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At - 2021-10-22 07:41:51
बिहार में पाल वंश
पाल वंश (Pal/Pala Dynasty)
उत्तर भारत में हर्षवर्द्धन के पतन और बंगाल क्षेत्र में शशांक के पतन के बाद बिहार-बंगाल क्षेत्र में एक शक्तिशाली वंश के रूप में पाल वंश का उदय हुआ।
पाल वंश का संस्थापक गोपाल था, जिसने 750-770 ई. तक शासन किया।
बंगाल के सामंतों एवं आम जनता के द्वारा गोपाल को शासक चुना गया था।
तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार गोपाल पुंडूवर्धन (बंगाल) बोगरा जिला के क्षत्रिय कुल का था। इसने बिहार में अपना शासन शीघ्र ही विस्तृत किया।
गोपाल के बाद धर्मपाल (770-810 ई.) शासक बना।
इसने 8वीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में कन्नौज पर आक्रमण किया तथा चक्रयुद्ध को कन्नौज का शासक नियुक्त कर एक भव्य दरबार का आयोजन किया और ‘उत्तरापथस्वामिन्’ की उपाधि धारण की। गुजरात के कवि सोढ़दश ने 11वीं सदी में अपनी रचना ‘उदयसुंदरी’ में धर्मपाल को उत्तर का स्वामी कहा है।
धर्मपाल को प्रतिहार शासक वत्सराज एवं राष्ट्रकूट शासक धुरव ने पराजित किया।
धर्मपाल के बाद पाल वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक देवपाल गद्दी पर आसीन हुआ।
इसके समय में पाल वंश अपने चरमोत्कर्ष पर था। उसने विस्तारवादी नीति अपनाई तथा पूर्वोत्तर में प्राग्ज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल और पूर्वी सागर तट तक उड़ीसा में अपनी सत्ता का विस्तार किया।
उसने प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय तथा कंबोज के हूणों को पराजित किया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसने दक्कन के राज्यों के साथ भी संघर्ष किया।
उसके समय में दक्षिण-पूर्वी एशिया के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। उसने जावा के शासक बलदेवपुत्र के अनुरोध पर नालंदा में एक विहार की देखरेख के लिए पाँच गाँव अनुदान में दिए।
देवपाल बौद्ध धर्म के प्रश्रयदाता के रूप में प्रसिद्ध था। अरब यात्री सुलेमान ने राष्ट्रकूट एवं प्रतिहार वंश के सभी शासकों में देवपाल को सर्वश्रेष्ठ शासक माना है।
देवपाल की मृत्यु के बाद मिहिरभोज एवं महेंद्र पाल के शासन काल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
11वीं शताब्दी में महिपाल प्रथम शासक बना, जिसे पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है।
महिपाल ने समस्त बंगाल और मगध के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, लेकिन उसके उत्तराधिकारी कमजोर साबित हुए।
इसके समय में राजेंद्र चोल ने बंगाल पर आक्रमण किया। कमजोर उत्तराधिकारी होने के कारण बंगाल में कैवर्त अधिक शक्तिशाली होते चले गए और सेन शासकों ने उत्तरी बिहार और बंगाल के कुछ क्षेत्रों में अपना राज्य स्थापित कर लिया।
पालों की शक्ति मगध के कुछ भागों में सिमटकर रह गई। रामपाल पाल वंश का अंतिम शासक बना।संध्याकर नंदी की रचना ‘रामचरित्र’ रामपाल से संबंधित है।
रामपाल की मृत्यु के बाद गहड़वालों ने भी बिहार में शाहाबाद और गया तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया।
सेन शासकों-विजय सेन और बंगाल सेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार करते हुए गया के पूर्व तक अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
इसी समय तुर्की के आक्रमण बिहार में 12वीं शताब्दी के अंत तक आरंभ हो गए थे।
शिक्षा व कला
पाल वंश के समकालीन वंश
महत्वपूर्ण बिन्दु:-
पाल वंश
पालवंश के मुख्य शासक
गोपाल (Gopal)
ऐसी अराजकतापूर्ण स्थिति में बंगाल के मुख्य लोगों ने गोपाल को समूचे राज्य का शासक चुना। गोपाल ने एक वंश की स्थापना की, जिसने बंगाल में चार शता. तक शासन किया। उसका जन्म पुंडरवर्धन (बोगरा जिला) में हुआ था। गोपाल की वास्तविक शासन सीमा को तय करना कठिन है, लेकिन संभवतः उसने संपूर्ण बंगाल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था।
गोपाल बौद्ध धर्म का प्रबल अनुयायी था, और ओदंतपुरी (आधुनिक बिहार शरीफ) का बौद्ध विहार संभवतः उसी ने बनवाया था।
2. धर्मपाल (Dharmapala)
गोपाल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र धर्मपाल था, जिसने पाल राज्य को महानता प्रदान की। राज्यारोहण के तुरंत बाद ही धर्मपाल को उस काल की दो मुख्य शक्तियों – प्रतिहार और राष्ट्रकूट के साथ संघर्ष में उलझना पङा। प्रतिहार शासक वत्सराज ने धर्मपाल को एक युद्ध में हरा दिया, जो गंगा के दोआब क्षेत्र में कहीं लङा गया था, लेकिन वत्सराज के अपनी विजय का सुख भोगने से पहले ही राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने उसे पराजित कर दिया। उसके बाद उसने धर्मपाल को पराजित किया तथा कुछ समय के बाद दक्कन की ओर प्रस्थान किया।
गुर्जर-प्रतिहार शासक
इन सभी पराजयों के बावजूद धर्मपाल को उसकी उम्मीद से ज्यादा फायदा हुआ। प्रतिहार शक्ति की पराजय तथा राष्ट्रकूटों के वापस चले जाने के बाद धर्मपाल अब महान पाल साम्राज्य स्थापित करने की सोच सकता था। धर्मपाल ने कन्नौज की गद्दी पर चक्रायुद्ध को बैठाया ।
धर्मपाल के अधीन पाल साम्राज्य काफी विस्तृत था। बिहार और बंगाल सीधे उसके शासन के अधीन आते थे। इसके अलावा कन्नौज का राज्य धर्मपाल पर आश्रित था, तथा वहां के शासक को धर्मपाल ने नामजद किया था। कन्नौज से आगे पंजाब, राजपूताना, मालवा तथा बरार के कई छोटे-छोटे राज्यों ने भी धर्मपाल की अधीनता स्वीकार की।
धर्मपाल के विजय अभियान को उसके प्रतिहार प्रतिद्वंद्वी नागभट्ट द्वितीय ने चुनौती दी तथा कन्नौज से उसके आश्रित चक्रयुद्ध को खदेङ दिया। इन दोनों शासकों के बीच अब श्रेष्ठता की लङाई अवश्यंभावी हो गयी। प्रतिहार शासक मुंगेर तक चला गया तथा एक घमासान युद्ध में धर्मपाल को पराजित किया। लेकिन धर्मपाल को समय रहते राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय ने बीच-बचाव कर बचा लिया, जिससे शायद धर्मपाल ने सहायता मांगी थी। लगभग 32 वर्षों के शासन काल के बाद धर्मपाल की मृत्यु हो गयी तथा उसके विशाल राज्य का स्वामी उसका बेटा देवपाल बना।वह बौद्ध था, तथा उसने भागलपुर के निकट विक्रमशील के प्रसिद्ध महाविहार का निर्माण कराया। सोमपुर (पहाङपुर) के विहार के निर्माण का श्रेय भी उसी को दिया जाता है। तारानाथ के अनुसार धर्मपाल ने 50 धार्मिक संस्थानों की स्थापना की तथा वह महान बौद्ध लेखक हरिभद्र का संरक्षक भी था।
देवपाल (Devpal)
धर्मपाल का उत्तराधिकारी देवपाल बना, जिसे सर्वाधिक शक्तिशाली पाल शासक माना जाता है। शिलालेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार उसे हिमालय से विंध्य तक तथा पूर्वी से पश्चिमी समुद्र तक के क्षेत्रों को जीतने का श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है, कि उसने गुर्जरों तथा हूणों को पराजित किया और उत्कल तथा कामरूप पर अधिकार कर लिया। जिन हूण तथा कंबोज शासकों को देवपाल ने पराजित किया,उनकी पहचान कभी स्थापित नहीं हो पाई है। गुर्जर प्रतिद्वन्द्वी मिहिरभोज को माना जा सकता है, जिसने अपने राज्य का विस्तार पूर्व की ओर करना चाहा था, किन्तु देवपाल ने उसे पराजित कर दिया।अपने पिता की तरह देवपाल भी बौद्ध था, तथा इस रूप में उसकी ख्याति भारत के बाहर कई बौद्ध देशों में फैली। जावा के शैलेन्द्र शासक बलपुत्र देव ने देवपाल के पास अपना राजदूत भेजकर उससे नालंदा के एक बौद्ध विहार को पांच गांव दान में देने का आग्रह किया। देवपाल ने आग्रह स्वीकार कर लिया। बौद्ध कवि वज्रदत्त देवपाल के दरबार में रहता था, जिसने लोकेश्वर शतक की रचना की। एक अरब व्यापारी सुलेमान, जो भारत आया था और जिसने अपनी यात्रा का विवरण 85 ई. में लिखा, पाल राज्य का नाम रूमी बताता है। उसके अनुसार पाल शासक का गुर्जर एवं राष्ट्रकूटों से युद्ध चलता था तथा उसके पास अपने प्रतिद्वन्द्वियों से अधिक सेना थी।
परवर्ती पाल शासक
देवपाल की मृत्यु के साथ ही पाल साम्राज्य का गौरव समाप्त हो गया तथा वह फिर से प्राप्त नहीं किया जा सका। उसके उत्तराधिकारियों के काल में राज्य का विघटन धीरे-2 होता रहा। देवपाल का उत्तराधिकारी विग्रहपाल था। तीन या चार साल के छोटे शासन काल के बाद विग्रहपाल ने गद्दी त्याग दी।
विग्रहपाल के पुत्र और उत्तराधिकारी नारायण पाल का शासन काल बङा था। राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ने पाल शासक को पराजित किया। प्रतिहारों ने धीरे-धीरे पूर्व की ओर अपनी शक्ति का विस्तार आरंभ किया। नारायणपाल को न सिर्फ मगध से हाथ धोना पङा अपितु पाल राज्य का मुख्य भाग उत्तरी बंगाल भी उसके हाथ से निकल गया। यद्यपि अपने शासन के अंतिम चरणों में उसके प्रतिहारों से उत्तरी बंगाल और दक्षिणी बिहार को छीन लिया, क्योंकि प्रतिहार राष्ट्रकूटों के आक्रमण के कारण कमजोर हो गये थे।
नारायणपाल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र राज्यपाल बना तथा राज्यपाल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र गोपाल द्वितीय था। इन दो शासकों का शासन पाल शक्ति के लिये अनर्थकारी सिद्ध हुआ। चंदेल तथा कलचुरी आक्रमणों के कारण पाल साम्राज्य चरमरा गया।
पालों की गिरती हुई साख को कुछ हद तक महिपाल प्रथम ने संभाला। महिपाल के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना बंगाल पर राजेन्द्र चोल का आक्रमण है। राजेन्द्र चोल के उत्तरी अभियान का विवरण उसके तिरुमलाई शिलालेख में मिलता है। यद्यपि चोल आक्रमण द्वारा बंगाल में उसकी संप्रभुता स्थापित नहीं हो सकी। उत्तरी और पूर्वी बंगाल के अलावा महिपाल बर्दवान प्रभाग के उत्तरी भाग को भी वापस पाल राज्य में मिलाने में सफल रहा। महिपाल की सफलता उत्तरी तथा दक्षिणी बिहार में ज्यादा प्रभावशाली रही। वह बंगाल के एक बङे भाग पर दोबारा अपना अधिकार जमाने में सफल रहा। उसकी सफलता का एक बङा कारण महमूद का लगातार आक्रमण था, जिसके कारण शायद उत्तरी भारत के राजपूतों की शक्ति तथा स्रोत क्षीण हो गये थे। पाल वंश का अंतिम शासक मदनपाल था।
महीपाल
11वीं सदी में महीपाल प्रथम ने 988 ई.-1008 ई. तक शासन किया। महीपाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है।
उसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया।
महीपाल के बाद पाल वंशीय शासक निर्बल थे जिससे आन्तरिक द्वेष और सामन्तों ने विद्रोह उत्पन्न कर दिया था।
बंगाल में केवर्त, उत्तरी बिहार मॆम सेन आदि शक्तिशाली हो गये थे।
रामपाल के निधन के बाद गहड़वालों ने बिहार में शाहाबाद और गया तक विस्तार किया था।
सेन शसकों वल्लासेन और विजयसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार किया।
इस अराजकता के परिवेश में तुर्कों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया।
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बिहार से झारखंड अलग हो जाने के बाद बिहार में खनिज का वह भंडार ना रहा जो भंडार झारखंड के अलग होने से पूर्व था, लेकिन इसके बावजूद बिहार में अभी कई ऐसे खनिज का भंडार है जो बिहार की आर्थिक समृद्धि के लिए सहायक हो सकती है। इस लेख में इन्हीं खनिजों के विषय में संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास किया गया है।
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बिहार एक ऐसा राज्य जोकि प्राचीन काल से ही विद्वानों के लिए प्रसिद्ध है, जिन्हें विश्व की प्राचीन विश्वविद्यालय के इतिहास होने का गौरव प्राप्त है। इस भूमि में प्राचीनकाल से ही कई साहित्यकार का जन्म हुआ, जिनकी कृति आज भी लोकप्रिय है।
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झारखंड के नए राज्य के निर्माण के रुप में बनने के बाद बिहार में जनजाति ?