By - Gurumantra Civil Class
At - 2024-07-27 23:47:52
मधुबनी (मिथिला पेटिंग)
बिहार में कला संस्कृति की परम्परा में मधुबनी पेंटिंग का स्थान अधिम पंक्ति में है। मिथिला क्षेत्र की इस चित्रकला का एक अलौकिक रचना संसार है जो पूरे मिथिलांचल के लोकजीवन की ऐतिहासिक संस्कृति की परम्परा में विद्यमान है। यह कला मिथिला के मधुबनी, दरभंगा, सहरसा और पूर्णियाँ जिले की समस्त लोकजीवन की कला है। मधुबनी चित्रकला का इतिहास पुराना है लेकिन इस कला को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति हाल के ही दशकों में मिलि है। यह एक लोक कला है जिसमें महिलाओं की पूर्ण भागीदारी रहती है।
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मधुबनी पेंटिंग के दो प्रकार हैं:
(क) भित्ति चित्र
(ख) अरिपन (भूमिचित्र)
भितिचित्र- इसके मुख्यतया दो रूप देखें जा सकते हैं:-
(i) गोसनी घर की सजावट
(ii) कोहबर घर की सजावट
सजावट - इसमें धार्मिक महत्त्व के चित्र होते हैं। धार्मिक भित्ति चित्र में शिव पार्वती, राधाकृष्ण,
(1) गोसनी घर की विष्णु-लक्ष्मी, राम-सीता, दशावतार, दुर्गा-काली की प्रमुखता रहती है। इन चित्रों के निर्माण में ब्राह्मण एवं काथस्थ परिवारों की मुख्य भूमिका रहती है।
(ii) कोहबर घर की सजावट कोहबर लेखन मिथिला की एक ज्यामितिक एवं तांत्रिक पद्धति की चित्रकला है जिसमें अनेक प्रतीक चिह्नों का निरूपण किया जाता है। कोहबर के बाहर रति एवं कामदेव के चित्र एवं अन्दर में पुरुष-नारी के जनन अंगों की आकृति तथा चारों कोणों पर यक्षिणी के चित्र बनाएँ जाते हैं। पशु-पक्षियों की आकृक्ति तथा चारो कोणों पर यक्षिणी के चित्र बनाए जाते हैं। पशु-पक्षियों की आकृक्ति प्रतीकात्मक रूप से बनाई जाती है जिसमें केला-मांसलता, मछली-कामोत्तेजना, सुग्गा-कामवाहक बांस-वंश वृद्धि, सिंह-शक्ति एवं हाथी-घोड़ा ऐश्वर्य का प्रतीक हैं।
2. अरिपन एवं चित्र अरिपन की परम्परा मिथिला में काफी प्रचलित है और इसमें मिथिला की संरकृति परिलक्षित होती है। यह परम्परा महिलाओं द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कृक्ति रूप में बढ़ती रही। यह आँगन या चौखट के सामने जमीन पर बनाये जाने वाले चित्र होते हैं जिन्हें बनाने में कूटे हुए चावल को पानी एवं रंग में मिलाया जाता है। इन चित्रों को ऊँगली से ही बनाया जाता है।
इन चित्रों को पाँच श्रेणियाँ निर्धारित की जा सकती है-
(क) मनुष्य और पशु-पक्षियों को दर्शाने वाले चित्र,
(ख) फूल, फल एवं वृक्षों के चित्र,
(ग) तांत्रिक प्रतीकों पर आधारित चित्र,
(घ) देवी-देवताओं के चित्र,
(ङ) स्वास्तिक, दीप आदि शुभ प्रतीकों के चित्र।
विभिन्न अवसरों से सम्बद्ध प्रसंग में अरिपन के अलग-अलग रूप प्रचलित है। जैसे-अविवाहित लड़कियों के लिए तुलसी पूजा के अवसर पर बनाए गए अरिपनों में ज्यामितीय आकारों विशेषकर त्रिकोणात्मक और आयताकार आकारों का अधिक प्रयोग होता है। विवाह एवं अन्य उत्सवों के अवसर पर पत्तियों के आकार का अधिक चित्रण होता है। मधुबनी पेंटिंग की शैलीगत विशेषता यह है कि चित्रों में चित्रित वस्तुओं का मात्र सांकेतिक स्वरूप ही निरूपित किया जाता है। चित्र मुख्यतया दीवारों पर ही बनाया जाता है। लेकिन हाल के वर्षों में कपड़े और कागज पर भी चित्रांकन की प्रवृत्ति बढ़ी है। चित्र ऊँगलियों से या बाँस की कूची से बनाया जाता है। उन्नत शैली के अभाव में लोक कल्पना की ऊँची उड़ान, कला से गहरा भावनात्मक लगाव और सुन्दर प्राकृक्तिक रंगों का प्रयोग इन चित्रों को विशेष आकर्षण प्रदान करता है। रंगों की विशिष्टता इसका दूसरा पक्ष है। यद्यपि अब व्यावसायिक दृष्टिकोण से कृत्रिम रंगों का भी प्रयोग होने लगा है। लेकिन शैलीगत विशिष्टता अभी भी प्राकृक्तिक रंगों में ही कायम है। इन चित्रों के लिए रंगों अधिकतर वनस्पतियों से ही प्राप्त किये जाते. हैं। हरा, पीला, केसरिया, नीला, नारंगी आदि रंग मुख्यतया प्रयुक्त हुए हैं। सेम के पत्ते से हरा, पलाश के फूलों से नारंगी, कुसुम के फूलों से लाल, नील से नीला, काजल से काला रंग प्राप्त किया जाता है। पीला रंग धरती, उजला रंग पानी, लाल रंग आग, काला रंग-वायु एवं नीला रंग आकाश के लिए प्रयुक्त होता है। विगत वर्षों में इस शैली की चित्रकला की लोकप्रियता बढ़ी है। इस शैली की मुख्य प्रतिनिधियों में पद्मश्री सिया देवी, कौशल्या देवी, गंगा देवी, जगदम्बा देवी, भगवती देवी, मैना देवी एवं लाल बाबा प्रमुख हैं।मधुबनी पेंटिंग के प्रमुख केन्द्र हैं- मधुबनी, लहेरिया सराय, भवानीपुर, राँची आदि। मधुबनी चित्रकला की प्रदर्शनी विदेशों में भी आयोजित की जा रही है। शशिकला देवी के चित्रों की प्रदर्शनी जापान में हो चुकी है। मिथिला की इस लोक चित्रकला को अन्तर्राष्ट्रीय कलेवर देने में एक जापानी व्यक्ति हासेगावा का नाम उल्लेखनीय है जिसने जापान में एक मिथिला संग्रहालय बनाया है। यहाँ मिथिला के दुर्लभ चित्रों को संकलित किया गया है। जर्मनी की शोधकर्ता एरिक स्मिथ ने भी इस चित्रकला पर शोध कार्य किया है। वर्तमान में मधुबनी शैली के चित्रकला को व्यापारोन्मुख बनाने के साथ-साथ पुरानी शैली में कुछ नवीनता का पुट भरने का प्रयास किया जा रहा है।
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