By - Gurumantra Civil Class
At - 2024-07-27 23:55:30
बिहार में खिलाफत और असहयोग आन्दोलन
भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में खिलाफत तथा सहयोग आन्दोलन का स्थान काफी महत्वपूर्ण रहा है। इन दोनों आन्दोलनों ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नई दिशा दी तथा महात्मा गाँधी के नेतृत्व में प्रथम राष्ट्रव्यापी आन्दोलन को शुरुआत हुई। यह दोनों ही आन्दोलन अलग-अलग कारण से चलाया गया लेकिन दोनों की प्रवृत्ति एक जैसी ही थी।
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प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत में हिन्दू तथा मुसलमान दोनों अंग्रेजों से काफी असंतुष्ट थे। एक ओर युद्ध में तुर्की पर आक्रमण कर खलीफा को अपदस्थ करके अंग्रेजों ने मुसलमानों की भावना को ठेस पहुँचायी तो दूसरी ओर गुद्ध के बाद असंतुष्ट संवैधानिक सुधार, रौलेट एक्ट जैसे कानून ने सम्पूर्ण भारतीयों की आशाओं पर पानी फेर दिया। रही सही कसर जलियाँवाला बाग की घटना ने पूरी कर दी जिसमें हजारों निहत्थे लोगों की हत्या अकारण कर दी गई थी। इन्हीं सब कारणों से 1919 तथा 1922 ई के बीच खिलाफत एवं असहयोग आन्दोलन पूरे देश में चलाया गया। दोनों ही आन्दोलनों को महात्मा गाँधी ने अपना नेतृत्व प्रदान किया। इन दोनों हो आन्दोलनों के मध्य आपसी तालमेल बना रहा और इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता को भी बल मिला। इस कारण राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय प्रगति हुई।
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इन दोनों ही आन्दोलनों में बिहार ने काफी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। मौलाना मजहरूल हक के नेतृत्व में विहारवासियों ने इन आन्दोलन में काफी योगदान दिया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय मुसलमानों की सहानुभूति तुर्की के सुल्तान के प्रति रही। बिहार के गया, जहानाबाद, मुंगेर, पटना, पूर्णियाँ आदि क्षेत्रों में अनेक सभाएँ संगठित हुई और तुर्की के सुल्तान की सहायता के लिए कोष बनाया गया। मजहरूल हक इन कार्यों में सक्रिय रहे। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर 16 फरवरी, 1919 को पटना में हसन इमाम की अध्यक्षता में एक सभा हुई जिसमें खलीफा के प्रति मित्र देशों को सहयोगात्मक रवैया अपनाने की मांग को गई तथा इसके लिए लोकमत बनाने की बात कही गई। इसी बीच सेब्रे की संधि से भारतीय मुसलमानों का रोष बढ़ता गया। नवम्बर 1919 में गाँधी जी ने इस संधि के विरोध में शांति स्थापित करने वाले समारोहों का बहिष्कार करने को कहा। बिहार में इस कार्य के लिए 30 नवम्बर को पटना में हसन इमाम की अध्यक्षता में एक सभा हुई जिसमें ऐसे समारोहों के बहिष्कार का निर्णय लिया गया। 1920 ई० में इस आन्दोलन का तीव्र विकास हुआ और बिहार प्रदेश के अनेक मांगों में खिलाफत आन्दोलन फैल गया। 19 मार्च 1920 को सम्पूर्ण बिहार में मुसलमानों ने हड़ताल की। बिहार के अनेक शहरों में जैसे-भागलपुर, मुंगेर, डाल्टनगंज, आरा और मुजफ्फरपुर में खिलाफत आन्दोलन का व्यापक प्रभाव रहा।
अप्रैल 1919 में खिलाफत आन्दोलन के प्रमुख नेता मौलाना शौकत अली पटना आए। उनके आने तक भारत भर में खिलाफत और असहयोग आन्दोलन के रूप में ब्रिटिश सरकार के प्रति असहयोग का विचार विकसित हो चुका था। 1919 में अप्रैल और मई महीने में मजहरुल हक ने बिहार के अनेक शहरों की यात्रा की और जनसभाओं को सम्बोधित किया। 15 और 16 मई को फुलवारीशरीफ में मुस्लिम उलेमाओं का सम्मेलन हुआ जिसमें ब्रिटिश सरकार से असहयोग का प्रस्ताव पारित हुआ। इसी प्रकार का प्रस्ताव बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी तथा बिहार प्रादेशिक सभा ने भी पारित किए। जून महीने में पटना सिटी में गुलाम इमाम एवं अनेक सहयोगियों ने आम सभाओं को सम्बोधित करते हुए ब्रिटिश सरकार ये असहयोग करने की बात कही तथा तुर्की के साथ किए गए संधि की निन्दा की गई। इस समय तक खिलाफत एवं असहयोग आन्दोलन साथ-साथ सक्रिय हो चुका था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सितम्बर 1920 में असहयोग आन्दोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। लेकिन इसके पूर्व ही बिहार में असहयोग का प्रस्ताव पारित हो चुका था तथा बिहार के राष्ट्रवादियों ने सरकार से असहयोग आरम्भ कर दिया था। जब गाँधी जी ने राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की घोषणा की तो बिहार में भी आन्दोलन में सक्रियता आई। बिहार में 6 अप्रैल, 1919 को ही हड़ताल का आयोजन हुआ था। बिहार के छपरा, गया, मुजफ्फरपुर, मुंगेर, झरिया आदि जगहों पर इस हड़ताल का विशेष प्रभाव पड़ा। 11 अप्रैल को पटना में एक जनसभा का आयोजन किया गया जिसमें गाँधीजी की गिरफ्तारी का विरोध किया गया और सत्याग्रहियों ने प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इसी बीच जालियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में देशब्यापी जन आन्दोलन भड़क उठा और इसका व्यापक प्रभाव बिहार प्रदेश में भी देखा गया।
अगस्त 1920 में भागलपुर में राजेन्द्र प्रसाद के सभापतित्व में बिहार प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन की बैठक हुई जिसमें गाँधीजी के असहयोग के प्रस्ताव का अनुमोदन किया गया। ब्रजकिशोर प्रसाद के सुझाव पर स्वराज्य के मुद्दे को भी असहयोग आन्दोलन में शामिल कर लिया गया। इसके बाद ही विहार में असहयोग आन्दोलन का व्यापक दौर आरम्भ हुआ। अनेक शहरों में जैसे- पटना, मुजफ्फरपुर, छपरा, चम्पारण, मुंगेर, भागलपुर, गया, झरिया, कतरास आदि हड़ताल, जुलूस एवं प्रदर्शन द्वारा विरोध प्रकट किया गया। असहयोग आन्दोलन के क्रम में मजहरूल हक, राजेन्द्र प्रसाद, व्रजकिशोर प्रसाद, मोहम्मद शफी और अन्य नेताओं ने विधायिका के चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली। कई अधिकारियों ने त्यागपत्र दे दिया एवं वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया। छात्रों ने भी स्कूल, कॉलेजों का बहिष्कार किया। पटना लॉ कॉलेज के मुहम्मद शेर और बी एन कॉलेज के अब्दुल बारी एवं मुहम्मद शफी इनमें प्रमुख थे। इन छात्रों को शिक्षा का वैकल्पिक साधन उपलब्ध कराने के लिए पटना-गया रोड पर एक राष्ट्रीय महाविद्यालय की स्थापना की गई। राजेन्द्र प्रसाद इसके प्राचार्य बने। मजहरूल हक ने दीया के पार. सदाकत आश्रम की स्थापना की। यहाँ छात्रों द्वारा चरखा बनाने का काम प्रारम्भ हुआ। धीरे-धीरे यह सदाकत आश्रम बिहार में राष्ट्रीय आन्दोलन का केन्द्र बन गया। बाद में वही बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी का मुख्यालय बना। राष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र के रूप में बिहार के राष्ट्रीय महाविद्यालय के प्रांगण में ही बिहार विद्यापीठ का उद्घाटन 6 फरवरी, 1921 को गाँधीजी द्वारा किया गया। मजहरुल हक इसके कुलपति एवं ब्रजकिशोर प्रसाद कुलपति बने।
30 सितम्बर 1921 को मजहरूल हक ने सदाकत आश्रम से 'दि मदरलैंड' नामक एक अखबार निकालना प्रारम्भ किया। इसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय भावना का प्रसार, असहयोग कार्यक्रम का प्रचार और हिन्दू-मुस्लिम एकता का उपदेश देना था। ब्रिटेन के युवराज का आगमन 22 दिसम्बर 1921 को पटना में हुआ। राष्ट्रवादियों ने युवराज के आगमन का बहिष्कार करने का निर्णय किया। शहर में उस दिन पूर्ण हड़ताल रही। 1922 ई के आरम्भ तक आन्दोलन अपने चरम पर था। 5 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा कांड के बाद गाँधी जी ने आन्दोलन वापस ले लिया। गाँधी जी को तथा बाद में मजहरूल हक को गिरफ्तार कर लिया गया। अतः दोनों ही आन्दोलन ने बिहार में राजनैतिक चेतना जगाने में निर्णायक भूमिका निभाई।
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