By - Gurumantra Civil Class
At - 2024-07-28 16:58:33
मौर्य कला
भारतीय इतिहास में भौर्य काल में ही सर्वप्रथम कला के उत्कृष्ट रूप दिखाई पड़ते हैं। हालांकि इससे पूर्व का भारतीय इतिहास भी कला की दृष्टि से समृद्ध रहा है। खासकर हड़प्पा काल में उच्च स्तर की मूर्तिकला एवं वास्तुकला का अस्तित्व था। फिर भी मौर्य पूर्व युग में लकड़ी, मिट्टी और पास-फूस का कलात्मक वस्तु के निर्माण में उपयोग होता था जिस कारण आज ये वस्तुएँ हमें प्राप्त नहीं है। मौर्य युग में ही सर्वप्रथम कला के क्षेत्र में पाषाण का व्यापक किया गया, फलस्वरूप ये कलाकृतियाँ चिरस्थायी हो गई।
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मौर्ययुगीन कला को दो भागों में बाँटा जा सकता है:-
1.राजकीय कला
2.लोककला
1.राजकीय कला-
A.चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन-कुम्हार से प्राप्त राजप्रसाद
B.अशोक कालीन- स्तूप/स्तम्भ बराबर की पहड़ियों में गुफा
C.दशरथ कालीन-नागार्जुनी पहाड़ी में गुफा
2.लोककला-
यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ
(क) दरबारी अथवा राजकीय कला इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण मगध सम्राट चन्द्रगुप्त का पाटलिपुत्र स्थित राजप्रसाद है। कुम्हरार (पटना) स्थित सभा भवन के अवशेष से इसकी विशालता का अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह भवन अनेक खम्भों वाला एक विशाल हॉल था जिनमें 84 पाषाण स्तम्भ पाए गए हैं। सभा भवन 140 फुट लम्बा एवं 120 फुट चौड़ा था। अशोक ने इस काष्ठ प्रासाद का विस्तार किया एवं इसमें पाषाणों का उपयोग किया। चौनी यात्री फाहियान ने इसे देखकर 'देवनिर्मित महल' कहा था।
अशोक तक आते-आते हमें मौर्यकला के अधिक अवशेष मिलने लगते हैं। इस समय की कलाकृक्तियों को चार भागों में बाँटा जा सकता है:-
1. स्तम्भ :- ये मौर्यकालीन कला के सर्वोत्तम निदर्शन हैं। इन स्तम्भों की संख्या निश्चित नहीं है। सम्भवतः ये 30 से 4 की संख्या में रहे होंगे। इनमें 15 सुरक्षित हैं।
ये स्तम्भ दो प्रकार की हैं -
(i) जिन पर धम्म लिपियाँ खुदी हुई हैं
(ii) सादे स्तम्भ
प्रथम प्रकार में दिल्ली-मेरठ, दिल्ली-टोपरा, इलाहाबाद, लौरिया नन्दनगढ़ लौरिया अरेराज, रामपुरवा, साँची, सारनाथ, लुम्बिनी आदि जगहों के स्तम्भ है। जबकि दूसरे प्रकार में रामपुरवा (बैल शीर्ष), बसाढ़, कोसम आदि के स्तम्भ हैं। सभी स्तम्भ चमकदार, लम्बे, सुडौल एवं एकाश्मक हैं और नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः पतले हैं।
स्तम्भ के मुख्य भाग-
1.स्थूण या यष्टि
शीर्ष-अधोमुख कमलाक्ति, फलक, स्तम्भ को मंडित करने वाली पशु आङ्क्ति
स्थूण एवं शीर्ष दोनों अलग-अलग हैं। सभी स्तंभ अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र हैं एवं खुले आकाश के नीचे खड़े हैं। न स्तम्भों की लम्बाई 35 से 50 फीट तथा वजन लगभग 50 टन है। सभी स्तम्भों पर ऐसी चमकदार पॉलिश है कि आज भी सांगत को उनके धातु निर्मित होने का श्रम होता है। स्तम्भ शीर्ष पर फलक के ऊपर विभिन्न पशु आकृतियाँ यथा- हंस, सिंह, हाथी, बैल, आदि मिलती है। स्तम्भ शीषों में सारनाथ का सिंह शीर्ष सर्वोतम है। स्वतंत्र भारत सरकार ने अपना राजचिह्न इरो ही बनाना है। यह शीर्ष सात फुट ऊंचा है। इस पर चार भव्य सिंह पीठ से पीठ सटाणे खड़े हैं। ये सिंह चक्रवर्ती सम्राट अशोक की रात्रि। अथवा साक्य-सिंह युद्ध की शक्ति के प्रतीक हैं जो जन्मजात चक्रवर्ती थे।
इस तरह अशोक स्तम्भ वास्तु एवं तक्षण दोनों ही दृष्टि से कलात्मकता में बेजोड़ हैं।
2. स्तूप :-
स्तूप ईंट अथवा प्रस्तर के बने ठोस गुम्बद होते थे। इन्हें बौद्ध और जैन किसी पवित्र स्थान पर स्मारक स्वरूप निर्मित करते थे। अशोक स्वयं बड़े-बड़े स्तूपों का महान निर्माता था। परम्परानुसार उसने 84 हजार स्तूप का निर्माण कराया था। आज अशोक निर्मित स्तूप गिनती के ही शेष बचे हैं। साँची के महान स्तूप को मूलतः अशोक निर्मित माना जाता है। इसक अतिरिक्त तक्षशिक्षा स्थित धर्मराजिका स्तूप भी मूलतः अशोक ने ही बनवाया था।
3. पाषाण वेदिका:
मौर्यकालीन स्तूप एवं विहार वेदिकाओं से घिरे होते थे। इनमें से कुछ के भग्नावशेष मिले हैं। बोध गया एवं सारनाथ से अशोक कालीन वैदिकाओं के अवशेष मिले हैं। पाटलिपुत्र की खुदाई से तीन वेदिकाओं के टुकड़े मिले हैं इन जो अपनी चमकीली पॉलिश के कारण मौर्यकालीन माने जाते हैं।
4. गुहा विहार :-
अशोक और उसके पौत्र दशरथ ने भिक्षुओं के रहने के लिए गुफाओं के रूप में विहार बनवाए थे। इन सुन्दर गुफाओं का एक समूह गया से 16 मील उत्तर बराबर पहाड़ी में है। यहाँ सुदामा गुफा तथा कर्ण चौपड़ गुफा काफी प्रसिद्ध है। दशरथ के समय निर्मित लोभेश ऋषि की गुफा भी उल्लेखनीय है। नार्जुनी समूह में गोपिका गुफा महत्त्वपूर्ण है जिसे दशरभ ने अपने अभिषेक वर्ष में बनवाया था। मौर्यकालीन इन्हीं गुफाओं के अनुकरण पर कालान्तर में पश्चिमी भारत में अनेक चैत्वगृहों का निर्माण किया गया।
मूर्त्तिकला :
मौर्यकालीन मूर्तिकला के सर्वोत्तम नमूने अशोक स्तम्भों को मंडित करनेवाली विभिन्न पशुओं की आकृत्तियों में उपलब्ध हैं। उड़ीसा की धौली चट्टान को काटकर बनाई गई हाथी की आकृक्ति पाषाण मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं जिसके अग्र भाग को उकेरा गया है। इसी प्रकार कालसी (देहरादून) की चट्टान पर एक हाथी को आकृक्त्ति उभरी है जिसके पैरों के बीचो-बीच ब्राह्मी लिपि में 'गजतमे' ऑकत है। परखंम गाँव से प्राप्त यक्ष की मूर्ति, बेसनगर से प्राप्त यक्षिणी की मूत्तिं भी मूर्तिकला के श्रेष्ठ प्रमाण हैं। पटना के दीदारगंज से प्राप्त चामरग्राहिणी मूर्ति भी महत्त्वपूर्ण है। पटना से एक जैन तीर्थंकर की मूर्ति भी मिली है।
लोक कला :-
इस काल में दरबार से बाहर स्वतंत्र कलाकारों ने भी लोकरुचि को वस्तुओं का निर्माण किया। मूर्तिकला के श्रेष्ठ नमूने इसी लोक कला के प्रमाण हैं। यक्ष यक्षिणी प्रतिमाएँ लोक धर्म का प्रमुख आधार थीं। इन सभी प्रतिमाओं पर चमकदार पॉलिश की गई है। इसके अतिरिक्त सारनाथ, मथुरा, हस्तिनापुर, बसाढ़, कौसाम्बी, कुम्हरार आदि अनेक स्थानों से विभिन्न पशु-पक्षियों यथा-हाथी, घोड़ा, बैल भेड़, कुत्ता, हिरण, मोर, तोता आदि तथा नर-नारियों की मृण्मूर्तियाँ काफी संख्या में मिली है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मौर्यकालीन कला विविध आयाभों से परिपूर्ण तो थी ही, साथ ही अपनी कल्पना शक्ति शिल्प, प्रविधि, रचनाशीलता में भी समृद्ध थी।
विगत वर्षों में पूछे गए प्रश्न
1. मौर्य कला तथा भवन निर्माण कला की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए और बौद्ध धर्म के साथ उनके संबंध पर भी प्रकाश डालिए।
(64वीं, बी.पी.एस.सी.)
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