By - Gurumantra Civil Class
At - 2024-08-07 16:04:42
बिहार की आयरनलेडी : सरस्वती देवी
स्वतंत्रता संग्राम में जेल जाने वाली पहली बिहारी महिला
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सरस्वती देवी को बिहार की आयरन लेडी के नाम से जाना जाता था। उनका जन्म 5 फरवरी 1901 को अविभाजित बिहार के हजारीबाग (अब झारखंड में) जिले के बिहारी दुर्गा मंडप के पास हुआ था। इनके पिता राय विष्णु दयाल लाल सिन्हा संत कोलंबा महाविद्यालय, हजारीबाग में उर्दू, फारसी एवं अरबी भाषा के अध्यापक थे। जब वह ग्यारह साल की थीं, तब उनकी माँ की मृत्यु हो गई। सरस्वती देवी का विवाह मात्र तेरह साल की उम्र में हजारीबाग के दारू गांव के केदारनाथ सहाय के साथ हुआ। विवाह के बाद सरस्वती देवी अपनी ससुराल आ गईं। केदारनाथ सहाय वकील थे। इसके साथ ही वह डा. राजेंद्र प्रसाद की बिहार स्टूडेंट वेलफेयर सोसाइटी से भी जुड़े थे। इस कारण वेलफेयर सोसाइटी के कई कार्यकर्ता उनके यहां आया-जाया करते थे। सरस्वती देवी की इन लोगों से बराबर बातचीत होती रहती थी।
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सरस्वती देवी कम उम्र में ही राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गईं। अपने छात्र जीवन में, वे बिहार और उड़ीसा के अलग-अलग प्रांतों के निर्माण की रोमांचक घटनाओं और 1917 में चंपारण की ऐतिहासिक भूमि पर यूरोप के दमनकारी नील बागान मालिकों पर महात्मा गांधी की शानदार जीत से प्रेरित थीं। गांधी के असहयोग आंदोलन (1920-22) की शुरुआत के साथ ही उनका राजनीतिक जीवन शुरू हो गया।
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दरअसल, सरस्वती देवी सोसाइटी के लोगों से देश की आजादी पर भी चर्चा करती रहती थीं। सरस्वती देवी ने स्वाधीनता आंदोलन में प्रवेश करने की इच्छा जताई और वह वर्ष 1916-17 में ही स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गई थीं। वर्ष 1921 में गांधीजी के आह्वान पर सरस्वती देवी ने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया था। उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल भेज दिया गया।
वह स्वाधीनता आंदोलन में अविभाजित बिहार से जेल जाने वाली पहली महिला थीं ।
जेल से बाहर आने के बाद सरस्वती देवी हजारीबाग के कृष्ण बल्लभ सहाय, बजरंग सहाय, त्रिवेणी सिंह आदि स्वाधीनता सेनानियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलीं। महात्मा गांधी को वर्ष 1925 में हजारीबाग लाने का श्रेय भी सरस्वती देवी को ही जाता हे। गांधीजी रांची स्थित दरभंगा हाउस में ठहरे थे। हजारीबाग से सरस्वती देवी जी के साथ बाबू राम नारायण सिंह और त्रिवेणी प्रसाद रांची आए। सूरत बाबू ने अपना वाहन उपलब्ध कराया।
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गांधीजी को लेकर सरस्वती देवी अपने निवास पर आईं। उस वक्त उनका बड़ा बेटा टाइफाइड से ग्रस्त था। सरस्वती देवी ने महात्मा गांधी से कहा कि आप इसके सिर पर हाथ रख दीजिए, यह ठीक हो जाएगा। इस पर गांधीजी ने कहा कि मैं कोई चमत्कारी बाबा नहीं हंू, पर सरस्वती देवी के आग्रह पर गांधीजी ने उनके पुत्र के सिर पर हाथ रखा। इसके उपरांत महात्मा गांधी ने रात्रि विश्राम सूरत बाबू के निवास स्थान पर किया। फिर मटवारी मैदान में आमसभा आयोजित की गई, जिसमें महात्मा गांधी ने लोगों को संबोधित किया और चरखा-आजादी का मतलब समझाया।
सरस्वती देवी देश की आजादी में पूरे प्राण प्रण से लगी थीं। उनका अहिंसक आंदोलन गति पकड़ रहा था। लोग उनसे जुड़ रहे थे। अंग्रेजी सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्हें वर्ष 1929 में गिरफ्तार कर भागलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया। उस समय उनके साथ उनके छोटे पुत्र द्वारिका नाथ सहाय भी थे जो एक वर्ष के थे। इसलिए वह अपने साथ बच्चे को भी जेल ले गई थीं।जेल से इन दोनों की रिहाई वर्ष 1931 में हुई। जेल से बाहर आने के बाद वह फिर से खादी और चरखा के प्रचार में जुट गईं। आठ मार्च, 1931 को चैनपुर के डुमरी में सभा हुई, जिसे बजरंग सहाय, केबी सहाय और सरस्वती देवी ने संबोधित किया। इस सभा में करीब छह सौ संताली मौजूद थे। इस सभा में गांव-गांव कांगेे्रस कमेटी के गठन पर बल दिया गया। फिर नौ मार्च, 1931 को लगभग तीन सौ लोगों की भीड़ में सरस्वती देवी ने भाषण दिया। इस सभा में छोटानागपुर के बाबू राम नारायण सिंह और बजंरग सहाय भी उपस्थित थे।
वर्ष 1940 में रामगढ़ कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन से लौटने के क्रम में डा. राजेंद्र प्रसाद बीमार पड़ गए थे और दो दिन तक सरस्वती देवी के निवास स्थान पर रहे थे। दो साल बाद वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सभी राष्ट्रीय नेता गिरफ्तार कर लिए गए, किंतु सरस्वती देवी की गिरफ्तारी नहीं हो पाई थी।सरस्वती देवी चुपके से संत कोलंबा महाविद्यालय, हजारीबाग पहुंचीं। महाविद्यालय जाकर उन्होंने छात्रों के बीच यह कहा कि सारे नेता जेल भेज दिए गए हैैं और आप क्लास कर रहे हैं और उन्होंने छात्रों के सामने चूडिय़ां फेंक दीं। इस पर सभी छात्र उनके पीछे आ गए और दिनभर शहर में घूम-घूमकर नारेबाजी एवं हंगामा करते रहे। शाम को सरस्वती देवी को भी गिरफ्तार कर भागलपुर जेल भेज दिया गया।जब वह जेल जा रही थीं तब भागलपुर के छात्रों द्वारा काफी विरोध किया गया। इस पर ब्रिटिश प्रशासन ने उन्हें मुक्त कर दिया। मुक्त होने के तुरंत बाद सरस्वती देवी ने भागलपुर के एक मैदान में जोशीला भाषण दिया। इस पर वह यहां से फिर गिरफ्तार कर ली गईं। उनके बड़े पुत्र रामशरण सहाय भी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए थे। इसलिए रामशरण को भी हजारीबाग से वर्ष 1942 में गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल में और फिर वर्ष 1943 में कैंप जेल बांकीपुर, पटना भेज दिया गया। सरस्वती देवी व उनके पुत्र वर्ष 1944 में जेल से रिहा हुए।
हजारीबाग में कांग्रेस का कार्यालय सरस्वती देवी के निवास स्थान पर ही चलता था। एक बार खान अब्दुल गफ्फार खान भी उनके निवास स्थित कांग्रेस कार्यालय में रुके थे। खान साहब हजारीबाग केंद्रीय जेल से वर्ष 1940 में रिहा किए गए। रिहाई के बाद उन्हें प्रशासन की तरफ से थर्ड क्लास का रेलवे का एक टिकट मुहैया कराया गया। उन्होंने उस टिकट को फाड़ दिया और सरस्वती देवी के यहां चार दिन रुके रहे। इस बात की खबर तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष बाबू अनुग्रह नारायण सिंह को दी गई। इस पर उन्होंने खान साहब के लिए एक गाड़ी भेजकर उन्हें पटना बुलाया और वहां से दिल्ली भेज दिया।
1945 में सरस्वती देवी ने चरखा और खादी उत्पादन के उपयोग के लिए प्रचार कार्य को गति दी। 1947 में उन्हें बिहार विधानमंडल के निचले सदन के सदस्यों द्वारा उच्च सदन का सदस्य चुना गया।
15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ था तो सरस्वती देवी ने पूरे हजारीबाग में घूम-घूमकर मिठाइयां बांटी थीं। आजादी के बाद मोहम्मद अली जिन्ना की अगुवाई में देश का बंटवारा हो जाने के उपरांत पाकिस्तान स्थित पूर्वी बंगाल के नोआखाली में हिंदू-मुस्लिम दंगा छिड़ गया था। इसमें हिंदुओं का व्यापक रूप से कत्लेआम हुआ था। इसकी खबर मिलते ही सरस्वती देवी दंगा शांत कराने के लिए नोआखाली के लिए चल पड़ीं। वहां जाने के क्रम में कलकत्ता (अब कोलकाता) में उनकी मुलाकात गांधीजी से हुई। गांधीजी ने उन्हें यह कहकर कि सरस्वती, तुम मेरी बेटी हो, मैं तुम्हे वहां जाने की इजाजत नहीं दूंगा। मैं भी वहां रहा हूं, पर मुझ पर भी हमला हो सकता है। इस पर वह कलकत्ता में ही रुक गई थीं और कलकत्ता के तारकेश्वर धाम (शिव मंदिर) में शांति के लिए 21 दिन का उपवास रखा था।स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वर्ष 1947 से 52 तक वह भागलपुर से एमएलए रहीं। बाद में वह भागलपुर से एमएलसी भी चुनी गईं। हालांकि स्वास्थ्य कारणों के चलते वर्ष 1952 में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया था। इसके बाद कुछ दिनों तक तीर्थाटन किया और मथुरा और अयोध्या की यात्रा की। 10 दिसंबर, 1958 को मात्र 57 वर्ष की उम्र में वह इस दुनिया से विदा हो गईं।
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