंगा ने किसानों की कुछ माँगे स्वीकार कर ली और यह आन्दोलन शिथिल पड़ गया। किसानों को संगठित करने का प्रथम प्रयास मुंगेर में 1922-23 ई में 'किसान सभा' का गठन कर किया गया जिसका श्रेय शाह मुहम्मद जुबैर और श्रीकृष्ण सिंह को जाता है। शाह मुहम्मद जुबैर इसके अध्यक्ष एवं श्रीकृष्ण सिंह इसके उपाध्यक्ष थे। लेकिन किसान आन्दोलन को निर्णायक मोड़ दिया स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने जिन्होंने 4 मार्च 1928 को किसान सभा की औपचारिक ढंग से स्थापना की। 1929 ई. में इस सभा की गतिविधियाँ काफी बड़े पैमाने पर आरम्भ हुई। इसी वर्ष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बिहार की यात्रा कर किसानों में चेतना जगाने का कार्य किया। किसान सभा के गया, मुजफ्फरपुर तथा हाजीपुर सम्मेलनों में लाखों लोगों ने भाग लिया। पटना, सारण, भागलपुर, गया आदि स्थानों पर किसानों द्वारा प्रदर्शन किए गए। किसान आन्दोलन के नेता नहर शुल्क में कमी, मालगुजारी कम करने, कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को रोकने की माँग कर रहे थे।मई 1930 ई. में चौकीदारी विरोधी अभियान पूरे बिहार में काफी सक्रिय रहा। 1931 ई० में जहानाबाद में किसानों के एक सभा में जमींदारों द्वारा किसानों के दमन की निन्दा की गई। बिहार में काँग्रेस ने राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक जाँच समिति की स्थापना की जिसके अन्य सदस्य थे-श्री कृष्ण सिंह, अब्दुल बारी, विपिन बिहारी वर्मा, बलदेव सहाय, राजेन्द्र मिश्र, राधागोविन्द प्रसाद और कृष्ण सहाय। 1932 ई० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के क्रम में किसान अधिक हिंसात्मक हो गए थे।

बिहार में किसान आन्दोलन के पुरोधा स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने किसान सभा को नया जीवन प्रदान किया। स्वामी जी एवं उनके सहयोगियों ने इस आन्दोलन को एक नई दिशा दी। केवल 1933 ई में ऐसी एक सौ सतरह समाएँ आयोजित की गई। जहाँ स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने स्वयं किसानों को सम्बोधित किया। 16 मार्च 1933 ई० को मधुवनी की प्रान्तीय किसान समा में किसान सभा को औपचारिक स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया गया। किन्तु दरभंगा राज की साजिश के कारण यह प्रयास असफल रहा। फिर भी एक महीने के भीतर दूसरा प्रान्तीय किसान सभा आन्दोलन बिहटा में आयोजित किया गया। इसके बाद स्वामी जी किसान सभा के निर्विवाद नेता हो गए। 1936 ई० में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ। इसके अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द सरस्वती थे। अखिल भारतीय किसान सभा ने किसानों की समस्याओं के प्रति राष्ट्रीय काँग्रेस का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया। जवाहर लाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय नेताओं का समर्थन किसान आन्दोलन को हमेशा ही मिलता रहा।

किसान सभा की लोकप्रियता में निर्णायक वृद्धि इस काल में दर्ज की गई। 1936 ई० में इसकी सदस्यता 2 लाख 50 हजार तक पहुँच चुकी थी। कुछ समय के लिए काँग्रेस और किसान सभा के बीच तालमेल भी बना रहा। 1937 ई के चुनाव के पूर्व दोनों में समझौता हुआ और काँग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में किसानों की समस्या पर चर्चा की। लेकिन चुनाव के बाद जब बिहार में काँग्रेसी मंत्रिमंडल का गठन हुआ तो किसान सभा के साथ उसके मतभेद उभरने लगे। मतभेद का मूल कारण था किसानों की समस्या के समाधान में काँग्रेसियों का अभिरुचि नहीं लेना। इस तनाव के कारण चम्पारण, सारण और मुंगेर की जिला काँग्रेस समितियों ने अपने सदस्यों को किसान सभा के जुलूसों में भाग लेने से रोक दिया। किसान आन्दोलन को बिहार में फैलाने में सहजानन्द सरस्वती के अलावा कार्यानन्द शर्मा, राहुल सांकृत्या पंचानन शर्मा और यदुनन्दन शर्मा जैसे नेताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। 1938 ई० में पटना में एक बड़ा प्रदर्शन हुआ जिसमें लगभग एक लाख किसानों ने भाग लिया। बड़‌हिया टाल के इलाके के किसानों द्वारा जमीन्दारी के उन्मूलन की माँग को लेकर व्यापक आन्दोलन किया गया। इसमें कार्यानंद शर्मा की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। गया के यदुनन्दन शर्मा एवं अन्नवारी में राहुल सांकृत्यायन ने किसान आन्दोलन को नेतृत्त्व प्रदान किया। काँग्रेस के उदासीन रहने के कारण अब किसानों का झुकाव साम्यवादी दलों की ओर होने लगा। स्वयं स्वामी सहजानन्द जी ने भी साम्यवाद में अभिरुचि दिखाई। बकाश्त भूमि के सवाल पर किसान आन्दोलन 1938-39 ई तक अपने शीर्ष पर पहुँच चुका था। लेकिन अगस्त 1939 ई० में सरकार द्वारा घोषित अनेक सुविधाओं, नए कानूनों और लगभग 600 कार्यकत्ताओं की गिरफ्तारी से यह आन्दोलन थम सा गया। कुछ इलाकों में 1945 ई० में किसान आन्दोलन ने पुनः अंगड़ाई ली और उनका आन्दोलन तब तक जारी रहा जब तक कि जमींदारी प्रथा खत्म नहीं हो गई।

आलोचना- स्वामी सहजानन्द ने किसान आन्दोलन को एक नई दिशा दी तथा उसे संघर्षशील बनाने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ-साथ जमीन्दारों और जमीन्दारी प्रथा का भी विरोध किया। लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन के समय जमीन्दारों को अपना दुश्मन बनाना वक्त की माँग नहीं थी। यही कारण था कि काँग्रेस ने किसान हित में जमीन्दारों के विरुद्ध किसी बड़े कदम को उठाने से परहेज किया। फलतः काँग्रेस के साथ प्रारम्भिक तालमेल आगे मतभेद के रूप में सामने आया। किसान आन्दोलन के नेता काँग्रेस को जमीन्दारों का संरक्षक मानने लगे। वस्तुतः ऐसी बात नहीं थी और काँग्रेस भी जमीन्दारों द्वारा किसानों का किए जा रहे शोषण से न केवल अवगत थी बल्कि इसे गलत भी मानती थी। किसान सभा छोटे किसानों, मजदूरों को अपने साथ लेकर चलने में असफल रही। किसान आन्दोलनों ने उनकी माँगों पर भी विशेष ध्यान नहीं दिया। जमीन्दारों के साथ ही ब्रिटिश सरकार द्वारा भी किसान आन्दोन को कमजोर करने का प्रयास किया गया। क्षेत्रीय स्तर पर किसानों की समस्याएँ भी अलग-अलग थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा क्षेत्रीय आधार पर किसानों की कुछ माँगों को स्वीकार कर इस आन्दोलन को कमजोर करने का प्रयास किया गया। इस प्रकार किसानों की आपसी फूट भी इस आन्दोलन को कमजोर करने में सहायक सिद्ध हुई। हालाँकि इस फूट के पीछे किसानों की निरक्षरता ही जिम्मेवार थी।

स्वामी सहजानन्द ब्रिटिश सरकार के साथ-साथ जमीन्दारों के विरुद्ध भी आन्दोलन चला रहे थे। लेकिन उनका मुख्य उद्देश्य था-शोषित और पीड़ित किसानों की मुक्ति। अतः किसान आन्दोलन में स्वामी सहजानन्द सरस्वती के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न -

1. स्वामी सहजानंद और किसान सभा आन्दोलन पर एक टिप्पणी लिखिए। (65वीं, बी.पी.एस.सी.)

Comments

Releted Blogs

Sign In Download Our App