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At - 2021-10-17 01:25:09
बिहार में 1857 का संग्राम, भाग -1
महत्वपूर्ण घटना-
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में बिहार में लगभग आठ सौ लोगों को फाँसी पर चढ़ा दिया गया था। हजारों लोगों पर मुकदमा चलाया गया, सैकड़ों गाँव जलाए गए। इसमें शामिल विद्रोहियों की जमीन-जायदाद जब्त कर ली गई और उसे गद्दारों में बाँट दिया गया था।
जब भारत ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई लड़ी तो कई प्रांतों में इसका नेतृत्व आरा के बाबू कुंवर सिंह ने किया उस वक्त उनकी उम्र 80 वर्ष की थी उन्होंने अपने नेतृत्व कौशल से अंग्रेजों की ताकतवर सेना को भी कई मौके पर मौत दी है जब 1857 का यह विद्रोह देश के अन्य प्रांतों में ठंडा पड़ गया तब भी वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे।
बिहार मे सबसे पहले 12 जून 1857 को देवधर ज़िले के रोहिणी नामक जगह पर अमानत अली, सलामत अली और शेख़ हारो बग़ावत कर अंग्रेज़ अफ़सर को मार देते हैं और इस जुर्म के लिए इन्हे 16 जून 1857 को आम के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी जाती है और इस तरह बिहार मे क्रांति की शुरुआत होती है।
23 जुन 1857 को तिरहुत के वारिस अली को गिरफ़्तार कर लिया गया जिसके बाद सारे इलाक़े में क्रांति की लहर फैल गई।
3 जुलाई 1857 को दो सौ से अधिक हथियारबंद क्रान्तिकारी मुल्क को गु़लामी की ज़ंजीर से आज़ाद करवाने के लिये पटना में निकल पड़े, लेकिन अंग्रेज़ों ने सिख सैनिको की मदद से उन्हें हरा दिया। पीर अली सहित कई क्रांतिकारी पकड़ गये, इन्हे हथियार मौलवी मेहंदी ने फ़राहम कर दिया था।
6 जुलाई 1857 को तिरहुत के वारिस अली को बग़ावत के जुर्म मे फाँसी पर लटका दिया गया।
7 जुलाई, 1857 को पीर अली के साथ घासिटा, खलीफ़ा, गुलाम अब्बास, नंदू लाल उर्फ सिपाही, जुम्मन, मदुवा, काजिल खान, रमजानी, पीर बख्श, वाहिद अली, गुलाम अली, महमूद अकबर और असरार अली को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया था।
पटना मे ही 13 जुलाई 1857 को पैग़म्बर बख्श, घसीटा डोमेन और कल्लू ख़ान समेत तीन लोगों को बग़ावत के जुर्म मे फांसी पर लटका दिया जाता है ।
इन्क़लाबियों की इतनी बड़ी क़ुर्बानीयों की ख़बर सुनकर दानापुर की फ़ौजी टुकड़ी ने 25 जुलाई को बग़ावत कर दिया और वे बाबू कुंवरसिंह की फ़ौज से जाकर मिल गए।
8 अगस्त 1857 को पीर अली ख़ान के साथी औसाफ़ हुसैन और छेदी ग्वाला को भी बग़ावत के जुर्म मे फांसी पर लटका दिया जाता है.. बाक़ी लोगों को काला पानी की सज़ा होती है। (बिहार के प्रमुख मुस्लिम क्रांतिकारी पीर अली खान जो एक गरीब पुस्तक बाइंडर थे, जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों के बीच महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाएं और खुफिया संदेशों को गुप्त रूप से वितरित का करने का काम किया। जिसकी सजा में उन्हें तत्कालीन पटना के कमिश्नर विलियम टेलर द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर फांसी दे दी गई। पीर अली एक स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्हें अंग्रेज से लड़ने के कारण फांसी दी गई थी।)
1857 के विद्रोह से पूर्व महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि :-
(ध्यातव्य दे कि 1845 मे पटना का एक असफ़ल विद्रोह हुआ था जो होने से पहले ही दबा दिया गया था। 1845 मे जब नेओरा के रहने वाले मुन्शी राहत अली ने पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद से मिल कर उन्हे अंग्रेज़ी फ़ौज के ख़िलाफ़ बग़ावत करने के लिए तैयार किया मगर रेजिमेंट के ही एक हवालदार ने अंग्रेज़ो के प्रती वफ़ादारी दिखाते हुए सारे राज़ खोल दिये जिसके बाद पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद गिरफ़्तार कर लिए गए। उनके पास से ज़मीनदारो और बा-असर लोगो के ख़त पकड़े गए जिसमे कई लोगो का राज़ खुल गया। इसमे कुछ ख़त बाबु कुंवर सिंह के भी थे। पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद ने अपने जुर्म का एक़रार कर लिया और उनके बयान पर मुन्शी राहत अली , और पटना के शहरी ख़्वाजा हसन अली गिरफ़्तार कर लिए गए। इनदोनो पर मुक़दमा चला और फ़ैसला 1846 को आया पर इक़रारी मुजरिम (पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद) ने इन दोनो (मुन्शी राहत अली और ख़्वाजा हसन अली) को पहचानने से इनकार कर दिया जिस वजह कर ये लोग रिहा कर दिये गए. पर पीर बख़्श और दुर्गा प्रासाद सज़ा हुई। पटना के लॉ अफ़िसर मौलवी नियाज़ अली, सरकारी वकील बरकतउल्लाह और दरोग़ा मीर बाक़र को बर्ख़ास्त कर दिया जाता है। बाबु कुंवर सिंह(जगदीशपुर) , मौलवी अली करीम-डुमरी और पुलिस जमीदार अपने कद्दावर असर की वजह कर बच गए।
सन् सत्तावन के विद्रोह के दो साल पहले पटना से ‘हरकारा’ प्रकाशित हुआ था और सन् 1856 में ‘अखबार-ए-बिहार’ प्रकाशित होने लगा था।)
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