शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्त्व का विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया उसे समाज में एक वयस्क की भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा समाज के सदस्य एवं एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है।
शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना है। ‘शिक्ष्’ का अर्थ है सीखना और सिखाना। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया।
शिक्षा, समाज एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है।
बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है।
बच्चा समाज से तभी जुड़ पाता है जब वह उस समाज विशेष के इतिहास से अभिमुख होता है।
व्यापक अर्थ में शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है।
अतः मानव संसाधन के विकास का मूल शिक्षा है, जो देश के सामाजिक-आर्थिक तंत्र के संतुलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
शिक्षा का अधिकार
इतिहास
स्वर्गीय गोपाल कृष्ण गोखले ने 18 मार्च 1910 में ही भारत में "मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा" के प्रावधान के लिए ब्रिटिश विधान परिषद् के समक्ष प्रस्ताव रखा था, जो निहित स्वार्थों के विरोध के चलते अंततः ख़ारिज हो गया।
अधिनियम:-
वास्तव में, शिक्षा जो शुरू में एक संवैधानिक अधिकार था किन्तु अब एक मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है।
शिक्षा का अधिकार के लिए सैद्धांतिक रुप से विकास भारत के संविधान की शुरुआत में ही हो चुका था ।
शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 41 के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत मान्यता दी गई थी जिसके अनुसार:-
"राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के भीतर, शिक्षा और बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी और विकलांगता के मामले में सार्वजनिक सहायता करने के लिए काम करते हैं, सही हासिल करने के लिए प्रभावी व्यवस्था करने और नाहक के अन्य मामलों में चाहते हैं "।
संविधान के 86 में संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा 21(A) जोड़ा गया जो यह प्रावधान करता है कि राज्य विधि बनाकर 6 से 14 वर्ष के सभी बालकों के लिए निशुल्क शिक्षा अनिवार्य के लिए अपबंद करेगा।
इस अधिकार को व्यवहारिक रूप देने के लिए संसद में निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 पारित किया। जो 1 अप्रैल 2010 से लागू हुआ ।
इस अधिनियम में 7 अध्याय तथा 38 खण्ड हैं। इस अधिनियम के अंतर्गत 6-14 वर्ष के लगभग 22 करोड़ बच्चों में से 92 लाख (4.6%) बच्चे विद्यालय नहीं जा पाते हैं, जिनकी शिक्षा के लिए 1.71 लाख करोड़ रुपये की 5 वर्षों में आवश्यकता होगी। जिसमें से 25 हज़ार करोड़ रुपये वित्त आयोग राज्यों को देगा।
(RTE अधिनियम के लिए एक कच्चा मसौदा विधेयक 2005 में प्रस्ताव किया गया था।)
आरटीई अधिनियम निम्नलिखित का प्रावधान करता है :-
किसी पड़ोसकेस्कूल में प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए बच्चों का अधिकार।
यह स्पष्ट करता है कि 'अनिवार्य शिक्षा' का तात्पर्य छह से चौदह आयु समूह के प्रत्येक बच्चे को नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने और अनिवार्य प्रवेश, उपस्थिति और प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करने को सुनिश्चित करने के लिए उचित सरकार की बाध्यता से है। 'नि:शुल्क' का तात्पर्य यह है कि कोई भी बच्चा प्रारंभिक शिक्षा को जारी रखने और पूरा करने से रोकने वाली फीस या प्रभारों या व्ययों को अदा करने का उत्तरदायी नहीं होगा।
यह गैर-प्रवेश दिए गए बच्चे के लिए उचित आयु कक्षा में प्रवेश किए जाने का प्रावधान करताव्शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने में उचित सकारों, स्थानीय प्राधिकारी और अभिभावकों कर्त्तव्यों और दायित्वों और केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच वित्तीय और अन्य जिम्मेदारियों को विनिर्दिष्ट करता है।
यह, अन्यों के साथ-साथ, छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर), भवन और अवसंरचना, स्कूल के कार्य दिवस, शिक्षक के कार्य के घंटों से संबंधित मानदण्डों और मानकों को निर्धारित करता है।
यह राज्य या जिले अथवा ब्लॉक के लिए केवल औसत की बजाए प्रत्येक स्कूल के लिए रखे जाने वाले छात्र और शिक्षक के विनिर्दिष्ट अनुपात को सुनिश्चित करके अध्यापकों की तैनाती के लिए प्रावधान करता है, इस प्रकार यह अध्यापकों की तैनाती में किसी शहरी-ग्रामीण संतुलन को सुनिश्चित करता है।
यह दसवर्षीय जनगणना, स्थानीय प्राधिकरण, राज्य विधान सभा और संसद के लिए चुनाव और आपदा राहत को छोड़कर गैर-शैक्षिक कार्य के लिए अध्यापकों की तैनाती का भी निषेध करता है।
यह उपयुक्त रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति के लिए प्रावधान करता है अर्थात अपेक्षित प्रवेश और शैक्षिक योग्यताओं के साथ अध्यापक।
यह (क) शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न; (ख) बच्चों के प्रवेश के लिए अनुवीक्षण प्रक्रियाएं; (ग) प्रति व्यक्ति शुल्क; (घ) अध्यापकों द्वारा निजी ट्यूशन और (ड.) बिना मान्यता के स्कूलों को चलाना निषिद्ध करता है।
यह संविधान में प्रतिष्ठापित मूल्यों के अनुरूप पाठ्यक्रम के विकास के लिए प्रावधान करता है और जो बच्चे के समग्र विकास, बच्चे के ज्ञान, संभाव्यता और प्रतिभा निखारने तथा बच्चे की मित्रवत प्रणाली एवं बच्चा केन्द्रित ज्ञान की प्रणाली के माध्यम से बच्चे को डर, चोट और चिंता से मुक्त बनाने को सुनिश्चित करेगा।
यह अधिनियम सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक बालक को गुणवत्ता पूर्ण प्राथमिक शिक्षा का अधिकार प्राप्त हो और इसे राज्य परिवार समुदाय की सहायता से पूर्ण किया जा सकता है।
इससे सम्बंधित कुछ प्रावधानों का वर्णन निम्नलिखित है –
अनुदान प्राप्त एवं निजी विद्यालयों से 25% सीट निर्बल समुदाय के लिए आरक्षित होगा जिसका वहन सरकार करेगी।
पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो बालकों की झिझक दूर करें तथा व्यावहारिक जीवन में सफलता प्राप्त करने हेतु सहायक हो।
पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए जो अनेक दैनिक जीवन से सम्बन्ध रखते हों।
कुछ दिनों पहले राइट टू एजुकेशन फोरम द्वारा जारी एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा का अधिकार कानून अभी तक हकीकत में बहुत कारगर नहीं बन पाया है और इसमें कई लूपहोल हैं।
जैसे-
समाज के वंचित वर्गों में शिक्षा के प्रति उदासीनता।
अधिकांश परिवारों में रोटी पहले, शिक्षा बाद में अर्थात् परिवार का भरण-पोषण प्राथमिकता है।
केवल 8 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जो RTE नियमों के तहत विद्यार्थियों को दाखिला दे रहे हैं।
20% शिक्षक प्रशिक्षित नहीं हैं।
देश में 8% स्कूल ऐसे हैं जिन्हें केवल एक ही शिक्षक चलाता है।
5 राज्य ऐसे हैं जिन्होंने इस कानून को अधिसूचित ही नहीं किया है।
धनाभाव के कारण आवश्यक संरचना का अभाव।
प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव।
शिकायत निवारण तंत्र का अभाव।
निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा (संशोधन) विधेयक 2019 :-
विधेयक में प्रावधान किया गया है कि आठवीं कक्षा तक के छात्रों को भी परीक्षा में योग्यता के आधार उत्तीर्ण किया जाएगा।
अभी तक की ‘नो डिटेशन नीति’ के अनुसार आठवीं कक्षा तक के छात्रों को अनुत्तीर्ण नहीं किया जा सकता है।
नये कानून में किसी को विद्यालय से बाहर करने का प्रावधान नहीं है बल्कि इससे बच्चों में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तथा बेहतर परिणाम सामने आयेंगे।
केन्द्रीय मंत्री द्वारा संसद में बताया गया कि हाल के वर्षों में शिक्षा के बजट में 40 प्रतिशत की वृद्धि की गयी है और यह 82 हजार करोड़ से बढ़कर 1 लाख 15 हजार करोड़ रुपए हो गया है।
निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009
इस अधिनियम के अंतर्गत छह से चौदह वर्ष के बीच के सभी बच्चों को अपने पड़ोस के स्कूल में प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 1-8) प्राप्त करने का अधिकार है।
इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा समाप्त होने तक किसी भी बच्चे को किसी भी कक्षा में रोका नहीं जा सकता है।
अगली कक्षा में स्वतः प्रमोशन से यह सुनिश्चित होता है कि पहले की कक्षा में बच्चे को न रोकने के परिणामस्वरूप वह स्कूल नहीं छोड़ता है।
हाल के वर्षों में विशेषज्ञ समितियों ने इस अधिनियम के नो डिटेंशन प्रावधान की समीक्षा की और यह सुझाव दिया कि इसे हटा दिया जाए या चरणबद्ध तरीके से समाप्त कर दिया जाए।
निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2017
नो डिटेंशन प्रावधान को हटाने के लिये निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 में संशोधन हेतु लोकसभा में निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2017 पेश किया गया था।
विधेयक की विशेषताएँ
निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 प्राथमिक शिक्षा पूरी होने तक बच्चों को पिछली कक्षा में रोकने यानी डिटेंशन को प्रतिबंधित करता है। लेकिन यह विधेयक इस प्रावधान में संशोधन करता है और कहता है कि कक्षा 5 तथा कक्षा 8 में प्रत्येक शैक्षणिक वर्ष के अंत में नियमित परीक्षा संचालित की जाएगी। अगर विद्यार्थी परीक्षा पास करने में असफल हो जाता है तो उसे अतिरिक्त शिक्षण दिया जाएगा और दोबारा परीक्षा ली जाएगी।
अगर विद्यार्थी दोबारा असफल हो जाता है तो संबंधित केंद्र या राज्य सरकार का स्कूल बच्चे को पिछली कक्षा में रोकने यानी डिटेंशन की अनुमति दे सकता है।
नो डिटेंशन पॉलिसी (No Detention Policy)
शिक्षा का अधिकार के मौजूदा प्रावधान के अनुसार, छात्रों को 8वीं कक्षा तक फेल होने के बाद भी अगली कक्षा में प्रवेश दे दिया जाता है, इसे ही 'नो डिटेंशन पॉलिसी' के नाम से जानते हैं।
नो डिटेंशन पॉलिसी, शिक्षा के अधिकार अधिनियम (2009) का अहम हिस्सा है। इस अधिनियम में प्रावधान है कि बच्चों को आठवीं तक किसी भी कक्षा में फेल होने पर उसी कक्षा में पुनः पढ़ने के लिये बाध्य न किया जाए; अगर किसी छात्र के प्राप्तांक कम हैं तो उसे पासिंग ग्रेड देकर अगली कक्षा में भेज दिया जाए।
इस पॉलिसी का मुख्य उद्देश्य यह था कि छात्रों की सफलता का मूल्यांकन केवल उनके द्वारा परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर न किया जाए बल्कि इसमें उनके सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखा जाए।
किंतु, इसके लागू होने के कुछ ही वर्षों में यह शिकायत मिलने लगी कि बच्चो में उस कक्षा के स्तर की अपेक्षित जानकारी नहीं है जिस कारण उनके सीखने के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है।
ऐसा माना जा रहा था कि इस पॉलिसी के लागू होने से छात्र और अभिभावक दोनों सुस्त हो गए थे, जिससे सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में गिरावट आई।
नो डिटेंशन से संबंधित प्रमुख मुद्दे
असफल होने पर बच्चों को पिछली कक्षा में रोका जाना चाहिये या नहीं इस संबंध में अधिनियम के इस प्रावधान को लेकर भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ लोगों का यह मानना है कि अगली कक्षा में स्वतः प्रमोशन से बच्चों में सीखने और अध्यापकों में सिखाने की भावना कम हो जाती है।
कुछ अन्य लोगों का यह मानना है कि बच्चों को पिछली कक्षा में रोकने यानी डिटेंशन के परिणामस्वरूप वे स्कूल छोड़ (drop out) देते हैं। जबकि वे व्यवस्था संबंधी उन कारकों पर ध्यान नहीं देते हैं जिसमें अध्यापकों और स्कूल की गुणवत्ता, मूल्यांकन का तरीका, पठन-पाठन की शैली जैसे कारक शामिल हैं।
संशोधित विधेयक 1.4 मिलियन प्राथमिक विद्यालयों के 180 मिलियन से अधिक छात्रों को प्रभावित करेगा
पिछले कुछ सालों में लगभग 25 राज्यों ने इस पॉलिसी के कारण शिक्षा का स्तर गिरने की बात कहते हुए केंद्र सरकार इसे समाप्त करने की मांग से की थी। इसके बाद संशोधन का फैसला लिया गया था।
अप्रैल 2010 में आरटीई अधिनियम की शुरुआत के बाद से पहली से लेकर आठवीं कक्षा तक कोई भी छात्र फेल नहीं हुआ था, लेकिन इस अभ्यास ने शिक्षा के खराब स्तर के लिये इसे आलोचना का शिकार बना दिया।
गैर-लाभकारी संगठन ‘प्रथम’ द्वारा प्रकाशित ग्रामीण भारत के लिये शिक्षा रिपोर्ट की वार्षिक स्थिति (ASER) के अनुसार, पाँचवी कक्षा के सभी छात्रों का अनुपात जो कि कक्षा दो के स्तर की पाठ्य पुस्तक पढ़ सकते थे, 2014 में 48.1% से गिरकर 2016 में 47.8% हो गया था। अंकगणित और अंग्रेज़ी विषय में भी यही स्थिति देखी गई।
बदलाव का प्रभाव
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 को मूल अधिकार बनाने का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना है। लेकिन नो-डिटेंशन पॉलिसी में प्रस्तवित बदलाव सामाजिक-आर्थिक कारकों को नज़रअंदाज़ करता दिख रहा है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक, 2014-2015 में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर लगभग 4% थी और बच्चों को परीक्षाओं के आधार पर फेल करने से स्कूल छोड़ने की दर में वृद्धि होगी।
आर्थिक रूप से वंचित समूहों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे अपने बच्चों को निजी ट्यूशन दिला सकें। नो-डिटेंशन पॉलिसी में बदलाव के कारण फेल होने वाले बच्चों को आगे की कक्षाओं में प्रोन्नति नहीं मिल सकेगी और ऐसे में उनके माता-पिता का यह सोचना स्वाभाविक है कि बच्चे स्कूल जाने की बजाय कहीं काम पर जाएँ।
लड़कियों के लिये तो यह बदलाव और भी गंभीर साबित हो सकता है। कम उम्र में विवाह, स्कूल का घर के नज़दीक न होना, कम लागत वाले सैनिटरी नैपकिन और स्कूलों में शौचालयों का अभाव आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वज़ह से लड़कियाँ माध्यमिक स्तर तक पहुँचते-पहुँचते स्कूल छोड़ देती हैं। अब नो डिटेंशन पॉलिसी में यह बदलाव उनके स्कूल छोड़ने का एक और कारण बन सकता है।
यह भी देखा गया है कि जब किसी बच्चे को उसकी उम्र से कम उम्र के बच्चों के समूह में बैठने को मजबूर किया जाता है, तो वह परेशान होता है; दूसरे बच्चे उसका मज़ाक बनाते हैं, परिणामस्वरूप वह स्कूल छोड़ देता है।
अधिनियम में समस्या
इतने वर्षों बाद भी इस अधिनियम के अपेक्षानुरूप कार्यान्वित न होने के पीछे अनेकानेक कारण हैं:-
इसके दिशा-निर्देशों के संबंध में अधिकांश माता-पिता को जानकारी न होने के कारण वे अपने बच्चों के लिये अधिकारों की मांग नहीं कर पाते।
अनेक विद्यालय मानते हैं कि RTE के अंतर्गत गरीब बच्चों के प्रवेश से उनके विद्यालय के परिणाम का स्तर गिर जाएगा, अतः वे इन बच्चों के प्रवेश को हतोत्साहित करते हैं।
सरकार स्कूलों को समय पर क्षतिपूर्ति राशि प्रदान नहीं करती, अतः स्कूल प्रशासन इन बच्चों को प्रवेश देने में आनाकानी करता है।
इस अधिनियम के कार्यान्वयन के संबंध में कोई पुख्ता शिकायत निवारण तंत्र मौजूद नहीं है।
इस अधिनियम के अंतर्गत सीमांत वर्गों, जैसे-LGBT, विकलांगों, अनाथों, भिखारियों आदि के बच्चों के लिये पृथक् प्रावधान नहीं किया गया है।
'सर्व शिक्षा अभियान' में धन की कमी सबसे बड़ी बाधा
सर्वशिक्षा अभियान RTE अधिनियम के कार्यान्वयन का एक मुख्य साधन है।
यह दुनिया में अपनी तरह के सबसे बड़े कार्यक्रमों में से एक है।
यह मुख्यतया केंद्रीय बजट से प्राथमिक तौर पर वित्तपोषित है और पूरे देश में चलाया जाता है।
केंद्र सरकार सर्व शिक्षा अभियान तथा राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की केंद्र प्रायोजित योजनाओं के माध्यम से कई स्तरों पर अध्यापकों के नियमित सेवाकालीन प्रशिक्षण, नए भर्ती अध्यापकों के लिये प्रवेश प्रशिक्षण, आईसीटी कम्पोनेन्ट पर प्रशिक्षण, विस्तृत शिक्षा, लैंगिक संवेदनशीलता तथा किशोरावस्था शिक्षा सहित गुणवत्ता सुधार के लिये राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की मदद करती है। इनके तहत प्राथमिक तथा माध्यमिक दोनों स्तरों पर अध्यापकों को उनकी पेशेवर उन्नति के लिये विशिष्ट विषयक, आवश्यकता आधारित तथा अध्यापकीय सेवाकाल के दौरान सुसंगत प्रशिक्षण देने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
बाल अधिकार
बालकों का सर्वांगीण विकास ही देश के विकास की रुपरेखा तैयार करता है। बालकों की शिक्षा इनके विकास की आधारशिला होती है इसलिए शिक्षा प्रत्येक बालक का जन्म सिद्ध अधिकार है।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 20 नवम्बर 1989 को बाल अधिकार की घोषणा की गई।
जिसे भारत सरकार द्वारा 11 दिसम्बर 1992 में अंगीकृत किया गया।
जिसके मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं –
बच्चों के माता – पिता की इच्छा के विरुद्ध अलग न करना।
बच्चों को नशीले पदार्थों के प्रयोग करने से रोकना।
बच्चों के क्रय – विक्रय एवं व्यापार को रोकने के लिए राष्ट्र द्वारा कानून बनाना।
लैंगिग शोषण से बचाना।
बच्चों के जन्म के तुरन्त बाद पंजीकरण और राष्ट्रीयता प्राप्त करने का अधिकार। ..... आदि।
*स्रोत : द हिंदू, मिंट एवं पी.आर.एस*
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