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स्वामी सहजानंद सरस्वती जीवन वृतांत

By - Gurumantra Civil Class

At - 2024-08-15 23:44:09

भारत में किसान आंदोलन के जनक स्वामी सहजानंद सरस्वती का जीवन वृतांत 

 

स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर किसान परिवार मे हुआ था। चूंकि स्वामी जी की माता जी का देहान्त स्वामी जी के जन्म के कुछ समय पश्चात ही हो गया था, इसलिए स्वामी जी की माँ का नाम अज्ञात है।

भूमिहार ब्राह्मणों से जुड़ जाने के कारण उनकी आरम्भिक राजनैतिक गतिविधियाँ अधिकतर बिहार तथा उत्तर प्रदेश में केन्द्रित थीं और अखिल भारतीय किसान सभा के निर्माण के बाद पूरे भारत में फैलीं। उन्होंने पटना के निकट बिहटा में एक आश्रम बनाया था जहाँ से अपने जीवन के उत्तरार्ध के सारे काम संचालित करते थे।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती का बचपन का नाम नौरंग राय था।

उनके पिता बेनी राय सामान्य किसान थे। बचपन में हीं माँ का साया उठ गया। लालन-पालन चाची ने किया। जलालाबाद के मदरसे में आरंभिक शिक्षा हुई। मेधावी नौरंग राय ने मिडिल परीक्षा में पूरे उत्तर प्रदेश में छठा स्थान प्राप्त किया। सरकार ने छात्रवृत्ति दी। पढ़ाई के दौरान ही उनका मन अध्यात्म में रमने लगा। घरवालों ने बच्चे की स्थिति भांप कर शादी करा दी। संयोग ऐसा रहा कि पत्नी एक साल बाद ही चल बसीं। परिजनों ने दूसरी शादी की बात निकाली तो वे भाग कर काशी चले गये।

वहाँ शंकराचार्य की परंपरा के स्वामी अच्युतानन्द से दीक्षा लेकर संन्यासी बन गये। बाद के दो वर्ष उन्होंने तीर्थों के भ्रमण और गुरु की खोज में बिताया। 1909 में पुनः काशी पहुंचकर दंडी स्वामी अद्वैतानन्द से दीक्षा ग्रहणकर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने। इसी दौरान उन्हें काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई से सामना हुआ। दरअसल काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके सन्न्यास पर सवाल उठा दिया। उनका कहना था कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है। स्वामी सहजानंद ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और विभिन्न मंचों पर शास्त्रार्थ कर ये प्रमाणित किया कि भूमिहार भी ब्राह्मण ही हैं और हर योग्य व्यक्ति सन्न्यास ग्रहण करने की पात्रता रखता है। काफ़ी शोध के बाद उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण परिचय नामक ग्रंथ लिखा जो आगे चलकर ब्रह्मर्षि वंश विस्तर के नाम से सामने आया। इसके ज़रिये उन्होंने अपनी धारणा को सैद्धांतिक जामा पहनाया। सन्न्यास के तदुपरांत उन्होंने काशी और दरभंगा में कई वर्षो तक संस्कृत साहित्य, व्याकरण, न्याय और मीमांसा का गहन अध्ययन किया। साथ-साथ देश की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के अध्ययन भी करते रहे।

स्वामी सहजानंद के समग्र जीवन पर नजर डालें तो मोटे तौर पर उसे तीन खंडों में बांटा जा सकता है। पहला खंड है जब वे सन्न्यास धारण करते हैं, काशी में रहते हुए धार्मिक कुरीतियों और बाह्यडम्बरों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलते हैं। निज जाति गौरव को प्रतिष्ठापित करने के लिए भूमिहार ब्राह्मण महासभा के आयोजनों में शामिल होते हैं। उनका ये क्रम सन् 1909 से लेकर 1920 तक चलता है। इस दौरान काशी के अलावा उनका कार्यक्षेत्र बक्सर ज़िले का डुमरी, सिमरी और ग़ाज़ीपुर का विश्वम्भरपुर गांव रहता है। काशी से उन्होंने भूमिहार ब्राह्मण नामक पत्र भी निकाला।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती 20वीं सदी के भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों में मूर्धन्य हैं। वर्तमान उत्तरप्रदेश के गाज़ीपुर जिले में जन्में स्वामी सहजानंद आदि शंकराचार्य सम्प्रदाय के दसनामीसंन्यासी अखाड़े के दण्डी संन्यासी भी थे| भारत में किसान के हित की बात करने और उनके लिए आवाज़ उठाने की वजह से स्वामी जी प्रमुख रूप से याद किये जाते हैं।जननायक संन्यासी और युगद्रष्टा स्वामी जी ने अपने कर्तृत्व एवं लेखनी के माध्यम से समाज के दिशा-निर्देशन का महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके जीवन यात्रा का मूल्याङ्कन एक बुद्धिजीवी लेखक, समाज-सुधारक, क्रान्तिकारी, इतिहासकार एवं किसान.नेता के रूप में किया जा सकता है। 

सरस्वती ने 1937-1938 में बिहार में बकाश्त आंदोलन का आयोजन किया। "बकाश्त" का अर्थ है स्व-खेती। यह आंदोलन ज़मींदारों द्वारा बकाश्त की ज़मीन से काश्तकारों को बेदखल करने के खिलाफ़ था और इसके कारण बिहार काश्तकारी अधिनियम और बकाश्त भूमि कर पारित हुआ। उन्होंने बिहटा में डालमिया चीनी मिल में सफल संघर्ष का भी नेतृत्व किया, जहाँ किसान-मज़दूर एकता सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सरस्वती की गिरफ़्तारी की ख़बर सुनकर, सुभाष चंद्र बोस और ऑल इंडिया फ़ॉरवर्ड ब्लॉक ने ब्रिटिश राज द्वारा उनकी कैद के विरोध में 28 अप्रैल को अखिल भारतीय स्वामी सहजानंद दिवस के रूप में मनाने का फ़ैसला किया।

सुभाष चंद्र बोस ने उनके बारे में कहा: "स्वामी सहजानंद सरस्वती हमारे देश में एक ऐसा नाम है, जिसे याद रखना चाहिए। भारत में किसान आंदोलन के निर्विवाद नेता, वे आज जनता के आदर्श और लाखों लोगों के नायक हैं..."

हुंकार हिंदी पत्रिका थी जिसका प्रकाशन स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किया था। यह साप्ताहिक रूप से प्रकाशित होती थी। इसका प्रकाशन पटना से होता था। इसका प्रकाशन 1940 के दौरान हिंदी साहित्यकारों जैसे पंडित यमुना कारजी के साथ-साथ राहुल सांकृत्यायन और अन्य के नेतृत्व में हुआ था।

 हुंकार बाद में बिहार में किसान आंदोलन का मुखपत्र बन गया और आंदोलन को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।1929 में, उन्होंने अपने कब्जे के अधिकारों पर जमींदारी हमलों के खिलाफ किसानों की शिकायतें जुटाने के लिए बिहार प्रांतीय किसान सभा का गठन किया। उन्होंने 1937-1938 के दौरान बिहार में बकाश्त आंदोलन का आयोजन किया। यहाँ "बकाश्त" का अर्थ स्व-संवर्धित है।

महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेज़ी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर प्रभावी आंदोलन खड़ा करने का काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में किसान आंदोलन शुरू करने का श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को ही जाता है। एक ऐसा दंडी संन्यासी जिसे भगवान का दर्शन भूखे, अधनंगे किसानों की झोपड़ी में होता है, जो परंपारनुपोषित सन्न्यास धर्म का पालन करने की बजाय युगधर्म की पुकार सुन भारत माता को ग़ुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़ता है, लेकिन अन्न उत्पादकों की दशा देख अंग्रेज़ी सत्ता के भूरे दलालों अर्थात देसी ज़मींदारों के ख़िलाफ़ भी संघर्ष का सूत्रपात करता है। एक ऐसा संन्यासी, जिसने रोटी को ही भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया।

स्वामीजी के जीवन का दूसरा अध्याय तब शुरू होता है, जब 5 दिसम्बर 1920 को पटना में कांग्रेस नेता मौलाना मजहरुल हक के आवास पर महात्मा गांधी से उनकी मुलाकात होती है। गांधीजी के अनुरोध पर वे कांग्रेस में शामिल होते हैं। साल के भीतर हीं वे ग़ाज़ीपुर ज़िला कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गये और कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में शामिल हुए। अगले साल उनकी गिरफ्तारी और एक साल की कैद हुई। जेल से रिहा होने के बाद बक्सर के सिमरी और आसपास के गांवों में बड़े पैमाने पर चरखे से खादी वस्त्र का उत्पादन कराया। ब्राह्मणों की एकता और संस्कृत शिक्षा के प्रचार पर उनका ज़ोर रहा। सिमरी में रहते हुए सनातन धर्म के जन्म से मरण तक के संस्कारों पर आधारित 'कर्मकलाप' नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की हिन्दी में रचना की। काशी से कर्मकलाप का प्रकाशन किया।

महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन जब बिहार में गति पकड़ा तो सहजानंद उसके केन्द्र में थे। घूम-घूमकर उन्होंने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ लोगों को खड़ा किया। इसी दौरान स्वामी जी को लगा कि बिहार के गांवों में ग़रीब लोग अंग्रेज़ों से नहीं वरन् गोरी सत्ता के इन भूरे दलालों से आतंकित हैं। किसानों की हालत ग़ुलामों से भी बदतर है। युवा संन्यासी का मन एक बार फिर से नये संघर्ष की ओर उन्मुख हुआ। वे किसानों को लामबंद करने की मुहिम में जुट गये। 17 नवंबर, 1928 को सोनपुर में उन्हें बिहार प्रांतीय किसान सभा का अध्यक्ष चुना गया। इस मंच से उन्होंने किसानों की कारुणिक स्थिति को उठाया। एक साथ जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने और ज़मीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की। अप्रैल, 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में 'अखिल भारतीय किसान सभा' की स्थापना हुई और स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया।

स्वामी सहजानंद ने नारा दिया था-

 

"जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो क़ानून बनायेगा

ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वहीं चलायेगा।"

कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने किसानों को जमींदारों के शोषण और आतंक से मुक्त कराने का अभियान जारी रखा। उनकी बढ़ती सक्रियता से घबड़ाकर अंग्रेज़ों ने उन्हें जेल में डाल दिया। कारावास के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी चेलों की सुविधाभोगी प्रवृत्ति को देखकर स्वामीजी हैरान रह गये। कांग्रेस के नेता कारावास के दौरान सुविधा हासिल करने के लिए छल-प्रपंच का सहारा ले रहे थे। स्वभाव से हीं विद्रोही स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया। इस दौरान एक और घटना हुई। 1934 में जब बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ तब स्वामीजी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के काम में भाग लिया।लेकिन किसानों जमींदारों के अत्याचार से पीड़ित थे। जमींदारों के लठैत किसानों को टैक्स भरने के लिए प्रताड़ित कर रहे थे। पटना में कैंप कर रहे महात्मा गांधी से मिलकर स्वामीजी ने ये हाल सुनाया। कहते हैं कि गांधीजी ने दरभंगा महाराज से मिलकर किसानों के लिए ज़रूरी अन्न का बंदोबस्त करने के लिए स्वामीजी को कहा। ऐसा सुनना था कि स्वामी सहजानंद गुस्से में लाल हो गये और चले गये। जाते-जाते उन्होंने गांधीजी को कह दिया कि अब आपका और मेरा रास्ता अलग-अलग है। स्वामीजी का मानना था कि जो राजे-रजवाड़े और ज़मींदार अंग्रेजों की सरपरस्ती कर रहे हैं, उनसे किसानों का भला नहीं हो सकता है। चाहे वो दरभंगा महाराज ही क्यों न हो। इसी प्रकरण के बाद सहजानंद ने कांग्रेस में अपनी सक्रियता कम कर दी और किसान सभा के कार्य में मन-प्राण से जुट गये।

स्वामीजी के जीवन का तीसरा चरण तब शुरू होता है जब वे कांग्रेस में रहते हुए किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को हीं जीवन का लक्ष्य घोषित करते हैं। उन्होंने नारा दिया- कैसे लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा ज़िन्दाबाद । बाद में यहीं नारा किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया। वे कहते थे - अधिकार हम लड़ कर लेंगे और जमींदारी का खात्मा करके रहेंगे। उनका ओजस्वी भाषण किसानों पर गहरा असर डालता था। काफ़ी कम समय में किसान आंदोलन पूरे बिहार में फैल गया। स्वामीजी का प्रांतीय किसान सभा संगठन के तौर पर खड़ा होने के बजाए आंदोलन बन गया। हर ज़िले और प्रखण्डों में किसानों की बड़ी-बड़ी रैलियां और सभाएँ हुईं। बाद के दिनों में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिलाया। सर्वश्री एम जी रंगा, ई एम एस नंबूदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी जैसे वामपंथी और समाजवादी नेता किसान आंदोलन के अग्रिम पंक्ति में। आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे तब के कई नामी चेहरे भी किसान सभा से जुड़े थे। वामपंथी रुझान के चलते सीपीआई उन्हें अपना समझती रही और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ भी वे अनेक रैलियों में शामिल हुए। आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो नेताजी ने पूरे देश में 'फ़ारवर्ड ब्लॉक' के ज़रिये हड़ताल कराया।

जमींदारी प्रथा के ख़िलाफ़ लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून ,1950 को मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये। आज़ादी मिलने के साथ ही सरकार ने क़ानून बनाकर ज़मींदारी राज को खत्म कर दिया। मरणोपरांत ही सही स्वामी जी की सबसे बड़ी मांग पूरी हो गयी, लेकिन किसानों को सुखी-समृद्ध और खुशहाल देखने की उनकी इच्छा पूरी न हो सकी। वैश्वीकरण की आंधी ने तो अब किसानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर छोड़ दिया है। किसान पहले से कहीं ज़्यादा असंगठित हैं और कर्ज़ के बोझ तले दबकर आत्महत्या करने को विवश हैं। देश में किसानों के संगठन कई हैं, लेकिन एक भी नेता ऐसा नहीं है, जो किसानों में सर्वमान्य हो और जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो। ऐसे समय में स्वामी सहजानंद और ज़्यादा याद आते हैं, जिन्होंने किसान को संगठित और शोषण मुक्त बनाने में अपना सम्पूर्ण जीवन बलिदान कर दिया। उनके निधन के साथ हीं भारतीय किसान आंदोलन का सूर्य अस्त हो गया। राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में दलितों का संन्यासी चला गया। स्वामीजी द्वारा प्रज्जवलित ज्योति की लौ मद्धिम ज़रूर पड़ी है, बुझी नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे किसान-मज़दूर आंदोलन इसके उदाहरण हैं।

स्वामी सहजानन्द की पुण्य स्मृति में उनके गृह जनपद गाजीपुर (उ०प्र०) में स्वामी सहजनन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय स्थापित है।

स्वामी सहजानंद ने पटना के समीप बिहटा में सीताराम आश्रम स्थापित किया जो किसान आंदोलन का केन्द्र बना। वहीं से वे पूरे आंदोलन को संचालित करते रहे। संघर्ष के साथ-साथ स्वामी जी सृजन के भी प्रतीक पुरुष थे। अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद स्वामीजी ने सृजन का कार्य जारी रखा। दो दर्जन से ज़्यादा पुस्तकों की रचना की। मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी लिखी।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य - 

  • 1889 : ई. महाशिवरात्रि के दिन गाजीपुर जिले के देवा ग्राम में जन्म।
  • 1892 : ई. माता का देहान्त।
  • 1898 : ई. जलालाबाद मदरसा में अक्षरारम्भ।
  • 1901 : ई. लोअर तथा अपर प्राइमरी की 6 वर्ष की शिक्षा 3 वर्षों में समाप्त।
  • 1904 : ई. मिडिल परीक्षा में सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में छठा स्थान प्राप्त कर छात्रवृत्ति प्राप्ति।
  • 1905 : विवाह (वैराग्य से बचाने के लिए)
  • 1906 : पत्नी का स्वर्गवास।
  • 1907 : पुन: विवाह की बात जानकर महाशिवरात्रि को घर से निष्क्रमण तथा काशी पहुँचकर दसनामी संन्यासी स्वामी अच्युतानन्द से प्रथम दीक्षा प्राप्त कर संन्यासी बने।
  • 1908 : प्राय: वर्षपर्यन्त गुरु की खोज में भारत के तीर्थों का भ्रमण।
  • 1909 : पुन: काशी पहुँचकर दशाश्वमेध घाट स्थित श्री दण्डी स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती से दीक्षा ग्रहण कर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती बने।
  • 1910 :  1910 से 1912 तक-काशी तथा दरभंगा में संस्कृत साहित्य व्याकरण, न्याय तथा मीमांसा का गहन अध्यायन।
  • 1913 : स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती के प्रयास से 28 दिसम्बर को बलिया में हथुआ-नरेश की अध्यक्षता में सम्पन्न अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में प्रथम बार उपस्थित तथा ब्राह्मण समाज की स्थिति पर भाषण।
  • 1914 : काशी से 'भूमिहार ब्राह्मण पत्र' निकालकर 1916 तक उसका सम्पादन तथा प्रकाशन।
  • 1914-15 : भारत के विभिन्न भागों में भ्रमण कर भूमिहार ब्राह्मणों तथा अन्य ब्राह्मणों का विवरण एकत्र करना।
  • 1916 : 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' का प्रकाशन। [ काशी के अतिरिक्त विश्वम्भरपुर गाजीपुरमें अधिकांश समय निवास। ]
  • 1917 : प्रथम बार भोजपुर के डुमरी में आगमन तथा कान्यकुब्ज और शाकद्वीपी ब्राह्मणों के विवाद में पं. देवराज चतुर्वेदी (का. ब्रा. भा.) द्वारा।
  • 1919 : सिमरी (आरा) आकर पुन: विश्वम्भरपुर (गाजीपुर) वापस।
  • 1920 : 5 दिसम्बर को पटना में श्री मजहरुल हक के निवास पर ठहरे महात्मा गाँधी से राजनीतिक वार्ता तथा राजनीति में प्रवेश का निश्चय कर कांग्रेस में शामिल।
  • 1921 : गाजीपुर जिला कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना तथा अहमदाबाद कांग्रेस में शामिल होना।
  • 1922 : 2 जनवरी को गिरफ्तार होकर 1 वर्ष का कारावास।
  • 1923 : जेल से छूटने पर सिमरी (भोजपुर) में निवास।
  • 1924 : सिमरी तथा आसपास प्रयत्न से खादी वस्त्रोत्पादन के लिए 500 चर्खे तथा 4 कर्घे का चलवाना प्रारम्भ। सामाजिक सभाओं में ब्राह्मणों की एकता तथा संस्कृत शिक्षा प्रचारार्थ भाषण। सिमरी (भोजपुर) में चार महीने में 'कर्मकलाप' (जन्म से मरण तक के संस्कारों का 1200 पृष्ठों के हिन्दी के विधि सहित विशाल ग्रन्थ की रचना)।
  • 1925 : काशी में आयोजित संयुक्त प्रान्तीय भू. ब्रा. सभा में भू. ब्रा. द्वारा पुरोहिती करने से सम्बन्धित भाषण। दिसम्बर में खलीलाबाद (बस्ती) में राजा चन्द्रदेश्वर प्र. सिंह (मकसूदपुर, गया) की अध्यक्षता में सम्पन्न अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में पुरोहिती वाला प्रस्ताव पेश कर उसमें महत्त्वपूर्ण भाषण।
  • 1925 : भूमिहार ब्राह्मण परिचय का परिवर्ध्दन कर 'ब्रह्मर्षि वंश विस्तार' नाम से प्रकाशन।
  • 1926 : 'कर्मकलाप' का काशी से प्रकाशन।
  • 1926 : अमिला, घोषी आजमगढ़ में आयोजित भू. ब्रा. महासभा में भाषण तथा संस्कृत शिक्षा प्रचार का सन्देश। समस्तीपुर में निवास तथा पटना में आयोजित अखिल भारतीय भू. ब्रा. महासभा में त्यागी ब्राह्मण चौ. रघुवीर सिंह को अध्यक्ष निर्वाचित कराना तथा पुरोहिती के प्रस्ताव को पारित कराना।
  • 1927 : समस्तीपुर से आकर पटना जिले के बिहटा में श्री सीताराम दासजी द्वारा प्रदत्त भूमि में श्री सीतारामाश्रम बनाकर स्थायी निवास तथा पश्चिमी पटना किसान सभा की स्थापना।
  • 1928 : सोनपुर (छपरा) में 17 नवम्बर को सम्पन्न बिहार प्रान्तीय किसान सम्मेलन का अध्यक्ष चुना जाना।
  • 1929 : अन्तिम बार मुंगेर की अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में सम्मिलित, मतभेद के कारण वापस।
  • 1930 : अमहरा (पटना) में 26 जनवरी को नमक कानून भंग के कारण 6 माह का कारावास। हजारीबाग जेल में 'गीता रहस्य' (गीता पर महत्त्वपूर्ण भाष्य) की रचना। जेल से लौटकर कांग्रेस तथा किसान सभा के कार्यों में संलग्न होना।
  • 1934 : भूकम्प पीड़ितों की सेवा हेतु बिहार में समिति गठित कर सेवा कार्य का संचालन।
  • 1935 : पटना जिला कांग्रेस के अध्यक्ष प्रादेशिक कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य तथा अ. भा. कांग्रेस समिति का सदस्य चुना जाना।
  • 1936 : अखिल भारतीय किसान सभा का संगठन तथा प्रथम अधिवेशन का अध्यक्ष पद ग्रहण। (लखनऊ)
  • 1937 : अ. भा. किसान सभा का महामन्त्री चुना जाना।
  • 1938 : 13 मई से 15 मई तक सम्पन्न अ. भा. किसान सम्मेलन (कोमिल्ला, बंगाल) के अध्यक्ष।
  • 1939 : अ. भा. किसान सभा के महामन्त्री निर्वाचित तथा 1943 तक उक्त पद पर।
  • 1940 : (19-20 मार्च) को रामगढ़ (बिहार) में श्री सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित अ. भा. समझौता विरोधी सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष। उपर्युक्त सम्मेलन में भाषण के लिए 3 वर्ष का कारावास।
  • 1941: से 43 : जेल में कई पुस्तकों की रचना।
  • 1944 : 14,15 मार्च को बेजबाड़ा (अन्धा्र) में अ. भा. किसान सम्मेलन के अध्यक्ष।
  • 1948 : 6 दिसम्बर को कांग्रेस की प्राथमिक एवं अ. भा. कांग्रेस की सदस्यता का त्याग तथा साम्यवादी सहयोग से किसान मोर्चा का संचालन।
  • 1949 : महाशिवरात्रि को बिहटा (पटना) में हीरक जयन्ती समारोह समिति द्वारा साठ लाख रुपये की थैली भेंट तथा उसका तदर्थ दान।
  • 1949 : 9 अप्रैल (रामनवमी) को अयोध्या में सम्पन्न अ. भा. विरक्त महामण्डल के प्रथम अधिवेशन में शंकराचार्य के बाद अध्यक्षीय भाषण।
  • 1950 : अप्रैल में रक्तचाप से विशेष पीड़ित होकर प्राकृतिक चिकित्सार्थ डॉ॰ शंकर नायर (मुजफ्फरपुर) से चिकित्सा प्रारम्भ। मई-जून से अपने अनन्य अनुयायी किसान नेता पं. यमुना कार्यी (देवपार, पूसा, समस्तीपुर) के निवास पर निवास।
  • 1950 : 26 जून को पुन: डॉ॰ नायर को दिखाने आने पर मुजफ्फरपुर में ही पक्षाघात का आक्रमण तथा 26 जून की रात्रि 2 बजे प्रसिद्ध वकील पं. मुचकुन्द शर्मा के निवास पर देहान्त।
  • 27/6/50 को शव का पटना गाँधी मैदान में लाखों लोगों द्वारा अन्तिम दर्शन डॉ॰ महमूद की अध्यक्षता में शोकसभा, नेताओं द्वारा श्रध्दांजलि।
  • 28/6/50 : डॉ॰श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमन्त्री तथा अन्य नेताओं का अर्थी के साथ श्री सीतारामाश्रम, बिहटा पटना में पहुँचना तथा वहीं अन्तिम समाधि।

स्वामी जी द्वारा रचित पुस्तक -

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार, ब्राह्मण समाज की स्थिति, झूठा भय मिथ्या-अभिमान, कर्म-कलाप, गीता-हृदय (धार्मिक) क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा, किसान सभा के संस्मरण, किसान कैसे लड़ते हैं, झारखण्ड के किसान, किसान क्या करें, मेरा जीवन संघर्ष (आत्मकथा) आदि।

स्वामीजी द्वारा सम्पादित पत्र - 

स्वामीजी ने क्रमश: भूमिहार ब्राह्मण, काशी और लोक संग्रह, पटना नामक पत्रों का सम्पादन 1911-16 और 1922-24 तक सफलतापूर्वक किया। उनके लेख 'हुंकार' पटना, जनता (पटना), विशाल भारत (कलकत्ता) तथा कल्याण (गोरखपुर) के ईश्वरांक तथा योगांक में भी प्रकाशित हुए थे।

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