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मुद्दा : महिला-विवाह की आयु सीमा में परिवर्तन

By - Gurumantra Civil Class

At - 2021-11-07 09:31:20

महिला-विवाह की आयु सीमा में परिवर्तन

विवाह की एक समान आयु - वाद

 

कुछ दिनों पहले दिल्ली उच्च न्यायालय में  एक  याचिका दायर कर पुरुषों और महिलाओं के लिये विवाह की एक समान आयु की मांग की गई थी।

 

  • भारतीय दंड संहिता ने वर्ष 1860 में 10 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ किसी भी प्रकार के शारीरिक संबंध को अपराध की श्रेणी में रखा था।
  • उपरोक्त प्रावधान को वर्ष 1927 में आयु कानून 1927 के माध्यम से संशोधित किया गया, जिसने 12 वर्ष से कम आयु की लड़कियों के साथ विवाह को अमान्य बना दिया।
  •  इस कानून का विरोध राष्ट्रवादी आंदोलन के रूढ़िवादी नेताओं द्वारा किया गया क्योंकि वे इस प्रकार के कानूनों को हिंदू रीति-रिवाजों में ब्रिटिश हस्तक्षेप मानते थे।
  • बाल विवाह निरोधक अधिनियम 1929 के अनुसार महिलाओं और पुरुषों के विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 16 और 18 वर्ष निर्धारित की गई थी। 
  • इस कानून को शारदा अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है, हरविलास शारदा न्यायाधीश और आर्य समाज की सदस्य थीं।

 

संविधान का दृष्टिकोण: -

  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 भी महिलाओं और पुरुषों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित करते हैं।
  • कानून विवाह की न्यूनतम आयु के माध्यम से बाल विवाह और नाबालिगों के अधिकारों के दुरुपयोग को रोकते हैं। 
  • विवाह के संबंध में विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों के अपने मानक हैं, जो अक्सर रीति-रिवाजों को दर्शाते हैं।
  • इस्लाम में यौवन प्राप्ति को नाबालिगों के विवाह के लिये व्यक्तिगत कानून के तहत वैध माना जाता है।
  • हिंदू धर्म में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (iii) के तहत दुल्हन और वर की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित की गई थी। 
  • इस अधिनियम के अनुसार बाल विवाह गैरकानूनी नहीं था लेकिन विवाह में नाबालिग के अनुरोध पर इस विवाह को शून्य घोषित किया जा सकता था।

 

विवाह की आयु से संबंधित मुद्दे:-

पुरुषों और महिलाओं के लिये विवाह की अलग-अलग आयु का प्रावधान कानूनी विमर्श का विषय बनता जा रहा है।

 इस प्रकार के कानून रीति-रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं का एक कोडीकरण है जो पितृसत्ता में निहित हैं।

विवाह की अलग-अलग आयु, संविधान के अनुच्छेद 14 ( समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) का उल्लंघन करती है।

विधि आयोग ने वर्ष 2018 मे परिवार कानून में सुधार के एक परामर्श पत्र में तर्क दिया कि पति और पत्नी की अलग-अलग कानूनी आयु रूढ़िवादिता को बढ़ावा देती है।

विधि आयोग के अनुसार, पति और पत्नी की आयु में अंतर का कानून में कोई आधार नहीं है क्योंकि पति या पत्नी का विवाह में शामिल होने का तात्पर्य हर तरह से समान है और वैवाहिक जीवन में उनकी भागीदारी भी समान होती है।

महिला अधिकारों हेतु कार्यरत कार्यकर्त्ताओं ने भी तर्क दिया है कि समाज के लिये यह केवल एक रूढ़ि मात्र है कि एक समान आयु में महिलाएँ, पुरुषों की तुलना में अधिक परिपक्व होती हैं और इसलिये उन्हें कम आयु में विवाह की अनुमति दी जा सकती है।

महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन संबंधी समिति (Committee on the Elimination of Discrimination against Women- CEDAW) जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ भी ऐसे कानूनों को समाप्त करने का आह्वान करती हैं जो पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अलग भौतिक और बौद्धिक परिपक्वता संबंधी विचारों से घिरे हैं।

 

महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन संबंधी समिति

 एक  स्वतंत्र विशेषज्ञों का एक समिति है जो महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अभिसमय के कार्यान्वयन की निगरानी करती है।

CEDAW समिति में विश्व भर से महिला अधिकारों के 23 विशेषज्ञ शामिल हैं।

वे देश जो इस प्रकार की संधि के पक्षकार बन गए हैं, अभिसमय के क्रियान्वयन संबंधी प्रगति रिपोर्ट समिति को नियमित रूप से सौंपने के लिये बाध्य हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2014 में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ के निर्णय में कहा कि तीसरे लिंग के रूप में ट्रांसजेंडरों को भी अन्य सभी मनुष्यों की तरह समान कानूनों में समान अधिकार मिलना चाहिये।

नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी बनाम भारतीय संघ, भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसने ट्रांसजेंडर लोगों को 'तीसरा लिंग' घोषित किया, पुष्टि की कि भारत के संविधान के तहत दिए गए मौलिक अधिकार उनके लिए समान रूप से लागू होंगे ।

सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2019 में जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (Joseph Shine v Union of India) मामले में व्यभिचार (Adultery) को रद्द करते हुए कहा कि इस प्रकार के कानून लैंगिक रूढ़ियों के आधार पर महिलाओं से विभेद करते हैं जो महिलाओं की गरिमा संबंधी समानता का उल्लघंन भी करते हैं।

जोसेफ शाइन की याचिका  :-

भारत से एक मामले में निर्वासित और अब इटली में बतौर एनआरआई रह रहे जोसेफ ने आठ 2017 को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की, जिसे चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने स्वीकार करते हुए खुद सुनवाई करने का फैसला किया। 

जोसेफ ने कहा था कि अगर यौन संबंध महिला और पुरूष के आपसी सहमति से बनता है तो फिर महिलाओं को सजा से अगल रखना और पुरूष को सजा देने का क्या औचित्य है।

याचिका में कहा गया था कि धारा 497 पितृसत्तात्मक समाज पर आधारित प्रावधान है।

 इसमें महिला के साथ भेदभाव होता है। 

इस प्रावधान के तहत महिला को पुरुष की संपत्ति माना जाता है, क्योंकि अगर महिला के पति की सहमति मिल जाती है, तो ऐसे संबंध को अपराध नहीं माना जाता।

 

पांच जजों ने बेंच ने रद्द किया कानून :-

 चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस आर एफ नरीमन, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संविधान पीठ ने एडल्टरी से जुड़ी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 497 (व्यभिचार) को असंवैधानिक करार दिया।

 कोर्ट ने इसी से संबंधित सीआरपीसी की धारा 198 के एक हिस्से को भी रद्द कर दिया।

 

फैसले पर कोर्ट की अहम टिप्पणी :-

फैसला सुनाने वाले एक जज ने कहा कि महिलाओं को जागीर नहीं समझा जा सकता। 

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि व्यभिचार अपराध नहीं हो सकता। यह निजता का मामला है। पति, पत्नी का मालिक नहीं है। 

महिलाओं के साथ पुरूषों के समान ही व्यवहार किया जाना चाहिए।

 

भारत में राष्‍ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority (NALSA):-

भारत में राष्‍ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority (NALSA)) का गठन विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत किया गया। 

इसका काम कानूनी सहायता कार्यक्रम लागू करना और उसका मूल्यांकन एवं निगरानी करना है। साथ ही, इस अधिनियम के अन्तर्गत कानूनी सेवाएं उपलब्ध कराना भी इसका काम है।

प्रत्येक राज्य में एक राज्य कानूनी सहायता प्राधिकरण तथा प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक उच्च न्यायालय कानूनी सेवा समिति गठित की गई है। जिला कानूनी सहायता प्राधिकरण और तालुका कानूनी सेवा समितियां जिला और तालुका स्तर पर बनाई गई हैं। इनका काम नालसा की नीतियों और निर्देशों को कार्य रूप देना और लोगों को निशुल्क कानूनी सेवा प्रदान करना और लोक अदालतें चलाना है।

राज्य कानूनी सहायता प्राधिकरणों की अध्यक्षता संबंधित जिले के मुख्य न्यायाधीश और तालुका कानूनी सेवा समितियों की अध्यक्षता तालुका स्तर के न्यायिक अधिकारी करते हैं।

 

निशुल्क कानूनी सेवाओं में निम्नलिखित शामिल हैं—

किसी कानूनी कार्यवाही में कोर्ट फीस और देय अन्य सभी प्रभार अदा करना,

कानूनी कार्यवाही में वकील उपलब्ध कराना,

कानूनी कार्यवाही में आदेशों आदि की प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करना,

कानूनी कार्यवाही में अपील और दस्तावेज का अनुवाद और छपाई सहित पेपर बुक तैयार करना।

 

मुफ्त कानूनी सहायता पाने के पात्र:-

  • महिलाएं और बच्चे
  • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्य
  • औद्योगिक श्रमिक
  • बड़ी आपदाओं, हिंसा, बाढ़, सूखे, भूकंप और औद्योगिक आपदाओं के शिकार लोग
  • विकलांग व्यक्ति
  • हिरासरत में रखे गए लोग
  • ऐसे व्यक्ति जिनकी वार्षिक आय 100,000 रुपए से अधिक नहीं है
  • बेगार या अवैध मानव व्यापार के शिकार।

 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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